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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
लिए उत्तरदायी बने रहते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन अभेद में भेद, विवेक-क्षमता के आधार पर आत्मा के भेद एकत्व में अनेकत्व की धारणा को स्थान देकर धर्म और नैतिकता के विवेक-क्षमता की दृष्टि से आत्माएँ दो प्रकार की मानी गई लिए एक ठोस आधार प्रस्तुत करता है।
हैं- (१) समनस्क, (२) अमनस्क। समनस्क आत्माएँ वे हैं, जिन्हें जैन दर्शन जिन्हें जीव की पर्याय अवस्थाओं की धारा कहता विवेक-क्षमता से युक्त मन उपलब्ध है और अमनस्क आत्माएँ वे हैं, है, बौद्ध दर्शन उसे चित्त-प्रवाह कहता है। जिस प्रकार जैन दर्शन में जिन्हें ऐसी विवेक-क्षमता से युक्त मन उपलब्ध नहीं है। जहाँ तक प्रत्येक जीव अलग है, उसी प्रकार बौद्ध दर्शन में प्रत्येक चित्त-प्रवाह नैतिक जीवन के क्षेत्र का प्रश्न है, समनस्क आत्माएँ ही नैतिक अलग है। जैसे बौद्ध दर्शन के विज्ञानवाद में आलयविज्ञान है वैसे जैन आचरण कर सकती हैं और वे ही नैतिक साध्य की उपलब्धि कर दर्शन में आत्म-द्रव्य है, यद्यपि हमें इन सबमें रहे हुए तात्त्विक अन्तर सकती हैं, क्योंकि विवेक-क्षमता से युक्त मन की उपलब्धि होने पर ही को विस्मृत नहीं करना चाहिए।
आत्मा में शुभाशुभ का विवेक करने की क्षमता होती है, साथ ही इसी
विवेक-बुद्धि के आधार पर वे वासनाओं का संयमन भी कर सकती हैं। आत्मा के भेद
जिन आत्माओं में ऐसी विवेक-क्षमता का अभाव है, उनमें संयम की जैन दर्शन अनेक आत्माओं की सत्ता को स्वीकार करता है। क्षमता का भी अभाव होता है, इसलिए वे नैतिक प्रगति भी नहीं कर इतना ही नहीं, वह प्रत्येक आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं के आधार पर सकतीं। नैतिक जीवन के लिए आत्मा में विवेक और संयम दोनों का उसके भेद करता है। जैन आगमों में विभिन्न पक्षों की अपेक्षा से आत्मा । होना आवश्यक है और वह केवल पंचेन्द्रिय जीवों में भी उन्हीं में के आठ भेद किये गये हैं३२
सम्भव है जो समनस्क हैं। यहाँ जैविक आधार पर भी आत्मा के १. द्रव्यात्मा-आत्मा का तात्त्विक स्वरूप।
वर्गीकरण पर विचार अपेक्षित है, क्योंकि जैन धर्म का अहिंसा२. कषायात्मा-क्रोध, मान, माया आदि कषायों या मनोवेगों से युक्त
सिद्धान्त बहुत कुछ उसी पर निर्भर है। चेतना की अवस्था।
जैविक आधार पर प्राणियों का वर्गीकरण ३. योगात्मा-शरीर से युक्त होने पर चेतना की कायिक, वाचिक और
जैन दर्शन के अनसार जैविक आधार पर प्राणियों का वर्गीकरण मानसिक क्रियाओं की अवस्था।
निम्न तालिका से स्पष्ट हो सकता है४. उपयोगात्मा-आत्मा की ज्ञानात्मक और अनुभूत्यात्मक शक्तियाँ।
यह आत्मा का चेतनात्मक व्यापार है। ५. ज्ञानात्मा-चेतना की चिन्तन की शक्ति। ६. दर्शनात्मा-चेतना की अनुभूत्यात्मकशक्ति ।
स्थावर
त्रस ७. चरित्रात्मा-चेतना की संकल्पात्मक शक्ति।
पृथ्वीकाय अप्काय तेजस्काय वायु वनस्पतिकाय ८. वीर्यात्मा-चेतना की क्रियात्मक शक्ति।
उपर्युक्त आठ प्रकारों में द्रव्यात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा और दर्शनात्मा ये चार तात्त्विक आत्मा के स्वरूप के ही द्योतक हैं, शेष .
पंचेन्द्रिय चतुरिन्द्रिय त्रीन्द्रिय द्वीन्द्रिय चार कषायात्मा, योगात्मा, चरित्रात्मा और वीर्यात्मा ये चारों आत्मा के अनुभवाधारित स्वरूप के निदर्शक हैं। तात्त्विक आत्मा द्रव्य की अपेक्षा से नित्य होती है यद्यपि उसमें ज्ञानादि की पर्यायें होती रहती हैं। जैविक दृष्टि से जैन परम्परा में दस प्राण शक्तियाँ मानी गयी अनुभवाधारित आत्मा चेतना की शरीर से युक्त अवस्था है। यह परिवर्तनशील हैं। स्थावर एकेन्द्रिय जीवों में चार शक्तियाँ होती हैं- (१) स्पर्श-अनुभव एवं विकारयुक्त होती है। आत्मा के बन्धन का प्रश्न भी इसी अनुभवाधारित शक्ति, (२) शारीरिक शक्ति, (३) जीवन (आयु) शक्ति और (४) आत्मा से सम्बन्धित है। विभिन्न दर्शनों में आत्मा-सिद्धान्त के सन्दर्भ में श्वसन शक्ति। द्वीन्द्रिय जीवों में इन चार शक्तियों के अतिरिक्त स्वाद जो परस्परिक विरोध दिखाई देता है, वह आत्मा के इन दो पक्षों में और वाणी की शक्ति भी होती है। त्रीन्द्रिय जीवों में सूंघने की शक्ति भी किसी पक्ष-विशेष पर बल देने के कारण होता है। भारतीय परम्परा में होती है। चतुरिन्द्रिय जीवों में इन छह शक्तियों के अतिरिक्त देखने की बौद्ध दर्शन ने आत्मा के अनुभवाधारित परिवर्तनशील पक्ष पर अधिक सामर्थ्य भी होती है। पंचेन्द्रिय अमनस्क जीवों में इन आठ शक्तियों के बल दिया, जबकि सांख्य और शांकर वेदान्त ने आत्मा के तात्त्विक साथ-साथ श्रवण शक्ति भी होती है और समनस्क पंचेन्द्रिय जीवों में स्वरूप पर ही अपनी दृष्टि केन्द्रित की। जैन दर्शन दोनों ही पक्षों को इनके अतिरिक्त मनःशक्ति भी होती है। इस प्रकार जैन दर्शन में कुल स्वीकार कर उनके बीच समन्वय का कार्य करता है।
दस जैविक शक्तियाँ या प्राण शक्तियाँ मानी गयी हैं। हिंसा-अहिंसा के
जीव
| पृथ्वीकाय अपका।
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