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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
अविद्या का जो स्वरूप बताया गया है वह आलोचना का विषय ही रहा प्रति आसक्ति एवं मिथ्या दृष्टिकोण है और माया एक ऐसी शक्ति है है। विज्ञानवादी और शन्यवादी विचारक अपने निरपेक्ष दृष्टिकोण के जिससे यह अनेकतामय जगत अस्तित्ववान प्रतीत होता है। माया इस आधार पर इन्द्रियानुभूति के विषयों को अविद्या या वासना का काल्पनिक नानारूपात्मक जगत् का आधार है और अविद्या हमें उससे बाँधे हुए प्रत्यय मानते हैं। दूसरे, उनके अनुसार अविद्या आत्मनिष्ठ (Subjec- रखती है। वेदान्तिक दर्शन में माया अद्वय अविकार्य परमसत्ता की tive) है। जैन दार्शनिकों ने उनकी इस मान्यता को अनुचित ही माना है नानारूपात्मक जगत् के रूप में प्रतीति हैं। वेदान्त में माया न तो सत् है क्योंकि प्रथमत: अनुभव के विषयों को अनादि अविद्या के काल्पनिक और असत् है उसे चतुष्कोटिविनिर्मुक्त कहा गया है।२७ वह सत् इसलिए प्रत्यय मानकर इन्द्रियानुभूति के ज्ञान को असत्य बताया गया है। जैन नहीं है कि उसका निरसन किया जा सकता है। वह असत् इसलिए नहीं दार्शनिकों की दृष्टि में इन्द्रियानुभूति के विषयों को असत् नहीं माना जा है कि उसके आधार पर व्यवहार होता है। वेदान्तिक दर्शन में माया जगत् सकता, वे तर्क और अनुभव दोनों को ही यथार्थ मानकर चलते हैं। की व्याख्या और उसकी उत्पत्ति का सिद्धान्त है, जबकि अविद्या वैयक्तिक उनके अनुसार तार्किक ज्ञान (बौद्धिक ज्ञान) और अनुभूत्यात्मक ज्ञान- आसक्ति है। दोनों ही यथार्थता का बोध करा सकते हैं। बौद्ध-दार्शनिकों की यह धारणा कि 'अविद्या केवल आत्मगत है' जैन दार्शनिकों को स्वीकार नहीं समीक्षा है। वे अविद्या का वस्तुगत आधार भी मानते हैं। उनकी दृष्टि में बौद्ध वेदान्त-दर्शन में माया एक अर्ध सत्य है जबकि तार्किक दृष्टिकोण एकांगी ही सिद्ध होता है। बौद्ध दर्शन के अविद्या की विस्तृत दृष्टि से माया या तो सत्य हो सकती है या असत्य। जैन-दार्शनिकों समीक्षा आदरणीय श्री नथमल टाटिया ने अपनी पुस्तक 'स्टडीज इन के अनुसार सत्य सापेक्षिक अवश्य हो सकता है लेकिन अर्ध सत्य जैन फिलॉसफी' में की है।२३ हमें विस्तार भय से और अधिक गहराई में (Half Truth) ऐसी कोई अवस्था नहीं हो सकती है। यदि अद्वय उतरना आवश्यक नहीं लगता है।
परमार्थ को नानारूपात्मक मानना यह अविद्या है तो जैन दार्शनिकों गीता में अविद्या, अज्ञान और माया शब्द का प्रयोग हमें को यह दृष्टिकोण स्वीकार नहीं है। यद्यपि जैन, बौद्ध और वैदिक मिलता है। गीता में अज्ञान और माया सामान्यतया दो भिन्न-भिन्न अर्थों परम्पराएँ अविद्या की इस व्याख्या में एकमत हैं कि अविद्या या मोह में ही प्रयुक्त हुए हैं। अज्ञान वैयक्तिक है जबकि माया एक ईश्वरीय शक्ति का अर्थ अनात्म में आत्मबुद्धि है। है। गीता में अज्ञान का अर्थ परमात्मा के उस वास्तविक स्वरूप के ज्ञान का अभाव है जिस रूप में वह जगत् में व्याप्त होते हुए भी उससे परे उपसंहार है। गीता में अज्ञान विपरीत ज्ञान, मोह, अनेकता को यथार्थ मान लेना अज्ञान, अविद्या या मोह की उपस्थिति ही हमारी सम्यक आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। ज्ञान के सात्त्विक, राजस और प्रगति का सबसे बड़ा अवरोध है। हमारे क्षुद्र व्यक्तित्व और परमात्मतत्व तामस प्रकारों का विवेचन करते हुए गीता में यह स्पष्ट बताया गया है के बीच सबसे बड़ी बाधा है। उसके हटते ही हम अपने को अपने में ही कि अनेकता को यथार्थ मानने वाला दृष्टिकोण या ज्ञान राजस है। इसी उपस्थित कर परमात्मा के निकट खड़ा पाते हैं। फिर भी प्रश्न है कि इस प्रकार यह मानना कि परम तत्त्व मात्र इतना ही है, यह ज्ञान तामस है।२४ अविद्या या मिथ्यात्व से मुक्ति कैसे हो? वस्तुत: अविद्या से मुक्ति के यद्यपि गीता में माया को व्यक्ति के दुःख एवं बन्धन का कारण माना गया लिए यह आवश्यक नहीं कि हम अविद्या या अज्ञान को हटाने का प्रयत्न है। क्योंकि यह एक भ्रान्त आंशिक चेतना का पोषण करती है और उस करें क्योंकि उसके हटाने के सारे प्रयास वैसे ही निरर्थक होंगे जैसे कोई रूप में पूर्ण यथार्थता का ग्रहण सम्भव नहीं होता। फिर भी हमें यह अन्धकार को हटाने के प्रयत्न करे। जैसे प्रकाश के होते ही अन्धकार स्मरण रखना चाहिए कि गीता में माया ईश्वर की ऐसी कार्यकारी शक्ति स्वयं ही समाप्त हो जाता है उसकी प्रकार ज्ञान रूप प्रकाश या सम्यक् भी है जिसके माध्यम से परमात्मा इस नानारूपात्मक जगत् में अपने को दृष्टि के उत्पन्न होते ही अज्ञान या अविद्या का अन्धकार समाप्त हो जाता अभिव्यक्त करता है। वैयक्तिक दृष्टि से माया परमार्थ का आवरण कर हैं। आवश्यकता इस बात की नहीं है कि हम अविद्या या मिथ्यात्व को व्यक्ति को उसके यथार्थ ज्ञान से वंचित करती है, जबकि परमसत्ता की हटाने का प्रयत्न करें वरन् आवश्यकता इस बात की है कि हम अपेक्षा से वह उसकी एक शक्ति ही सिद्ध होती है।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की ज्योति को प्रज्वलित करें ताकि अविद्या वेदान्त दर्शन में अविद्या का अर्थ अद्वय परमार्थ में अनेकता या अज्ञान का तमिस्र समाप्त हो जाये। की कल्पना है। बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है कि जो अद्वय में अनेकता का दर्शन करता है वह मृत्यु को प्राप्त होता है।२५ इसके सम्यक्त्व विपरीत अनेकता में एकता का दर्शन यह सच्चा ज्ञान है। ईशावास्योपनिषद्
जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन, सम्यक्त्व या सम्यग्दृष्टित्व शब्दों में कहा गया है कि जो सभी को परमात्मा में और परमात्मा में सभी को का प्रयोग समानार्थक रूप में हुआ है। यद्यपि आचार्य जिनभद्र ने स्थित देखता है, उस एकत्वदर्शी को न विजुगुप्सा होती है और न उसे विशेषावश्यकभाष्य में सम्यक्त्व और सम्यग्दर्शन के भिन्न-भिन्न अर्थों का कोई मोह या शोक होता है।२६ वेदान्तिक परम्परा में अविद्या जगत् के निर्देश किया है।२८ अपने भिन्न अर्थ में सम्यक्त्व वह है जिसकी
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