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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
अपने जीवन का लक्ष्य बनाना चाहता है, जो समाधि का इच्छुक है, समावेश होता है। अत: हमें यह मानना होता है कि इन अप्रशस्त ध्यानों उसके लिए स्त्री-शरीर की वीभत्सता और विद्रूपता ही ध्यान का आलम्बन की पात्रता तो आध्यात्मिक दृष्टि से अपूर्ण रूप से विकसित सभी प्राणियों होगी। अत: ध्यान के प्रयोजन के आधार पर ही ध्येय का निर्धारण करना में किसी न किसी रूप में रहती ही है। नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव आदि होता है। पुनः ध्यान की प्रशस्तता और अप्रशस्तता भी उसके ध्येय या सभी में आर्तध्यान और रौद्रध्यान पाये जाते हैं। किन्तु जब हम ध्यान का
आलम्बन पर आधारित होती है, अत: प्रशस्त ध्यान के साधक अप्रशस्त तात्पर्य केवल प्रशस्त ध्यान अर्थात् धर्मध्यान और शुक्लध्यान से लेते हैं विषयों को अपने ध्यान का आलम्बन या ध्येय नहीं बनाते हैं। तो हमें यह मानना होगा कि इन ध्यानों के अधिकारी सभी प्राणी नहीं हैं।
जैन दार्शनिकों की दृष्टि में प्राथमिक स्तर पर ध्यान के लिए उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में किस ध्यान का कौन अधिकारी है इसका किसी ध्येय या आलम्बन का होना आवश्यक है, क्योंकि बिना आलम्बन उल्लेख किया है।५७ इसकी विशेष चर्चा हमने ध्यान के प्रकारों के प्रसंग के चित्त की वृत्तियों को केन्द्रित करना सम्भव नहीं होता है, वे सभी में की है। साधारणतया चतुर्थ गुणस्थान अर्थात् सम्यक्दर्शन की प्राप्ति विषय और वस्तुएँ जिनमें व्यक्ति का मन रम जाता है, ध्यान का के पश्चात् ही व्यक्ति धर्मध्यान का अधिकारी बनता है। धर्मध्यान की आलम्बन बनने की योग्यता तो रखती हैं, किन्तु उनमें से किसी एक को पात्रता केवल सम्यग्दृष्टि जीवों को ही है। आर्त और रौद्र ध्यान का अपने ध्यान का आलम्बन बनाते समय व्यक्ति को यह विचार करना परित्याग करके अपने को प्रशस्त चिन्तन से जोड़ने की सम्भावना केवल होता है कि उससे वह राग की ओर जायेगा या विराग की ओर, उसके उसी व्यक्ति में हो सकती है, जिसका विवेक जाग्रत हो और जो हेय, ज्ञेय चित्त में वासना और विक्षोभ जागेंगे या समाधि सधेगी। यदि साधक का और उपादेय के भेद को समझता हो। जिस व्यक्ति में हेय-उपादेय अथवा उद्देश्य ध्यान के माध्यम से चित्त-विक्षोभों को दूर करके समाधिलाभ या हित-अहित के बोध का ही सामर्थ्य नहीं है, वह धर्मध्यान में अपने चित्त समताभाव को प्राप्त करना है तो उसे प्रशस्त विषयों को ही अपने ध्यान को केन्द्रित नहीं कर सकता। का आलम्बन बनाना होगा। प्रशस्त आलम्बन ही व्यक्ति को प्रशस्त ध्यान यह भी स्मरणीय है कि आर्त और रौद्र ध्यान पूर्व संस्कारों के की दिशा की ओर ले जाता है।
कारण व्यक्ति में सहज होते हैं, उनके लिए व्यक्ति को विशेष प्रयत्न या ध्यान के आलम्बन के प्रशस्त विषयों में परमात्मा या ईश्वर का साधना नहीं करनी होती, जबकि धर्मध्यान के लिए साधना (अभ्यास) स्थान सर्वोपरि माना गया है। जैन दार्शनिकों ने भी ध्यान के आलम्बन आवश्यक है। इसीलिए धर्मध्यान केवल सम्यग्दृष्टि को ही हो सकता है। के रूप में वीतराग परमात्मा को ध्येय के रूप में स्वीकार किया है।५३ धर्मध्यान की साधना के लिए व्यक्ति में ज्ञान के साथ-साथ वैराग्य/विरति चाहे ध्यान पदस्थ हो या पिण्डस्थ, रूपस्थ हो या रूपातीत; ध्येय तो भी आवश्यक मानी गई है और इसलिए कुछ लोगों का यह मानना है परमात्मा ही है, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जैन धर्म में कि धर्मध्यान पांचवें गुणस्थान अर्थात् देशव्रती को ही संभव है। अत: आत्मा और परमात्मा भिन्न नहीं है। आत्मा की शुद्धदशा ही परमात्मा स्पष्ट है कि जहाँ आर्त और रौद्रध्यान के स्वामी सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि है।५४ इसलिए जैन दर्शन में ध्याता और ध्येय अभिन्न हैं। साधक आत्मा दोनों प्रकार के जीव हो सकते हैं, वहाँ धर्मध्यान का अधिकारी सम्यग्दृष्टि ध्यान साधना में अपने ही शुद्ध स्वरूप को ध्येय बनाता है। आत्मा, श्रावक और विशेषरूप से देशविरत श्रावक या मुनि ही हो सकता है। आत्मा के द्वारा आत्मा का ही ध्यान करता है।५५ जिस परमात्मास्वरूप जहां तक शुक्लध्यान का प्रश्न है, वह सातवें गुणस्थान के अप्रमत्त को ध्याता ध्येय के रूप में स्वीकार करता है वह, उसका अपना ही शुद्ध जीवों से लेकर १४ वें अयोगी केवली गुणस्थान तक के सभी व्यक्तियों स्वरूप है।५६ पुन: ध्यान में जो ध्येय बनता है वह वस्तु नहीं, चित्त की में सम्भव है। इस संबंध में श्वेताम्बर-दिगम्बर के मतभेदों की चर्चा ध्यान वृत्ति होती है, ध्यान में चित्त ही ध्येय का आकार ग्रहण करके हमारे के प्रकारों के प्रसंग में आगे की गयी है। सामने उपस्थित होता है, अत: ध्याता भी चित्त है और ध्येय भी चित्त है। इस प्रकार ध्यान-साधना के अधिकारी व्यक्ति भिन्न-भिन्न ध्यानों जिसे हम ध्येय कहते हैं, वह हमारा अपना ही निज रूप है, हमारा की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न कहे गये हैं। जो व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से अपना ही प्रोजेक्शन (Projection) है। ध्यान वह कला है जिसमें जितना विकसित होता है वह ध्यान के क्षेत्र में उतना ही आगे बढ़ सकता ध्याता अपने को ही ध्येय बनाकर स्वयं उसका साक्षी बनता है। हमारी है। अत: व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास उसकी ध्यान साधना से जुड़ा वृत्तियाँ ही हमारे ध्यान का आलम्बन होती हैं और उनके माध्यम से हम हुआ है। आध्यात्मिक साधना और ध्यान-साधना में विकास का क्रम अपना ही दर्शन करते हैं।
अन्योन्याश्रित है। जैसे-जैसे व्यक्ति प्रशस्त की दिशा में अग्रसर होता है
उसका आध्यात्मिक विकास होता है और जैसे-जैसे उसका आध्यात्मिक ध्यान के अधिकारी
विकास होता है, वह प्रशस्त ध्यानों की ओर अग्रसर होता है। ध्यान को व्यापक अर्थों में ग्रहण करने पर सभी व्यक्ति ध्यान के अधिकारी माने जा सकते हैं, क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार आर्त ध्यान का साधक गृहस्थ या श्रमण? और रौद्र ध्यान तो निम्नतम प्राणियों में भी पाया जाता है। अपने व्यापक ध्यान की क्षमता त्यागी और भोगी दोनों में समान रूप से अर्थ में ध्यान में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ही प्रकार के ध्यानों का होती है, किन्तु अक्सर भोगी जिस विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित करता
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