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________________ १८४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ३. अहवा हेउ चउविहे पण्णते तं जहाँ पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्म ७. मीमांसा कोष, पृ० १६३८ __ -स्थानांग ३३८ ८. तत्रोहो नाम प्रकृतावन्यथा दृषष्य विकृतावन्यथा भावः। ४. मतिः स्मृति: संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम-तत्वार्थ १/१ १०. न्यायसूत्र पर वात्सयान भाष्य १/१/१, पृ० ५३ ५. तत्त्वार्थ भाष्य १/१५ ११. न्यायसूत्र पर विश्वनाथ वृत्ति १/१/४० ६. भारतीय दर्शन का इतिहास, भाग ४ पृ० १९०-१९१ १२. न्यायसूत्र पर वात्सायन भाष्य, पृ० ३२०-२१ मूल्य दर्शन और पुरुषार्थ चतुष्टय मूल्य-दर्शन का उद्भव एवं विकास से ग्रसित हैं। वास्तव में मूल्य एक अनैकान्तिक, व्यापक एवं बहुएक नवीन दार्शनिक प्रस्थान के रूप में 'मूल्य दर्शन' का आयामी प्रत्यय है, वह एक व्यवस्था है, एक संस्थान है, उसमें भौतिक विकास लौत्से, ब्रेन्टानो, एरनफेल्स, माइनांग, हार्टमन, अरबन, अवरेट, और आध्यात्मिक, श्रेय और प्रेय, वांछित और वांछनीय, उच्च और मैक्स शिलर आदि विचारकों की रचनाओं के माध्यम से १९वीं निम्न, वासना और विवेक सभी समन्वित हैं। वे यथार्थ और आदर्श की शताब्दी के अन्तिम चरण में प्रारम्भ होता है, तथापि श्रेय एवं प्रेय के खाई के लिए एक पुल का काम करते हैं। अत: उन्हें किसी ऐकान्तिक विवेक के रूप में परम सुख की खोज के रूप में एवं पुरुषार्थ की एवं निरपेक्ष दृष्टिकोण के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता। विवेचना के रूप में मूल्य-बोध और मूल्य-मीमांसा के मूलभूत प्रश्नों मूल्य एक नहीं, अनेक हैं और मूल्य-दृष्टियाँ भी अनेक हैं। अत: प्रत्येक की समीक्षा एवं तत्सम्बन्धी चिन्तन के बीज पूर्व एवं पश्चिम के प्राचीन मूल्य किसी दृष्टि विशेष के प्रकाश में ही आलोकित होता है। वस्तुतः दार्शनिक चिन्तन में भी उपलब्ध होते हैं। वस्तुत: मूल्य-बोध मानवीय मूल्यों की और मूल्य-दृष्टियों की इस अनेकविधता और बहु-आयामी प्रज्ञा के विकास के साथ ही प्रारम्भ होता है। अत: वह उतना ही प्राचीन प्रकृति को समझे बिना मूल्यों का सम्यक् मूल्यांकन भी सम्भव नहीं हो है, जितना मानवीय प्रज्ञा का विकास। मूल्य-विषयक विचार-विमर्श की सकता है। यह धारा जहाँ भारत में 'श्रेय' एवं 'मोक्ष' को परम मूल्य मान कर आध्यात्मिकता की दिशा में गतिशील होती रही, वहीं पश्चिम में 'शुभ मूल्यबोध की सापेक्षता एवं 'कल्याण' पर अधिक बल देकर ऐहिक, सामाजिक एवं बुद्धिवादी मूल्य-बोध में मानवीय चेतना के विविध पहलू एक-दूसरे से बनी रही। फिर भी अर्थ, काम और धर्म के त्रिवर्ग को स्वीकार कर न संयोजित होते हैं। मूल्यांकन करने वाली चेतना भी बहु-आयामी है, तो भारतीय विचारकों ने ऐहिक और सामाजिक जीवन के मूल्यों की उसमें ज्ञान, भाव और संकल्प तीनों ही उपस्थित रहते हैं। विद्वानों ने उपेक्षा की है और न सत्य, शिव एवं सुन्दर के परम मूल्यों को स्वीकार इस बात को सम्यक् प्रकार से न समझ कर ही मूल्यों के स्वरूप को कर पश्चिम के विचारकों ने मूल्यों की आध्यात्मिक अवधारणा की समझने में भूल की है। यहाँ हमें दो बातों को ठीक प्रकार से समझ लेना उपेक्षा की है। होगा-एक तो यह कि सभी मूल्यों का मूल्यांकन चेतना के किसी एक ही पक्ष के द्वारा सम्भव नहीं है, दूसरे यह कि मानवीय चेतना के सभी मूल्य का स्वरूप पक्ष एक-दूसरे से पूर्णतया निरपेक्ष होकर कार्य नहीं करते हैं। यदि हम मूल्य क्या है? इस प्रश्न के अभी तक अनेक उत्तर दिये गये इन बातों की उपेक्षा करेंगे तो हमारा मूल्य-बोध अपूर्ण एवं एकांगी हैं- सुखवादी विचारपरम्परा के अनुसार, जो मनुष्य की किसी इच्छा की होगा। फिर भी मूल्य-दर्शन के इतिहास में ऐसी उपेक्षा की जाती रही है। तृप्ति करता है अथवा जो सुखकर, रुचिकर एवं प्रिय है, वही मूल्य है। एरेनफेल्स ने मूल्य को इच्छा (डिज़ायर) का विषय माना तो माइनांग विकासवादियों के अनुसार जो जीवनरक्षक एवं संवर्द्धक है, वही मूल्य ने उसे भावना (फीलिंग) का विषय बताया। पैरी ने उसे रुचि (इंट्रेस्ट) है। बुद्धिवादी कहते हैं कि मूल्य वह है जिसे मानवीय प्रज्ञा निरपेक्ष रूप का विषय मानकर मूल्य-बोध में इच्छा और भावना का संयोग माना है। से वरेण्य मानती है और जो एक विवेकवान् प्राणी के रूप में मनुष्य- सारले ने उसे अनुमोदन (एप्रीसियेशन) का विषय मान कर उसमें ज्ञान जीवन का स्वत: साध्य है। अन्तत: पूर्णतावादी आत्मोपलब्धि को ही और भावना का संयोग माना है। फिर भी ये सभी विचारक किसी सीमा मूल्य मानते हैं और मूल्य के सम्बन्ध में एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत तक एकांगिकता के दोष से नहीं बच पाये हैं। करते हैं। वस्तुत: मूल्य के सन्दर्भ में ये सभी दृष्टिकोण किसी सीमा तक मूल्य-बोध न तो कुर्सी और मेज़ के ज्ञान के समान तटस्थ ऐकान्तिकता एवं अवान्तर-कल्पना के दोष (Naturalistic Fallacy) ज्ञान है और न प्रेयसी के प्रति प्रेम की तरह मात्र भावावेश ही। वह मात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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