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मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण दर्शन में जीववृत्ति (Want), क्षुधा (Appetite), इच्छा (Desire), प्रवृत्त होना और प्रतिकूल विषयों से बचना यही वासना है। जो इन्द्रियों अभिलाषा (Wish) और संकल्प (will) में अर्थ वैभिन्य एवं क्रम माना के अनुकूल होता है वही सुखद और जो प्रतिकूल होता है वही दु:खद गया है। उनके अनुसार इस समग्र क्रम में चेतना की स्पष्टता के आधार है।२६ अतः सुखद की ओर प्रवृत्ति करना और दु:खद से निवृत्ति चाहना, पर विभेद किया जा सकता है। जीववृत्ति चेतना के निम्नतम स्तर वनस्पति यही वासना की चालना के दो केन्द्र हैं, जिनमें सुखद विषय धनात्मक जगत् में पायी जाती है। पशुजगत् में जीववृत्ति के साथ-साथ क्षुधा तथा दुःखद विषय ऋणात्मक चालना के केन्द्र हैं। इस प्रकार वासना, का भी योग होता है, लेकिन चेतना के मानवीय स्तर पर आकर तो तृष्णा या कामगुण ही समस्त व्यवहार का प्रेरक तत्त्व है। भारतीय जीववृत्ति से संकल्प तक के सारे ही तत्त्व उपलब्ध होते हैं। वस्तुतः चिन्तन में व्यवहार के प्रेरक के रूप में जिस वासना को स्वीकारा गया जीववृत्ति से लेकर संकल्प तक के सारे स्तरों में वासना के मूलतत्त्व है, वही वासना पाश्चात्य फ्रायडीय मनोविज्ञान में "काम" और मेकोगल में मूलत: कोई अन्तर नहीं है, अन्तर है, केवल चेतना में उसके बोध के प्रयोजनवादी मनोविज्ञान में हार्मी (Harme) या अर्ज (Urge) अथवा का। दूसरे शब्दों में, इनमें मात्रात्मक अन्तर है, गुणात्मक अन्तर नहीं मूलप्रवृत्ति कही जाती है। पाश्चात्य और भारतीय परम्पराएँ इस सम्बन्ध है। यही कारण है भारतीय दर्शन में इस क्रम के सम्बन्ध में कोई में एकमत हैं कि प्राणीय व्यवहार का प्रेरक तत्त्व वासना, कामना या विवेचना उपलब्ध नहीं होती है। भारतीय साहित्य में वासना, कामना, तृष्णा है। इनके दो रूप बनते हैं- राग और द्वेष। राग धनात्मक इच्छा और तृष्णा आदि शब्द तो अवश्य मिलते हैं और वासना की और द्वेष ऋणात्मक है। आधुनिक मनोविज्ञान में कर्ट लेविन ने इन्हें तीव्रता की दृष्टि से इनमें अन्तर भी किया जा सकता है, फिर भी क्रमशः आकर्षण शक्ति (positive valence) और विकर्षण शक्ति सामान्य रूप से समानार्थक रूप में ही उनका प्रयोग हुआ है। भारतीय (negative valence) कहा है। दर्शन की दृष्टि से वासना को जीववृत्ति (Want) तथा क्षुधा (Appetite), कामना को इच्छा (Desire), इच्छा को अभिलाषा (Desire), और व्यवहार की चालना के दो केन्द्र-सुख और दुःख तृष्णा को संकल्प (Will) कहा जा सकता है। पाश्चात्य विचारक जहाँ अनुकूल विषय की ओर आकर्षित होना और प्रतिकूल विषयों वासना के केवल उस रूप को, जिसे हम संकल्प (Will) कहते हैं, से विकर्षित होना- यह इन्द्रिय स्वभाव है, लेकिन प्रश्न यह उठता नैतिक निर्माण का विषय बनाते हैं, वहीं भारतीय चिन्तन में वासना है कि इन्द्रियाँ क्यों अनुकूल विषयों में प्रवृत्ति और प्रतिकूल विषयों के वे रूप भी जिनमें वासना की चेतना का स्पष्ट बोध नहीं है, नैतिकता से निवृत्ति रखना चाहती हैं। यदि इसका उत्तर मनोविज्ञान के आधार की परिसीमा में आ जाते हैं।
पर देने का प्रयास किया जाए तो हमें मात्र यही कहना होगा कि अनुकूल चाहे वासना के रूप में अन्ध ऐन्द्रिक अभिवृत्ति हो या मन का विषयों की ओर प्रवृत्ति और प्रतिकूल विषयों से निवृत्ति एक नैसर्गिक विमर्शात्मक संकल्प हो, दोनों के ही मूल में वासना का तत्त्व निहित तथ्य है, जिसे हम सुख-दुःख का नियम भी कहते हैं। मनोविज्ञान है और यही वासना प्राणीय व्यवहार की मूलभूत प्रेरक है। व्यवहार प्राणी जगत् की इस नैसर्गिक वृत्ति का विश्लेषण तो करता है, लेकिन की दृष्टि से वासना (जीववृत्ति) और तृष्णा (संकल्प) में अन्तर यह यह नहीं बता सकता है कि ऐसा क्यों है? है कि पहली स्पष्ट रूप से चेतना के स्तर पर नहीं होने के कारण यही सुख-दुःख का नियम समस्त प्राणीय व्यवहार का चालक मात्र अन्धप्रवृत्ति होती है जबकि दूसरी चेतना के स्तर पर होने के तत्त्व है। जैन दार्शनिक भी प्राणीय व्यवहार के चालक तत्त्व के रूप कारण विमर्शात्मक होती है। चेतना में इच्छा के स्पष्ट बोध का अभाव में इसी सुख-दुःख के नियम को स्वीकार करते हैं। मन एवं इन्द्रियों इच्छा का अभाव नहीं है। इसीलिये जैन और बौद्ध विचारणा ने पशु के माध्यम से इसी नियम के अनुसार प्राणीय व्यवहार का संचालन आदि चेतना के निम्न स्तरों वाले प्राणियों के व्यवहार को भी नैतिकता होता है। की परिसीमा में माना है। वहां पाशविक स्तर पर पायी जाने वाली इस प्रकार हम देखते हैं कि वासना ही अपने विधेयात्मक रूप वासना की अन्ध प्रवृत्ति ही नैतिक निर्णयों का विषय बनती है। में सुख और निषेधात्मक रूप में दुःख का रूप ले लेती है। जिससे
वासना की पूर्ति हो वही सुख और जिससे वासना की पूर्ति न हो वासना क्यों होती है?
अथवा वासना-पूर्ति में बाधा उत्पन्न हो वह दु:ख है। इस प्रकार वासना गणधरवाद में कहा गया है कि जिस प्रकार देवदत्त अपने महल से ही सुख-दुःख के भाव उत्पन्न होकर प्राणीय व्यवहार का निर्धारण की खिड़कियों से बाह्य जगत् को देखता है, उसी प्रकार प्राणी इन्द्रियों करने लगते हैं। के माध्यम से बाह्य पदार्थों से अपना सम्पर्क बनाता है।४ कठोपनिषद् अपने अनुकूल विषयों की ओर आकृष्ट होना और उन्हें ग्रहण में भी कहा गया है कि इन्द्रियों को बहिर्मुख करके हिंसित कर दिया करना, यह इन्द्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। मन के अभाव में यह गया है इसलिए जीव बाह्य विषयों की ओर ही देखता है अन्तरात्मा इन्द्रियों की अन्धप्रवृत्ति होती है, लेकिन जब इन्द्रियों के साथ मन को नहीं।२५
का योग हो जाता है तो इन्द्रियों में सुखद अनुभूतियों की पुन:-पुन इन्द्रियों का विषयों से सम्पर्क होने पर कुछ विषय अनुकूल और प्राप्ति की तथा दुःखद अनुभूति से बचने की प्रवृत्ति विकसित हो कुछ विषय प्रतिकूल प्रतीत होते हैं। अनुकूल विषयों की ओर पुन:-पुनः जाती है।
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