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डॉ० सागरमल जैन व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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परिवार और अपने लोगों के निकट रहने का सुख, तो दूसरी ओर घर-परिवार से दूर एक चरमराती हुई जैन विद्या संस्था को सम्भालने का प्रश्न उस समय पार्श्वनाथ विद्याश्रम की प्रतिष्ठा तो थी, किन्तु उसको आर्थिक स्थिति डाँवाडोल थी। अतः कोई भी वहाँ रहना नहीं चाहता था। फिर भी एक जैन विद्या संस्थान के उद्धार का निश्चय लेकर आपने तत्कालीन संचालन समिति के अध्यक्ष श्री शादीलालजी जैन एवं कोषाध्यक्ष गुलाबचन्दजी जैन को आश्वासन दिया कि यदि आप लोग मेरी प्रतिनियुक्ति का आदेश म. प्र. शासन से निकलवा सकें और संस्थान की अर्थ व्यवस्था के सुधार हेतु प्रयत्न करें तो मैं विद्याश्रम आ जाऊंगा । तत्कालीन बंगाल के उपमुख्य मंत्री विजयसिंह नाहर के प्रयत्नों से आपकी प्रतिनियुक्ति के आदेश निकले और आपने १९७९ में पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान में निदेशक का कार्यभार ग्रहण कर लिया।
विद्यानगरी काशी में
आपके काशी आगमन से संस्थान को एक नव जीवन मिला और आपने अपने श्रम से विद्याश्रम को एक नये कीर्तिमान पर लाकर खड़ा कर दिया ।
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पार्श्वनाथ विद्याश्रम में आपके आगमन ने जहाँ एक ओर विद्याश्रम की प्रगति को नवीन गति दी, वहीं दूसरी ओर आपको अपने अध्ययन के क्षेत्र में भी नवीन दिशायें मिली। विद्याश्रम को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय संस्कृति और इतिहास विभाग, कला इतिहास विभाग, हिन्दी विभाग, दर्शन विभाग, संस्कृत और पालि विभाग आदि में शोध छात्रों के पंजीयन की सुविधा मिली हुई है, अतः आपको इन विविध विषयों के शोध छात्र उपलब्ध हुए शोध छात्रों के मार्ग दर्शन हेतु यह आवश्यक था कि निर्देशक स्वयं भी उन विषयों से परिचित हो, अतः आपने जैनधर्म-दर्शन के अलावा जैन कला, पुरातत्त्व और इतिहास का भी अध्ययन किया। प्रामाणिक शोधकार्य के लिए द्वितीय श्रेणी के ग्रन्थों से काम नहीं चलता है, मूल ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक होता है। आपने शोध छात्रों एवं जिज्ञासु विदेशी छात्रों के हेतु मूल ग्रन्थों के अध्ययन की आवश्यकता का अनुभव किया। अतः आपने परम्परागत शैली से और आधुनिक शैली से स्वयं ही मूल ग्रन्थों का अध्ययन किया और करवाया । मूल ग्रन्थों में आगमों के साथ-साथ विशेषावश्यकभाष्य, सन्मतितर्क, आप्तमीमांसा, जैन तर्कभाषा, प्रमाणमीमांसा न्यायावतार (सिद्धर्षि की टीका सहित) सप्तभंगीतरंगिणी आदि जटिल दार्शनिक ग्रन्थों का भी सहज और सरल शैली में अध्यापन किया। आपके सान्निध्य में ज्योतिषाचार्य जयप्रभविजयजी मुनि हितेशविजयजी मुनिश्री ललितप्रभसागरजी, मुनिश्री चन्द्रप्रभसागरजी, श्री अशोकमुनिजी, साध्वी श्री सुदर्शनाश्री जी साध्वी प्रियदर्शनाश्री जी, साध्वीश्री सुमतिबाई स्वामी और उनकी शिष्यायें, साध्वीश्री प्राणकुंवरबाई स्वामी एवं उनकी शिष्याएँ, साध्वीश्री प्रमोदकुंवरजी, साध्वीश्री पुष्पकुंवर जी और उनकी शिष्यायें साध्वीश्री शिलापीजी, मुमुक्षु बहन मंगलम् आदि अनेक साधु-साध्वियों एवं वैरागी भाई बहनों ने आगमों के साथ-साथ इन दार्शनिक ग्रन्थों का अध्ययन किया। विविध साधु-साध्वियों के अध्यापन के साथ-साथ आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भी जाकर जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी प्रश्नपत्रों का अध्यापन कार्य करते रहे हैं। अनेक विदेशी छात्र भी अध्ययन एवं अपने शोध कार्यों में सहयोग हेतु आपके पास आते रहते हैं। एक पोलिश प्राध्यापक ने आपके साथ तत्त्वार्थ भाष्य का अध्ययन किया ।
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विद्याश्रम में आपको भ्रमण के संपादन एवं प्रूफ रीडिंग के साथ-साथ अपने शोध छात्रों द्वारा लिखे निबन्धों तथा विविध शीर्षस्थ विद्वानों के ग्रन्थों के संपादान, प्रकाशन और प्रूफरीडिंग का कार्य करना पड़ा इसका सबसे बड़ा लाभ आपको यह हुआ कि जैनधर्म, दर्शन साहित्य, कला, इतिहास आदि की विविध विधाओं में आपकी गहरी पैठ हो गयी ।
प्रतिष्ठा और पुरस्कार
हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल में कार्य करते समय भी आपको राष्ट्रीय स्तर की अनेक संगोष्ठियों और कान्फ्रेसों में जाने का अवसर मिला । जहाँ आपने अपने विद्वत्तापूर्ण आलेखों एवं सौजन्यपूर्ण व्यवहार से दर्शन एवं जैन विद्या के शीर्षस्थ विद्वानों में अपना स्थान बना लिया। जब आप भोपाल में थे, तभी प्रो. बारलिंगे के विशेष आग्रह पर आपको न केवल दर्शन परिषद के कोषाध्यक्ष का भार सम्भालना पड़ा, अपितु दार्शनिक त्रैमासिक के प्रबन्ध संपादक का दायित्व भी ग्रहण करना पड़ा
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