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धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म ।
३६३ धार्मिक संघर्ष का नियंत्रक तत्त्व-प्रज्ञा
से नहीं बचा सकेंगे। श्रद्धा भावना प्रधान है, भावनाओं को उभाड़ना धर्म के क्षेत्र में अनुदारता और असहिष्णुता के कारणों में एक सहज होता है। अत: धर्म के नाम पर अपने निहित स्वार्थों की सिद्धि कारण यह भी है कि हम धार्मिक जीवन में बुद्धि या विवेक के तत्त्वों में लगे हुए कुछ लोग अपने उन स्वार्थों की पूर्ति के लिए सामान्य को नकार कर श्रद्धा को ही एकमात्र आधार मान लेते हैं। यह ठीक जनमानस की भावनाओं को उभाड़कर उसे उन्मादी बना देते हैं तथा है कि धर्म श्रद्धा पर टिका हुआ है। धार्मिक जीवन के आधार हमारे शास्त्र में से कोई एक वचन प्रस्तुत कर उसे इस प्रकार व्याख्यायित विश्वास और आस्थाएँ हैं, लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि यदि करते हैं कि जिससे लोगों की भावनाएँ या धर्मोन्माद उभड़े और उन्हें हमारे ये विश्वास और आस्थाएँ विवेक-बुद्धि को नकार कर चलेंगे तो अपने निहित स्वार्थों की सिद्धि का अवसर मिले। वे यह भी कहते वे अंधविश्वासों में परिणित हो जायेंगे और ये अंधविश्वास ही धार्मिक हैं कि शास्त्र में एक शब्द का भी परिवर्तन करना या शास्त्र की अवहेलना संघर्षों के मूल कारण हैं। धार्मिक जीवन में विवेक-बुद्धि या प्रज्ञा को करना बहुत बड़ा पाप है। मात्र यही नहीं, वे जनसामान्य को शास्त्र श्रद्धा का प्रहरी बनाया जाना चाहिए, अन्यथा हम अंध-श्रद्धा से कभी के अध्ययन का अनधिकारी मानकर अपने को ही शास्त्र का एकमात्र भी मुक्त नहीं हो सकेंगे। आज का युग विज्ञान और तर्क का युग सच्चा व्याख्याता सिद्ध करते हैं और शास्त्र के नाम पर जनता को है, फिर भी हमारा अधिकांश जनसमाज, जो अशिक्षित है, वह श्रद्धा मूर्ख बनाकर अपना हित साधन करते रहते हैं। धर्म के नाम पर युगों-युगों के बल पर जीता है। हमें यह स्मरण रखना होगा कि श्रद्धा यदि विवेक से जनता का इसी प्रकार शोषण होता रहा है। अत: यह आवश्यक प्रधान नहीं होती तो वह सर्वाधिक घातक होती। इसीलिए जैन आचार्यों है कि शास्त्र की सारी बातों और उनकी व्याख्याओं को विवेक की ने अपने मोक्षमार्ग की विवेचना में सम्यग्दर्शन के साथ-साथ सम्यग्ज्ञान. तराजू पर तौला जाये। उनके सारे नियमों और मर्यादाओं का युगीन को भी आवश्यक माना है। जैन परम्परा में भी जब आचार के बाह्य सन्दर्भ में मूल्यांकन और समीक्षा की जाये। जब तक यह सब नहीं विधि-निषेधों को लेकर पार्श्वनाथ और महावीर की संघ-व्यवस्था में होता है, तब तक धार्मिक जीवन में आयी हुई संकीर्णता को मिटा जो मतभेद थे, उन्हें सुलझाने का प्रयत्न किया गया, तब उसके लिए पाना संभव नहीं है। विवेक ही एक ऐसा तत्त्व है जो हमारी दृष्टि श्रद्धा के स्थान पर प्रज्ञा अर्थात् विवेक-बुद्धि को ही प्रधानता दी गयी। को उदार और व्यापक बना सकता है। श्रद्धा आवश्यक है किन्तु उसे उत्तराध्ययनसूत्र के तेईसवें अध्ययन में पार्श्वनाथ की परम्परा के तत्कालीन विवेक का अनुगामी होना चाहिए। विवेकयुक्त श्रद्धा ही सम्यक् श्रद्धा पमुख आचार्य केशी महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम से यह है। वही हमें सत्य का दर्शन करा सकती है। विवेक से रहित श्रद्धा प्रश्न करते हैं कि एक ही लक्ष्य की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील पार्श्वनाथ अंध-श्रद्धा होगी और हम उसके आधार पर अनेक अंधविश्वासों के शिकार
और महावीर के आचार-नियमों में यह अन्तर क्यों है? इससे समाज बनेंगे। आज धार्मिक उदारता और सहिष्णुता के लिए श्रद्धा को विवेक में मतिभ्रम उत्पन्न होता है कि
से समन्वित किया जाना चाहिए। इसलिए जैनाचार्यों ने कहा था कि पन्ना समिक्खए धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छय।२०
सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) में एक सामंजस्य होना चाहिए। __ अर्थात् धार्मिक आचार के नियमों की समीक्षा और मूल्यांकन प्रज्ञा के द्वारा करना चाहिए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि धार्मिक जैन धर्म में धार्मिक सहिष्णुता का आधार-अनेकान्तवाद जीवन में अकेली श्रद्धा ही आधारभूत नहीं मानी जानी चाहिए, उसके जैन आचार्यों की मान्यता है कि परमार्थ, सत् या वस्तुतत्त्व अनेक साथ-साथ तर्क-बुद्धि, प्रज्ञा एवं विवेक को भी स्थान मिलना चाहिए। विशेषताओं और गुणों का पुंज है। उनका कहना है कि 'वस्तुतत्त्व भगवान् बुद्ध ने आलारकलाम को कहा था कि तुम किसी के वचनों अनन्तधर्मात्मक' है। २२ उसे अनेक दृष्टियों से जाना जा सकता है और को केवल इसलिए स्वीकार मत करो कि इनका कहने वाला श्रमण कहा जा सकता है। अत: उसके सम्बन्ध में कोई भी निर्णय निरपेक्ष हमारा पूज्य है। हे कलामों! जब तुम आत्मानुभव से अपने आप ही और पूर्ण नहीं हो सकता है। वस्तुतत्त्व के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान और यह जान लो कि ये बातें कुशल हैं, ये बातें निर्दोष हैं, इनके अनुसार कथन दोनों ही सापेक्ष है अर्थात् वे किसी सन्दर्भ या दृष्टिकोण के चलने से हित होता है, सुख होता है, तभी उन्हें स्वीकार करो। एक आधार पर ही सत्य हैं। आंशिक एवं सापेक्ष ज्ञान/कथन को या अपने अन्य बौद्ध ग्रन्थ तत्त्वसंग्रह में भी कहा गया है
से विरोधी ज्ञान/कथन को असत्य कहकर नकारने का अधिकार नहीं तापाच्छेदाच्च निकषात् सुवर्णमिव पण्डितैः।
है। इसे हम निम्न उदाहरण से स्पष्टतया समझ सकते हैं- कल्पना परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात्।।२१
कीजिए कि अनेक व्यक्ति अपने-अपने कैमरों से विभिन्न कोणों से एक जिस प्रकार स्वर्ण को काटकर, छेदकर, कसकर और तपाकर वृक्ष का चित्र लेते हैं। ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम तो हम यह देखेंगे परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार से धर्म की भी परीक्षा की जानी चाहिए। कि एक ही वृक्ष के विभिन्न कोणों से, विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा उसे केवल शास्ता के प्रति आदरभाव के कारण स्वीकार नहीं करना हजारों-हजार चित्र लिये जा सकते हैं। साथ ही इन हजारों-हजार चित्रों चाहिये। धार्मिक जीवन में जब तक विवेक या प्रज्ञा को विश्वास और के बावजूद भी वृक्ष का बहुत कुछ भाग ऐसा है जो कैमरों की पकड़ आस्था का नियंत्रक नहीं माना जायेगा, तब तक हम मानव जाति को से अछूता रह गया है। पुन: जो हजारों-हजार चित्र भिन्न-भिन्न कोणों धार्मिक संघर्षों और धर्म के नाम पर खेली जाने वाली खून की होली से लिए गये हैं, वे एक-दूसरे से भिन्नता रखते हैं। यद्यपि वे सभी
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