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________________ ५३८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ या सैनिक को भी जो सामाजिक उत्तरदायित्वों से भाग कर भिक्षु बनना का शोषण न हो । नगरजनों का उत्तरदायित्व ग्रामीणजनों की अपेक्षा चाहते हैं, बिना पूर्व अनुमति के उपसम्पदा प्रदान नहीं की जावे। अधिक है। उन्हें न केवल अपने नगर के विकास एवं व्यवस्था का ध्यान हिन्दूधर्म भी पितृ-ऋण अर्थात् सामाजिक दायित्व को चुकाये बिना रखना चाहिये वरन् उन समग्र ग्रामवासियों के हित की भी चिन्ता करनी संन्यास की अनुमति नहीं देता है । चाहे संन्यास लेने का प्रश्न हो या चाहिये, जिनके आधार पर नगर की व्यावसायिक तथा आर्थिक स्थितियाँ गृहस्थ जीवन में ही आत्मसाधना की बात हो, सामाजिक उत्तरदायित्वों निर्भर हैं। नगर में एक योग्य नागरिक के रूप में जीना, नागरिक कर्तव्यों को पूर्ण करना आवश्यक माना गया है। एवं नियमों का पूरी तरह पालन करना ही मनुष्य का नगरधर्म है । जैन-सूत्रों में नगर की व्यवस्था आदि के लिये नगरस्थविर की सामाजिक धर्म योजना का उल्लेख है । आधुनिक युग में जो स्थान एवं कार्य नगरपालिका जैन आचार दर्शन में न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से धर्म की अथवा नगरनिगम के अध्यक्ष के हैं, जैन परम्परा में वही स्थान एवं कार्य विवेचना की गयी है, वरन् धर्म के सामाजिक पहलू पर भी पर्याप्त नगरस्थविर के हैं। प्रकाश डाला गया है । जैन विचारकों ने संघ या सामाजिक जीवन की प्रमुखता सदैव स्वीकार की है । स्थानांगसूत्र में सामाजिक जीवन के ३. राष्ट्रधर्म - जैन विचारणा के अनुसार प्रत्येक ग्राम एवं सन्दर्भ में दस धर्मों का विवेचन उपलबध है - (१) ग्रामधर्म, (२) नगर किसी राष्ट्र का अंग होता है और प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक विशिष्ट नगरधर्म, (३) राष्ट्रधर्म, (४) पाखण्डधर्म, (५) कुलधर्म, (६) गणधर्म, सांस्कृतिक चेतना होती है जो ग्रामीणों एवं नागरिकों को एक राष्ट्र के (७) संघधर्म, (८) सिद्धान्तधर्म (श्रुतधर्म), (९) चारित्रधर्म और सदस्यों के रूप में आपस में बाँधकर रखती है। राष्ट्रधर्म का तात्पर्य है (१०) अस्तिकायधर्म २९। इनमें से प्रथम सात तो पूरी तरह से सामाजिक राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना अथवा जीवन की विशिष्ट प्रणाली को सजीव जीवन से सम्बन्धित हैं। बनाये रखना । राष्ट्रीय विधि-विधान, नियमों एवं मर्यादाओं का पालन करना ही राष्ट्रधर्म है । आधुनिक सन्दर्भ में राष्ट्रधर्म का तात्पर्य है राष्ट्रीय १. ग्रामधर्म - ग्राम के विकास, व्यवस्था तथा शान्ति के एकता एवं निष्ठा को बनाये रखना तथा राष्ट्र के नागरिकों के हितों का लिये जिन नियमों को ग्रामवासियों ने मिलकर बनाया है, उनका पालन परस्पर घात न करते हुए, राष्ट्र के विकास में प्रयत्नशील रहना,राष्ट्रीय करना ग्रामधर्म है। ग्रामधर्म का अर्थ है जिस ग्राम में हम निवास करते शासन के नियमों के विरुद्ध कार्य न करना, राष्ट्रीय विधि-विधानों का हैं, उस ग्राम की व्यवस्थाओं, मर्यादाओं एवं नियमों के अनुरूप कार्य आदर करते हुए उनका समुचित रूप से पालन करना । उपासककरना । ग्राम का अर्थ व्यक्तियों के कुलों का समूह है । अत: सामूहिक दशांगसूत्र में राज्य के नियमों के विपरीत आचरण करना दोषपूर्ण माना रूप में एक-दूसरे के सहयोग के आधार पर ग्राम का विकास करना, ग्राम गया है । जैनागमों में राष्ट्रस्थविर का विवेचन भी उपलब्ध है । प्रजातन्त्र के अन्दर पूरी तरह व्यवस्था और शान्ति बनाये रखना और आपस में में जो स्थान राष्ट्रपति का है वही प्राचीन भारतीय परम्परा में राष्ट्रस्थविर वैमनस्य और क्लेश उत्पन्न न हो, उसके लिये प्रयत्नशील रहना ही का रहा होगा, यह माना जा सकता है। ग्रामधर्म के प्रमुख तत्त्व है । ग्राम में शान्ति एवं व्यवस्था नहीं है, तो वहाँ के लोगों के जीवन में भी शान्ति नहीं रहती । जिस परिवेश में हम ४. पाखण्डधर्म - जैन आचार्यों ने पाखण्ड की अपनी जीते हैं, उसमें शान्ति और व्यवस्था के लिये आवश्यक रूप से प्रयत्न व्याख्या की है । जिसके द्वारा पाप का खण्डन होता हो वह पाखण्ड करना हमारा कर्तव्य है । प्रत्येक ग्रामवासी सदैव इस बात के लिये है । दशवैकालिकनियुक्ति के अनुसार पाखण्ड एक व्रत का नाम है। जागृत रहें कि उसके किसी आचरण से ग्राम के हितों को चोट न पहुँचे। जिसका व्रत निर्मल हो, वह पाखण्डी । सामान्य नैतिक नियमों का ग्रामस्थविर ग्राम का मुखिया या नेता होता है । ग्रामस्थविर का प्रयत्न पालन करना ही पाखण्डधर्म है । सम्प्रति पाखण्ड का अर्थ ढोंग हो गया रहता है कि ग्राम की व्यवस्था, शान्ति एवं विकास के लिये ग्रामजनों है, वह अर्थ यहाँ अभिप्रेत नहीं है । पाखण्डधर्म का तात्पर्य अनुशासित, में पारस्परिक स्नेह और सहयोग बना रहे । नियमित एवं संयमित जीवन है । पाखण्डधर्म के लिये व्यवस्थापक के रूप में प्रशास्ता-स्थविर का निर्देश है। प्रशास्ता-स्थविर शब्द की दृष्टि २. नगरधर्म - ग्रामों के मध्य में स्थित एक केन्द्रीय ग्राम से विचार करने पर यह स्पष्ट लगता है कि वह जनता को धर्मोपदेश के का जो उनका व्यावसायिक केन्द्र होता है, नगर कहा जाता है। माध्यम से नियन्त्रित करने वाल अधिकारी है। प्रशास्ता-स्थविर का कार्य सामान्यतः ग्रामधर्म और नगरधर्म में विशेष अन्तर नहीं है । नगरधर्म के लोगों को धार्मिक निष्ठा, संयम एवं व्रत-पालन के लिये प्रेरित करते अन्तर्गत नगर की व्यवस्था एवं शान्ति, नागरिक-नियमों का पालन एवं रहना है। हमारे विचार में प्रशास्ता-स्थविर राजकीय धर्माधिकारी के नागरिकों के पारस्परिक हितों का संरक्षण-संवर्धन आता है । लेकिन समान होता होगा जिसका कार्य जनता को सामान्य नैतिक जीवन की नागरिकों का उत्तरदायित्व केवल नगर के हितों तक ही सीमित नहीं है। शिक्षा देना होता होगा। युगीन सन्दर्भ में नगरधर्म यह भी है कि नागरिकों के द्वारा ग्रामवासियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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