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________________ जैन वाक्य दर्शन १४७ अर्थात् क्रियापद को ही वाक्य माना जाये तो फिर आख्यातपद का ही संघात नहीं है। मात्र पदों को एकत्र रखने से वाक्य नहीं बनता है। अभाव होगा क्योंकि आख्यातपद अर्थात् क्रियापद वह है, जो उद्देश्य वाक्य बनने के लिए 'कुछ और' चाहिए और यह 'कुछ और' पदों के और विधेयपद के अथवा अपने और उद्देश्यपद के पारस्परिक सम्बन्ध एक विशेष प्रकार के एकीकरण से प्रकट होता है। यह पदों के अर्थ को सूचित करता है। उद्देश्य या विधेयपद से निरपेक्ष होकर तो वह से अधिक एवं बाहरी तत्त्व होता है। पदों के समवेत होने पर आये अपना अर्थात् आख्यातपद का स्वरूप ही खो चुकेगा; क्योंकि निरपेक्ष हुए इस 'अर्थाधिक्य' को ही संघातवादी वाक्यार्थ मानते हैं। इस होने से वह न तो उद्देश्यपद और विधेयपद के सम्बन्ध को और न प्रकार संघातवाद में वाक्य को पदसमूह के रूप में और वाक्यार्थ को उद्देश्यपद अपने सम्बन्ध को सूचित करेगा। पुन: यदि आख्यातपद पदों के अर्थसमूह के रूप में स्वीकार किया जाता है, किन्तु यहाँ अन्य पदों से सापेक्ष होकर वाक्य है, तो वह कथंचित् सापेक्ष होकर समूह या संघात ही महत्त्वपूर्ण तत्त्व है क्योंकि वह पदों के अर्थ में वाक्य है या पूर्णतया सापेक्ष होकर वाक्य। इसमें भी प्रथम मत के कुछ नयी बात को भी जोड़ता है। इस मत के अनुसार पदों के संघात अनुसार यदि यह माना जाये कि वह कथंचित् सापेक्ष होकर वाक्य है, में कुछ एक ऐसा नया तत्त्व होता है जो पदों के अलग-अलग होने तो इससे तो जैन मत का ही समर्थन होगा। पुनः यदि दूसरे विकल्प पर नहीं होता है। उदाहरण के रूप में 'घोड़ा' 'घास' 'खाता है'- ये के अनुसार यह माना जाये कि वह पूर्ण सापेक्ष होकर वाक्य है, तो तीन पद अलग-अलग रूप में जिस अर्थ के सूचक हैं, इनका संघात पूर्ण सापेक्षता के कारण उसमें वाक्यत्व का ही अभाव होगा और या संहति अर्थात् 'घोड़ा घास खाता है उससे भिन्न अर्थ का सूचक वाक्यत्व का अभाव होने से उसके प्रकृत अर्थ अर्थात् आख्यात है। इस प्रकार संघातवादी पदों के संघात को ही वाक्यार्थ के अवबोध स्वभाव का ही अभाव होगा, वह अर्द्धवाक्यवत् होगा; क्योंकि पूर्ण का मुख्य आधार मानते हैं। सापेक्षा होने के कारण उसे अपना अर्थबोध कराने के लिये अन्य संघातवाद की इस मान्यता की समालोचना करते हुए प्रभाचन्द्र किसी की अपेक्षा बनी रहेगी। अन्य किसी की अपेक्षा रहने से वह प्रमेयकमलमार्तण्ड में लिखते हैं कि पदों का यह संघात या संघटन वाक्य के स्वरूप को प्राप्त नहीं होगा; क्योंकि वाक्य तो सापेक्ष पदों देशकृत है या कालकृत। यदि पदों के संघात को देशकृत अथवा की निरपेक्ष संहति अर्थात् इकाई है। अत: जैनों के अनुसार कथंचित् कालकृत माना जाये तो यह विकल्प युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि सापेक्ष और कथंचित् निरपेक्ष होकर ही आख्यातपद वाक्य हो सकता वाक्य के सुनने में क्रमश: उत्पन्न एवं ध्वंस होने वाले पदों का एक हैं। इसका तात्पर्य है कि वह अन्य पदों से मिलकर ही वाक्य स्वरूप ही देश या एक ही काल में अवस्थित होकर संघात बनाना सम्भव को प्राप्त होता है। आख्यातपद वाक्य का चाहे एक महत्त्वपूर्ण अंग नहीं हैं। पुन: यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वाक्यरूपता को प्राप्त हो, किन्तु वह अकेला वाक्य नहीं है। पद वाक्य से भिन्न है या अभिन्न है। वह भिन्न नहीं हो सकता, क्योंकि यह सत्य है कि अनेक स्थितियों में केवल क्रियापद के भिन्न रहने पर वह वाक्यांश नहीं रह जायगा और वाक्य के अंश के उच्चारण से सन्दर्भ के आधार पर वाक्यार्थ का बोध हो जाता है, किन्तु रूप में उसकी प्रतीति नहीं होगी। पुनः जिस प्रकार एक वर्ण का दूसरे वहाँ भी गौणरूप से अन्य पदों की उपस्थिति तो है। 'खाओ' कहने से वर्ण से संघात नहीं होता उसी प्रकार एक पद का भी दूसरे पद के न केवल खाने की क्रिया की सूचना मिलती है, अपितु खानेवाले व्यक्ति साथ संघात नहीं होता हैं पुन: यदि संघात अभिन्न रूप में है तो यह और खाद्य वस्तु का भी अव्यक्त रूप से निर्देश होता है; क्योंकि बिना प्रश्न उपस्थित होता है तो वह सर्वथा अभिन्न है या कथंचित् अभिन्न खानेवाले ओर खाद्य वस्तु के उसका कोई मतलब नहीं है। हिन्दी भाष है। यदि सर्वथा अभिन्न माना जायेगा तो संघात संघाती के स्वरूप में 'लीजिए' 'पाइए' आदि ऐसे आख्यातपद हैं, जो एक पद होकर भी वाला हो जायेगा, दूसरे शब्दों में पद ही वाक्यरूप हो जायेगा और वाक्यार्थ का बोध कराते हैं; किन्तु इनमें अन्य पदों का गौणरूप से ऐसी स्थिति में संघात का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा। यदि यह संकेत तो हो ही जाता हैं संस्कृत भाषा में 'गच्छामि' इस क्रियापद के संघात कथंचित् अभिन्न और कथंचित् भिन्न है तो ऐसी स्थिति में जैन प्रयोग में 'अहं' और 'गच्छति' इस क्रियापद के प्रयोग में 'स:' का मत का ही समर्थन होगा क्योंकि जैनाचार्यों के अनुसार भी पद वाक्य गौणरूप से निर्देश तो रहा ही है। क्रियापद को सदैव व्यक्त या अव्यक्त से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न होते है। इस रूप में तो यह रूप में कर्तापद की अपेक्षा तो होती ही है। अत: आख्यातपद अन्य मत जैनों को भी मान्य हो जायेगा। पदों से कथंचित् सापेक्ष होकर ही वाक्यार्थ का अवबोध करता है- यह । मानना ही समुचित है और इस रूप में यह मत जैन दार्शनिकों को भी (३) संघात में अनुस्यूत सामान्यतत्त्व (जाति) ही वाक्य है स्वीकार्य है। कुछ विचारकों की मान्यता है कि वाक्य मात्र पदों का संघात नहीं है। वाक्य के समस्त पदों के संघात से होने वाली एक (२) पदों का संघात वाक्य है सामान्य प्रतीति ही वाक्य है। इन विचारकों के अनुसार पदों के संघात बौद्ध दार्शनिकों का यह कहना है कि पदों का संघात ही से एक सामान्य तत्त्व, जिसे वे 'जाति' कहते हैं, उत्पन्न होता है और वाक्य है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि मात्र पद-समूह यह संघात में अनुस्यूत सामान्य तत्त्व ही वाक्य है। वाक्य में पदों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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