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________________ ८४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ में अवस्थान और इससे जुड़ी प्रतीक-योजना की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आगमिक तान्त्रिक तान्त्रिक दर्शन का महत्वपूर्ण पक्ष परतत्त्व को निष्क्रिय' न मानकर 'क्रिया' से युक्त मानता है । अतएव परतत्त्व एक और अद्वय होकर भी द्विध्रुवीय माना जाता है तथा पार्यन्तिक रूप में इन दोनों ध्रुवों का सामरस्य स्वीकार किया जाता है। इसीलिए आगमिक-तान्त्रिक साधना में 'शक्ति' तत्त्व अवश्य ही स्वीकृत होता है । यह अवश्य है कि शक्ति तत्त्व ही कही कही 'परतत्त्व' माना जाता है और कहीं वह ‘परतत्त्व' को प्राप्त कराने वाला तत्त्व माना जाता है । दर्शन की एक विशिष्टता के कारण ही आगम तन्त्र में 'वाक् तत्त्व' की विशेष स्थिति है। 'वाक्' का रहस्यात्मक पक्ष आगम तन्त्र में विशेष रूप से विवेचित किया गया। वाक् को 'प्रत्यक्-चैतन्य' में अन्त् सन्निविष्ट मानवर वर्ण, पद और वाक्य के रूप में पर प्रख्यात के लिए होने वाली अभिव्यक्ति को चित् तत्त्व के सातत्य में ही देखा गया है । इसीलिए परा, पश्यन्ती मध्यमा और वैखरी वाक् के इस चतुर्विध स्वरूप तथा 'वर्ण', 'मातृका' एवं 'बीज' पर विचार हुआ है। इनसे सम्बद्ध प्रतीक का आगमिक तान्त्रिक कर्मानुष्ठान में विशेष महत्त्व है और इसीलिए मन्त्र-साधना का विशिष्ट स्थान जाता । पर स्थूल और सूक्ष्म के स्तरों के स्वीकार के कारण एकबहुस्तरीय प्रतीक व्यवस्था के अन्तगर्त मन्त्र, यन्त्र, चक्र,मण्डल और विग्रह का उपास्य तत्त्व से ऐक्य और सातत्य का अनुभव सुगम हो जाता है । इस प्रकार भावन, जप और ध्यान के द्वारा क्रमश: बाह्य का आभ्यन्तरी करण तथा अनेक के अद्वय में पर्यवसान का मार्ग सुगम हो जाता है । स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्म से पर का अनुभव आगमिक तान्त्रिक-साधना का स्वीकृत सोपान है। इसकी अनुभूति में 'मुद्रा' भूतशुद्धि और न्यास की विधि सर्वथा स्वीकृत है । बाह्य विग्रह, यन्त्र मण्डल, चक्र तथा तत्त्व की एकता का अनुभव किया जाता है । आगम-तन्त्र दिव्य और मानुष, दिव्य और आसुर, सृष्टि और संहार, ललित और भीम, मूर्त और अमूर्त को 'प्रक्रिया' के द्वारा समझते हुए एक स्वीकार करता है। उपास्य तत्त्व और गुरु तथा साधक की पार्यन्तिक एकता को समझते हुए गुरु और 'दीक्षा' का विशेष महत्त्व माना गया है । जिस प्रकार वैदिक कर्मानुष्ठान के समान ही आगमिक कर्मानुष्ठान वैदिक-धार्मिक साधना में एक दोहरा ढाँचा प्रस्तुत करते हैं, उसी प्रकार ही जैन और बौद्ध साधना में यह दोहरी स्थिति है । आगम-तन्त्र संख्या और भाषा पर आधारित प्रतीकों का विस्तार प्रस्तुत करते हैं और योग-साधना को भी रसायन, हठ-योग और सिद्ध-परम्परा से जोड़ते हैं। वे एक विशेष प्रकार के धार्मिक, आध्यात्मिक भुवन-कोष और तीर्थ के प्रतीक को प्रस्तुत करते हैं। तान्त्रिक भाषा के क्षेत्र में भी रहस्य भाषा तथा 'समाधि भाषा' को प्रस्तुत करते हैं, जिसका व्याख्यान मुख्यत: गुरु-शिष्य परम्परा से मौखिक रूप में ही होता आया है । सभी आगम-तन्त्र परम्पराओं का यह सामान्य स्वरूप है। इस प्रकार भारतीय दर्शन एवं धर्म के विभिन्न प्रस्थानों के अपने-अपने स्वतन्त्र रूप होने के साथ-साथ उनमें एक आन्तरिक एकता उनकी साधना और योग के लक्ष्य की समानता में भी दिखाई पड़ती है। सभी धर्म अपनी साधना के द्वारा जागतिक, सखण्ड और व्यक्तिनिष्ठ अनुभव से आध्यात्मिक, अखण्ड और विराट् वैदिक एवं श्रमण योग तथा आगम-तन्त्र का अनुशीलन बहुत महत्त्वपूर्ण है । डॉ० सागरमल जैन ने 'जैन धर्म और तान्त्रिक साधना' नामक इस कृति में जैन परम्परा का गहरा विवेचन किया है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के धर्मागम विभाग तथा धर्म दर्शन विभाग ने पार्श्वनाथ विद्यापीठ एवं भारत कला भवन की सहभागिता से आगमिक तान्त्रिक दर्शन, धार्मिक साधना एवं योग, सामाजिक दृष्टि, सौन्दर्य दर्शन एवं कला पर केन्द्रित एक अखिल भारतीय संगोष्ठी का आयोजन किया था, जिसमें जैन तन्त्र को सुपरिभाषित करने के लिये पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने एक विशेष सत्र का आयोजन किया। इस सत्र में डॉ० सागरमल जैन ने जो आलेख प्रस्तुत किया था, उसको और भी व्यापक तथा समग्र रूप में इस ग्रन्थ के आकार में प्रस्तुत किया गया है। डॉ० जैन ने इस ग्रन्थ में तन्त्र साधना और जैन जीवन दृष्टि, जैन देव कुल के विकास में हिन्दू तन्त्र के अवदान जैन पूजा विधान और धार्मिक अनुष्ठान, जैन धार्मिक अनुष्ठानों में कला तत्त्व, जैन धर्म में मन्त्र-साधना, स्तोत्र पाठ, नाम, जप, यन्त्रोपासना, ध्यान, कुण्डलिनी योग और षट्चक्र भेदन आदि विषयों पर विस्तृत विचार किया है। उन्होंने जैन तान्त्रिक साधना के विधि-विधान पर विस्तार से विचार किया है और जैन धर्म के तान्त्रिक साहित्य का भी विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है । ग्रन्थ के अन्त में जैनाचार्यों द्वारा विरचित तान्त्रिक स्तोत्रों का भी संकलन किया गया है। डॉ० सागरमल जैन की यह कृति न केवल जैनधर्म में तान्त्रिक साधना के अनुप्रवेश और उस पर हिन्दू तान्त्रिक साधना के प्रभाव पर विस्तृत और युक्तियुक्त विचार प्रस्तुत करती है, अपितु जैन तान्त्रिक साधना की अपनी विशिष्टता को भी रेखांकित करती है। डॉ० जैन तत्त्व दर्शन के साथ जैन आगमिक, तान्त्रिक साधना की संगति पर सूक्ष्य विचार करते हुए यह रेखांकित किया है कि जैन तान्त्रिक साधना वामाचार से पूर्णतया मुक्त है और इस दृष्टि से जैन आध्यात्मिक अनुभव से अविरुद्ध रूप में उसका विकास हुआ है। मारण, मोहन, उच्चाटन आदि षट्कर्मों की अवस्थिति को उन्होंने सामान्य लोगों की दुःख-निवारण और अनुकूल जीवन-स्थिति की प्राप्ति की आकांक्षा से प्रेरित और हिन्दू तान्त्रिक प्रभाव से जनित माना है । जैन तान्त्रिक देवकुल के विकास में हिन्दू तान्त्रिक प्रभाव को स्वीकार करते हुए उन्होंने जैन तान्त्रिक देवकुल का न केवल साङ्गोपांग विवरण प्रस्तुत किया है, अपितु तीर्थंकरों के साथ उसके अभिसम्बन्ध का सुस्पष्ट चित्र भी प्रस्तुत किया है। उन्होंने जैन यन्त्रों का विवरण देते हुए इनके चित्र प्रस्तुत किये हैं। पूर्ववर्ती समस्त कार्य को एकत्र प्रस्तुत कर उन्होंने भावी शोध के लिये सारी सामग्री एक साथ उपलब्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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