________________
मूल्य दर्शन और पुरुषार्थ चतुष्टय
१८५ इच्छा या रुचि का निर्माण भी नहीं है। वह न तो निरा तर्क है और न होती है उतनी विवेक या भाव की नहीं। यह बात तो मूल्य विशेष की निरी भावना या संवेदना। मूल्यात्मक चेतना में इष्टत्व, सुखदता अथवा प्रकृति पर निर्भर है कि उसका मूल्य-बोध करते समय कौन सा पक्ष इच्छा-तृप्ति का विचार अवश्य उपस्थित रहता है, किन्तु यह इच्छा- प्रधान होगा। इतना ही नहीं, मूल्य-बोध में देश-काल और परिवेश के तृप्ति का विचार या इष्टत्व का बोध विवेक-रहित न होकर विवेक-युक्त तत्त्व भी चेतना पर अपना प्रभाव डालते हैं और हमारे मूल्यांकन को होता है। इच्छा स्वयं में कोई मूल्य नहीं, उसकी अथवा उसके विषय प्रभावित करते हैं। इस प्रकार मूल्य-बोध एक सहज प्रक्रिया न होकर की मूल्यात्मकता का निर्णय स्वयं इच्छा नहीं, विवेक करता है, भूख एक जटिल प्रक्रिया है और उसकी इस जटिलता में ही उसकी सापेक्षता स्वयं मूल्य नहीं है, रोटी मूल्यवान है, किन्तु रोटी की मूल्यात्मकता भी निहित है। जो आचार किसी देश, काल परिस्थिति विशेष में शुभ माना स्वयं रोटी पर नहीं अपितु उसका मूल्यांकन करने वाली चेतना पर तथा जाता है वही दूसरे देश, काल और परिस्थिति में अशुभ माना जा क्षुधा की वेदना पर निर्भर है। किसी वस्तु के वांछनीय, ऐषणीय या सकता है। सौंदर्य-बोध, रसानुभूति आदि के मानदण्ड भी देश, काल मूल्यवान् होने का अर्थ है-निष्पक्ष विवेक की आँखों में वांछनीय होना। और व्यक्ति के साथ परिवर्तित होते रहते हैं। आज सामान्यजन फिल्मी मात्र इच्छा या मात्र वासना अपने विषय को वांछनीय या एषणीय नहीं गानों में जो रस-बोध पाता है वह उसे शास्त्रीय संगीत में नहीं मिलता बना देती है, यदि उसमें विवेक का योगदान न हो। मूल्य का जन्म है। इसी प्रकार रुचि-भेद भी हमारे मूल्य-बोध को एवं मूल्यांकन को वासना और विवेक तथा यथार्थ और आदर्श के सम्मिलन में ही होता प्रभावित करता है। वस्तुत: मूल्य-बोध की अवस्था चेतना की निष्क्रिय है। वासना मूल्य के लिए कच्ची सामग्री है तो विवेक उसका रूपाकार। अवस्था नहीं है। जो विचारक यह मानते हैं कि मूल्य-बोध एक प्रकार उसमें भोग और त्याग, तृप्ति और निवृत्ति एक साथ उपस्थित रहते हैं। का सहज ज्ञान है, वे उसके स्वरूप से ही अनभिज्ञ हैं। मात्र यही नहीं, इस सन्दर्भ में श्री संगमलाल जी पांडेय का मूल्यों की त्यागरूपता का रसानुभूति या सौंदर्यानुभूति में और तत्सम्बन्धी मूल्य-बोध में भी अन्तर सिद्धान्त भी एकांगी ही लगता है। उनका यह कहना कि “निवृत्ति ही है। रसानुभूति या सौंदर्यानुभूति में मात्र भावपरक पक्ष की उपस्थिति मूल्यसार है" ठीक नहीं है। मूल्य में निवृत्ति और संतुष्टि (प्रवृति) दोनों पर्याप्त होती है, उसमें विवेक का कोई तत्त्व उपस्थित हो ही यह ही अपेक्षित हैं। उन्होंने अपने लेख में निवृत्ति शब्द का दो भिन्न अर्थों आवश्यक नहीं है, किन्तु तत्सम्बन्धी मूल्य-बोध में किसी न किसी में प्रयोग किया है, जो एक भ्रान्ति को जन्म देता है। क्षुधा की निवृत्ति विवेक का तत्त्व अवश्य ही उपस्थित रहता है। मूल्य-बोध और मूल्यया कामवेग की निवृत्ति में त्याग नहीं भोग है पुन: इस निवृत्ति को भी लाभ सक्रिय एवं सृजनात्मक चेतना के कार्य हैं। मूल्य-बोध और मूल्यसन्तुष्टि का ही दूसरा रूप कहा जा सकता है। (देखिए-दार्शनिक लाभ में मानवीय चेतना के विविध पक्षों का विविध आयामों में एक त्रैमासिक, जुलाई १९७६)।
प्रकार का द्वन्द्व चलता है। वासना और विवेक अथवा भावना या विवेक पुनश्च, यह मानना भी उचित नहीं है कि मूल्य-बोध में विवेक के अन्तर्द्वन्द्व में ही मनुष्य मूल्य-विश्व का आभास पाता है यद्यपि या बुद्धि ही एकमात्र निर्धारक तत्त्व है। मूल्य-बोध की प्रक्रिया में मूल्यांकन करने वाली चेतना मूल्य-बोध में इस द्वन्द्व का अतिक्रमण निश्चित ही विवेक-बुद्धि का महत्त्वपूर्ण स्थान है, किन्तु यही एकमात्र करती है। वस्तुत: इस द्वन्द्व में जो पहलू विजयी होता है उसी के आधार निर्धारक तत्त्व नहीं है। मूल्य-बोध न तो मात्र जैव-प्रेरणा या इच्छा से पर व्यक्ति की मूल्य-दृष्टि बनती है और जैसी मूल्य-दृष्टि बनती है वैसा उत्पन्न होता है और न मात्र विवेक-बुद्धि से। मूल्य-बोध में भावात्मक ही मूल्यांकन या मूल्य-बोध होता है। जिनमें जिजीविषा प्रधान हो, पक्ष का भी महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, किन्तु केवल भावोन्मेष भी मूल्य- जिनकी चेतना को जैव प्रेरणाएँ ही अनुशासित करती हों, उन्हें रोटी बोध नहीं दे पाता है। डॉ. गोविन्दचन्द्रजी पांडे के शब्दों में "यह अर्थात् जीवन का संवर्द्धन ही एकमात्र परम मूल्य लग सकता है, किन्तु (मूल्य-बोध) केवलभाव-सघनता या इच्छोद्वेलन न होकर व्यक्त या अनेक परिस्थितियों में विवेक के प्रबुद्ध होने पर कुछ व्यक्तियों को अव्यक्त विवेक से अलौकिक है, उसमें अनुभूति की जीवन्त सघनता चारित्रिक एवं अन्य उच्च मूल्यों की उपलब्धि हेतु जीवन का बलिदान
और रागात्मकता (लगाव) के साथ ज्ञान की स्वच्छता और तटस्थता ही एकमात्र परम मूल्य लग सकता है। किसी के लिए वासनात्मक एवं (अलगाव) उपस्थित होती है (मूल्य-मीमांसा)। इस प्रकार मूल्य-चेतना जैविक मूल्य ही परम मूल्य हो सकते हों और जीवन सर्वतोभावेन में ज्ञान, भाव और इच्छा तीनों ही उपस्थित होते हैं। फिर भी यह रक्षणीय माना जा सकता हो, किन्तु किसी के लिए चारित्रिक या नैतिक विचारणीय है कि क्या सभी प्रकार के मूल्यांकन में ये सभी पक्ष समान मूल्य इतने उच्च हो सकते हैं कि वह उनकी रक्षा के लिए जीवन का रूप से बलशाली रहते हैं? यद्यपि प्रत्येक मूल्य-बोध एवं मूल्यांकन में बलिदान कर दे। इस प्रकार मूल्य-बोध की विभिन्न दृष्टियों का निर्माण ज्ञान, भाव और इच्छा के तत्त्व उपस्थित रहते हैं, फिर भी विविध प्रकार चेतना के विविध पहलुओं में से किसी एक की प्रधानता के कारण के मूल्यों का मूल्यांकन या मूल्य-बोध करते समय इनके बलाबल में अथवा देश-काल तथा परिस्थितिजन्य तत्त्वों के कारण होता है और तरतमता अवश्य रहती है। उदाहरणार्थ-सौंदर्य-बोध में भाव या उसके परिणामस्वरूप मूल्य-बोध तथा मूल्यांकन भी प्रभावित होता है। अनुभूत्यात्मक पक्षका जितना प्राधान्य होता है उतना अन्य पक्षों का अत: हम कह सकते हैं कि मूल्य-बोध भी किसी सीमा तक दृष्टिनहीं। आर्थिक एवं जैविक मूल्यों के बोध में इच्छा की जितनी प्रधानता सापेक्ष है, किन्तु इसके साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org