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वह अन्य सभी द्रव्यों के पर्याय परिवर्तन में निमित्त का कारण बनकर कार्य करता है। पुनः यदि काल द्रव्य में ध्रौव्यत्व का अभाव मानेंगे तो उसका द्रव्यत्व समाप्त हो जायेगा। अतः उसे स्वतन्त्र द्रव्य मानने पर उसमें उत्पाद व्यय के साथ-साथ धौव्यत्व भी मानना होगा।
कालचक्र
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
सन्दर्भ
1. See J. C. Sikdar, Concept of Matter in Jaina Philosophy. P.V. Research Institute, Varanasi-5
अर्धमागधी आगम साहित्य में काल की चर्चा उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल के रूप में भी उपलब्ध होती है। इनमें प्रत्येक के छह-छह विभाग किये जाते हैं, जिन्हें आरे कहा जाता है। ये छह आरे निम्न हैं- १. सुषमा सुषमा, २. सुषमा, ३. सुषमा-दुषमा, ४. दुषमा सुषमा, ५. दुषमा और ६. दुषमा दुषमा उत्सर्पिणी काल में इनका क्रम विपरीत होता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल मिलकर एक कालचक्र पूरा होता है। जैनों की कालचक्र की यह कल्पना बौद्ध और हिन्दू कालचक्र की कल्पना से भिन्न है। किन्तु इन सभी में इस बात को लेकर समानता है कि इन सभी में कालचक्र के विभाजन का आधार सुख-दुःख एवं मनुष्य के नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की
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उद्धृत Jain Conceptions of Space and Time by Nagin J. Shah, p. 374, Ref. No. 6, Studies in Jainism, Deptt. of Philosophy, University of Poona, 1994.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग-२, पृ० ८४,८७,
Studies in Jainism, Ed. M. P. Marathe, P. 69.
महावीरकालीन विभिन्न आत्मवाद एवं जैन आत्मवाद का वैशिष्ट्य
धर्म और नैतिकता आत्मा सम्बन्धी दार्शनिक मान्यताओं पर अधिष्ठित रहते हैं। किसी भी धर्म एवं उसकी नैतिक विचारणा को उसके आत्मा सम्बन्धी सिद्धान्त के अभाव में समुचित रूप से नहीं समझा जा सकता। महावीर के धर्म एवं नैतिक सिद्धान्तों के औचित्य स्थापन के पूर्व उनके आत्मवाद का औचित्य स्थापन आवश्यक है। साथ ही महावीर के आत्मवाद को समझने के लिये उनके समकालीन विभिन्न आत्मवादों का समालोचनात्मक अध्ययन भी आवश्यक है।
औपनिषदिक साहित्य है, जिसमें आत्मवाद सम्बन्धी विभिन्न परिकल्पनायें, किसी एक आत्मवादी सिद्धान्त के विकास के निमित्त संकलित की जा रही थीं। उपनिषदों का आत्मवाद विभिन्न श्रमण परम्पराओं के आत्मवादी सिद्धान्तों से स्पष्ट रूप से प्रभावित है। उपनिषदों में आत्मासम्बन्धी परस्पर विपरीत धारणायें जिस बीज रूप में विद्यमान हैं वे इस तथ्य की पुष्टि में सबल प्रमाण हैं। हाँ, इन विभिन्न आत्मवादों को ब्रह्म की धारणा में संयोजित करने का प्रयास उनका अपना मौलिक है।
लेकिन यह मान लेना कि महावीर अथवा बुद्ध के समकालीन विचारकों में आत्मासम्बन्धी दार्शनिक सिद्धान्त थे ही नहीं, यह एक भ्रान्त धारणा है।
यद्यपि भारतीय आत्मवादों के सम्बन्ध में वर्तमान युग में श्री ए.सी. मुकर्जी ने अपनी पुस्तक "The Nature of Self" एवं श्री एस.के. सक्सेना ने अपनी पुस्तक "Nature of Consciousness in Hindu Philosophy" में विचार किया है लेकिन उन्होंने महावीर के समकालीन आत्मवादों पर समुचित रूप से कोई विचार नहीं किया है। श्री धर्मानन्द कौशाम्बीजी द्वारा अपनी पुस्तक "भगवान बुद्ध" में यद्यपि इस प्रकार का एक लघु प्रयास अवश्य है फिर भी इस सम्बन्ध में एक व्यवस्थित अध्ययन आवश्यक है।
पाश्चात्य एवं कुछ आधुनिक भारतीय विचारकों की यह मान्यता है कि महावीर एवं बुद्ध के समकालीन विचारकों में आत्मवादसम्बन्धी कोई निश्चित दर्शन नहीं था। तत्कालीन सभी ब्राह्मण और श्रमण मतवाद केवल नैतिक-विचारणाओं एवं कर्मकाण्डीय व्यवस्थाओं को प्रस्तुत करते थे। सम्भवतः इस धारणा का आधार तत्कालीन
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क्षमता को बनाया है।
जैनों के अनुसार उत्सर्पिणी काल में क्रमश: विकास और अवसर्पिणी काल में क्रमशः पतन होता है। ज्ञातव्य है कि कालचक्र का प्रवर्तन जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र आदि कुछ विभागों में ही होता है ।
इस प्रकार पाँच अस्तिकाय द्रव्यों एवं एक अनास्तिकाय द्रव्य का विवेचन करने के पश्चात् आत्मा एवं पुल द्रव्य तथा उनके पारस्परिक सम्बन्ध को समझना आवश्यक है।
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४.
मेरी यह स्पष्ट धारणा है कि महावीर के समकालीन विभिन्न विचारकों की आत्मवाद सम्बन्धी विभिन्न धारणायें विद्यमान थीं। कोई उसे सूक्ष्म कहता था, तो कोई उसे विभु किसी के अनुसार आत्मा नित्य थी, तो कोई उसे क्षणिक मानता था। कुछ विचारक उसे (आत्मा को) कर्ता मानते थे, तो कुछ उसे निष्क्रिय एवं कूटस्थ मानते थे । इन्हीं विभिन्न आत्मवादों की अपूर्णता एवं नैतिक व्यवस्था को प्रस्तुत करने की अक्षमताओं के कारण ही तीन नये विचार सामने आये एक ओर था उपनिषदों का सर्व आत्मवाद या ब्रह्मवाद, दूसरी ओर या बुद्ध का अनात्मवाद और तीसरी विचारणा थी जैन आत्मवाद की, जिसने इन विभिन्न आत्मवादों को एक जगह समन्वित करने का प्रयास किया।
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