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जैन परम्परा में बाहुबलि
प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के पुत्र भरत और बाहुबलि के उदात्त कि भाई अपनी राज्यलक्ष्मी को वापस सम्भालो और दीक्षा मत लो। जीवन वृत्त जैनधर्म की दोनों ही परम्पराओं में समादृत रहे हैं। फिर भी किन्तु बाहुबलि उसके आग्रह को अस्वीकार कर देते हैं और वह अपेक्षाकृतरूप से दिगम्बर परम्परा में बाहुबलि के प्रति विशेष आदरभाव खिन्नमना अयोध्या को लौट जाता है। उसका आदर्श अनासक्त कर्मयोग देखा जाता है । सहस्राब्दी पूर्व दक्षिण में श्रवणबेलगोल में स्थापित का आदर्श है । बाहर तो वह कैवल्य लाभ के कुछ समय पूर्व तक गोम्मटेश्वर बाहुबलि की अद्वितीय विशाल प्रतिमा इस बात का स्पष्ट अपने सांसारिक दायित्वों के निर्वाह में लगा हुआ है किन्तु उसकी प्रमाण है कि दिगम्बर परम्परा में बाहुबलि को कितना गौरवपूर्ण स्थान साधना अन्दर ही अन्दर चलती रहती है । कल्पसूत्र की कुछ टीकाओं प्राप्त रहा है। आज भी न केवल अनेक दिगम्बर जैन तीर्थों एवं मन्दिरों में तो भरत की इस अनासक्त जीवन दृष्टि को एक कथा के द्वारा स्पष्ट में बाहुबलि की प्रतिमाएँ उपलब्ध होती हैं, अपितु वे तीर्थंकरों की भी किया गया है। प्रतिमाओं के समान ही पूजित भी हैं, यह सब उनके प्रति उस परम्परा भगवान् ऋषभदेव के समवशरण में एक स्वर्णकार भरत के में, जो बहुमान और श्रद्धा है, उसी का प्रतीक है । जबकि श्वेताम्बर भावी जन्म के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रकट करता है । ऋषभदेव भरत की परम्परा के तीर्थों एवं मन्दिरों में बाहुबलि की प्रतिमाओं का प्राय: अभाव इसी जीवन में मुक्ति की घोषणा करते हैं । किन्तु स्वर्णकार का मन ही देखा जाता है । यद्यपि आबू के विमलवसहि मन्दिर में, शत्रुजय आश्वस्त नहीं होता है, वह ऋषभदेव के निर्णय को पक्षपातपूर्ण मानता (पालीताना) के आदिनाथ मन्दिर में और कुम्भारिया के शांतिनाथ है । भरत उसे अपनी निष्काम जीवन दृष्टि को समझाने के लिए एक मन्दिर में बाहुबलि की अधोवस्त्र युक्त ११-१२वीं शताब्दी की कुछ घटनाचक्र खड़ा करते हैं । स्वर्णकार को ऋषभदेव और चक्रवर्ती भरत प्रतिमाएँ हैं । इसी प्रकार जैसलमेर के ऋषभदेव जी के मन्दिर में भी की निन्दा के अभियोग में मृत्युदंड दिया जाता है । उस दंड से बचने भरत और बाहुबलि की कायोत्सर्ग मुद्रा में सम्वत् १४३६ की मूर्तियाँ का एक ही उपाय है, वह यह कि स्वर्णकार तेल से पूर्ण भरे हुए कटोरे हैं (देखिये जैन लेख संग्रह,भाग ३, पृष्ठ ९४) फिर भी वे जिन प्रतिमा को लेकर अयोध्या का परिभ्रमण करे; शर्त यह है कि रास्ते में तेल की के समान पूजित नहीं हैं । इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा तप-त्याग और एक भी बूंद न गिरे, यदि एक भी बूंद गिरी तो साथ चलने वाले सैनिक साधना के अनुपम आदर्श बाहुबलि के प्रति आदरभाव रखते हुए भी वहीं उसका सिर धड़ से अलग कर देगें । किन्तु यदि वह एक भी बूंद उन्हें वह गौरव नहीं दे सकी, जैसाकि उन्हें दिगम्बर परम्परा में प्राप्त है। बिना गिराये राजभवन में लौट आएगा, तो उसका मृत्युदण्ड निरस्त कर इससे विपरीत श्वेताम्बर परम्परा का झुकाव निष्काम कर्मयोगी भरत के दिया जाएगा। प्रति अधिक देखा जाता है । श्वेताम्बर आचार्यों ने भरत के जीवन चरित्र भरत उस दिन अयोध्या को विशेष रूप से सजाते हैं । अनेक को काफी उभारा है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? हमारी दृष्टि में इसका चौराहों पर नाटक आदि का आयोजन करवाते हैं । जब वह लौटकर एक मनोवैज्ञानिक कारण है।
पहुँचता है तो भरत उससे पूछते हैं- भाई, आज नगर में कहाँ क्या
देखा? प्रत्युत्तर में स्वर्णकार कहता है - यद्यपि मैं नगर परिभ्रमण कर भरत और बाहुबलि, दो भिन्न जीवन दृष्टियाँ
रहा था, किन्तु मुझे तो मौत ही दिखाई दे रही थी अत: सब कुछ दृष्टि वस्तुत: भरत और बाहुबलि के जीवन-वृत्त दो भिन्न जीवन के समक्ष रहते हुए भी अनदेखा ही रहा । उसके इस प्रत्युत्तर के आधार दृष्टियों पर स्थित हैं । भरत का आदर्श निष्काम कर्मयोग का आदर्श है, पर भरत उसके सामने अपनी जीवन-दृष्टि को स्पष्ट करते हैं। वे कहते उसका जीवन एक अनासक्त कर्मयोगी का जीवन है, जो जल में रहे हुए हैं कि जिस प्रकार तू एक जीवन की मृत्यु के भय से नगर परिभ्रमण कमल के समान अलिप्त भाव से संसार में रहकर अपने सांसारिक करते हए उसके आकर्षणों के प्रति पूर्ण उदासीन रहा, वैसे ही मैं भी दायित्वों का निर्वाह करता है । बाह्य दृष्टिकोण से देखने पर तो वह अनंत जीवनों की मृत्यु का द्रष्टा होकर, संसार के व्यवहार करते हुए भी आकण्ठ भोगों में डूबा हुआ है, अपने चक्रवर्तित्व के पद की रक्षा के उसके प्रति उदासीन हूँ। भरत बाहर से संसार में होते हुए भी अन्तर्मन लिए वह भाई से भी युद्ध ठान बैठता है, यही नहीं उस पर चक्र भी से उससे वैसे ही अलिप्त हैं, जैसे कमल का पत्र जल में रहते हुए भी चला देता है । किन्तु भीतर से वह उतना ही अनासक्त और विनम्र भी उससे अलिप्त रहता है । यही कारण है कि वे आरिसा भवन में ही है। यही कारण है कि बाहबलि आदि सभी भाइयों के दीक्षित होने पर कैवल्य प्राप्त कर लेते हैं । कैवल्य की उपलब्धि के लिये वे न तो कोई उसका मन पश्चात्ताप और अन्तर्वेदना से भर जाता है । उसे अपने कृत्य कठोर साधना करते हैं और न गृहस्थ जीवन का त्याग करते हैं । जो पर आत्मग्लानि होती है और छोटे भाइयों के चरणों में उसका मस्तक भंगार के लिए आरिसा भवन में पहँचता है, वही कैवल्य की ज्योति से विनम्र भाव से श्रद्धापूर्वक झुक जाता है । विमलसूरि के पउमचरिउ के जगमगाता हुआ श्रमण के रूप में वहाँ से बाहर निकलता है। भरत का अनुसार तो दीक्षा लेने को उद्यत बाहुबलि से वह यहाँ तक कह देता है श्रामण्य कैवल्य का परिणाम है, कैवल्य की साधना नहीं । उनका
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