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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
मुच्यमानेषु सत्वेषु ये ते प्रामोद्यसागराः ।
है जो अपने व्यक्तित्व को समष्टि में, समाज में विलीन कर दे । आचार्य तैरेव ननु पर्याप्तं मोक्षेणारसिकेन किम् ।। शान्तिदेव लिखते हैं -
-बोधिचर्यावतार, ८/१०५,१०८ सर्वत्यागश्च निर्वाणं निर्वाणार्थि च मे मनः । यदि एक के कष्ट उठाने से बहुतों का दुःख दूर होता हो, तो त्यक्तव्यं चेन्मया सर्वं वरं सत्वेषु दीयतां ।। करुणापूर्वक उनके दुःख दूर करना ही अच्छा है । प्राणियों को दुःखों से
-बोधिचर्यावतार, ३/११ मुक्त होता हुआ देखकर जो आनन्द प्राप्त होता है वही क्या कम है, फिर इस प्रकार यह धारणा कि मोक्ष का प्रत्यय सामाजिकता का अपने मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा की क्या आवश्यकता है ? वैयक्तिक विरोधी है, गलत है । मोक्ष वस्तुत: दुःखों से मुक्ति है और मनुष्य जीवन मुक्ति की धारणा की आलोचना करते हुए और जन-जन की मुक्ति के के अधिकांश दुःख, मानवीय संवर्गों के कारण ही हैं । अतः मुक्ति, लिए अपने संकल्प को स्पष्ट करते हुए भागवत के सप्तम स्कन्ध में ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, घृणा आदि के संवर्गों से मुक्ति पाने में है और इस प्रहलाद ने स्पष्ट रूप से कहा था कि -
रूप में वह वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टि से उपादेय भी है। प्रायेण देवमुनयः स्वविमुक्तिकामाः ।
दुःख, अहंकार एवं मानसिक क्लेशों से मुक्ति रूप में मोक्ष की उपादेयता मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः ।।
और सार्थकता को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। नेतान् विहाय कृपणाम् विमुमुक्षुरेकः ।।।
अन्त में हम कह सकते हैं कि भारतीय जीवन-दर्शन की दृष्टि हे प्रभु ! अपनी मुक्ति की कामना करने वाले देव और मुनि पूर्णतया सामाजिक और लोक मंगल के लिए प्रयत्नशील बने रहने की तो अब तक काफी हो चुके हैं जो जंगल में जाकर मौन साधना किया है। उसकी एकमात्र मंगल कामना है - करते थे किन्तु उनमें परार्थ-निष्ठा नहीं थी । मैं तो अकेला इन सब सर्वेऽत्रसुखिनः संतु । सर्वे संतु निरामयाः ।। दुःखीजनों को छोड़कर मुक्त होना भी नहीं चाहता । यह भारतीय दर्शन सर्वे भद्राणि पश्यतु । मा कश्चित् दुःखमाप्तुयात् ।।
और साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उद्गार है । इसी प्रकार बोधिसत्व भी सदैव लोक मंगल की उसकी सर्वोच्च भावना का प्रतिबिम्ब हमें ही दीन और दुःखी जनों को दुःख से मुक्त कराने के लिए प्रयत्नशील आचार्य शान्तिदेव के शिक्षा समुच्चय नामक ग्रन्थ में मिलता है । अत: बने रहने की अभिलाषा करता है और सबको मुक्त कराने के पश्चात् ही मैं उसकी हिन्दी में अनूदित निम्न पंक्तियों से अपने इस लेख का समापन मुक्त होना चाहता है।
करना चाहूँगा - मवेयमुपजीव्योऽहं यावत्सर्वे न निर्वृताः ।
इस दुःखमय नरलोक में, (बोधिचर्यावतार, ३/२१) जितने दलित, बन्धग्रसित पीड़ित विपत्ति विलीन हैं; वस्तुत: मोक्ष अकेला पाने की वस्तु ही नहीं है । इस सम्बन्ध जितने बहुधन्धी विवेक विहीन हैं । में विनोबा भाबे के उद्गार विचारणीय हैं
जो कठिन भय से और दारूण शोक से अतिदीन हैं, जो समझता है कि मोक्ष अकेले हथियाने की वस्तु है, वे मुक्त हों निजबन्ध से, स्वच्छन्द हो सब द्वन्द्व से, वह उसके हाथ से निकल जाता है । मैं के आते
छूटे दलन के फन्द से , ही मोक्ष भाग जाता है, मेरा मोक्ष यह वाक्य
हो ऐसा जग में, दुःख से विचले न कोई, ही गलत है । 'मेरा' मिटने पर ही मोक्ष मिलता है । वेदनार्थ हिले न कोई, पाप कर्म करे न कोई,
(आत्म ज्ञान और विज्ञान, पृ० ७१) असन्मार्ग धरे न कोई, इसी प्रकार वास्तविक मुक्ति अहंकार से मुक्ति ही है । 'मैं' हो सभी सुखशील, पुण्याचार धर्मव्रती, अथवा 'अहं' भाव से मुक्त होने के लिए हमें अपने आपको समष्टि, में सबका ही परम कल्याण, समाज में लीन कर देना होता है । मुक्ति वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता सबका ही परम कल्याण ।
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