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साधना द्वारा पूर्वबद्ध अनियत विपाकी कर्मों को समय से पूर्व उनके विपाक को प्रदेशोदय के माध्यम से निर्जरित करना।
यह सत्य है कि पूर्ववद्ध कर्मों के विपाकोदय की स्थिति में क्रोधादि आवेग अपनी अभिव्यक्ति के हेतु चेतना के स्तर पर आते हैं, किन्तु यदि आत्मा उस समय अपने को राग-द्वेष से ऊपर उठाकर साक्षीभाव में स्थिर रखे और उन उदय में आ रहे क्रोधादि भावों के प्रति मात्र द्रष्टा भाव रखे, तो वह भावी बन्धन से बचकर पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा कर देता है और इस प्रकार वह बन्धन से विमुक्ति की ओर अपनी यात्रा प्रारम्भ कर देता है। वस्तुतः विवेक व अप्रमत्तता ऐसे तथ्य हैं जो हमें नवीन बन्धन से बचाकर विमुक्ति की ओर अभिमुख करते हैं। व्यक्ति में जितनी अप्रमत्तता या आत्म चेतनता होगी, उसका विवेक उतना जागृत रहेगा। वह बन्धन से विमुक्ति की दिशा में आगे बढ़ेगा। जैन कर्म सिद्धान्त बताता है कि कर्मों के विपाक के सम्बन्ध में हम विवशं या परतन्त्र होते हैं, किन्तु उस विपाक की दशा में भी हममें इतनी स्वतन्त्रता अवश्य होती है कि हम नवीन कर्म परम्परा का संचय करें या न करें, ऐसा निश्चय कर सकते हैं। वस्तुतः कर्म विपाक के सन्दर्भ में हम परतन्त्र होते हैं, किन्तु नवीन कर्म बन्ध के सन्दर्भ में हम आंशिक रूप में स्वतन्त्र है। इसी आंशिक स्वतन्त्रता द्वारा हम मुक्ति अर्थात् पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकते हैं। जो साधक विपाकोदय के समय साक्षी भाव या ज्ञाता द्रष्टा भाव में जीवन जीना जानता है, वह निश्चय ही कर्म-विमुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
१४.
मण्डल)
रविन्द्रनाथ मिश्रा, जैन कर्म सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास (पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी-५, १९८५), पृ. ८ वही, पृ. ९-१०
रागो व दोसो वि य कम्मवीर्य, उत्तराध्ययनसूत्र ३२/७ (अ) समवायांग ५/४ (ब) इसिभासियाई ९/५ (स) तत्वार्थसूत्र
८ / १
१०.
कुन्दकुन्द, समयसार १७१
११. (अ) अट्ठविहं कम्मगंवि इसिभासियाई ३१
६.
७.
८.
९.
(ब) अट्ठविहंकम्मरयमलं-- इसिभासियाई २३ १२. उत्तराध्ययनसूत्र (सं. मधुकरमुनि), ३३/२-३ १३. वही, ३३/४-१५
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१५.
१६.
सन्दर्भ सूची
१. डॉ. सागरमल जैन- जैनकर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर, १९८२, पृ. ४ श्वेताश्वतरोपनिषद् (गीता प्रेस, गोरखपुर) १/१-२
The Philosophical Quarterly, April 1932, P. 72. Maxmullar-Three Leacturers on Vedanta Philosophy, P. 165.
पं. दलसुखभाई मालवणिया- आत्ममीमांसा (जैन संस्कृति संशोधन २९.
३०.
३१.
३२.
३३.
१७.
१८.
१९.
पं. सुखलाल संघवी, दर्शन व चिन्तन पृ. २२५ आचार्य नेमिचन्द, गोम्मटसार, कर्मकाण्ड-६
आचार्य विद्यानन्दी, अष्टसहस्री, पृ. ५१, उद्धृत--Tatia Dr. P Nathmal Tatia, Studies in Jaina Philosophy (P.V. Rsearch Institute, Varanasi-5, p. 227
कर्मग्रन्थ प्रथम, कर्म विपाक भूमिका पं. सुखलाल संघवी, पृ. २४
२१. सागरमल जैन जैन कर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन पृ. १७-१८
२०.
२२.
२३.
२४.
२१६
अगुत्तरनिकाय उद्धृत उपाध्याय भरतसिंह, बौद्धदर्शन और अन्य भारतीय दर्शन, पू. ४६३
देखें- आचार्य नरेन्द्रदेव, बौद्ध धर्म दर्शन, पृ. २५० देवेन्द्रसूरि कर्मग्रन्थ प्रथम, कर्मविपाक, गाथा १
२७.
२८.
(ब) भगवतीसूत्र १ / २ / ६४
२५. देखें-- (अ) Nathmal Tatia, Tatia, Studies in Jaina Philosophy (P.V.R.I.), P. 254.
(ब) सागरमल जैन जैन कर्मसिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. २४-२७
२६. सागरमल जैन जैन कर्मसिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, पृ.
३५-३६
वही, पृ. ३६-४०
ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत विवरण तत्त्वार्थसूत्र ६ एवं ८, कर्म ग्रन्थ प्रथम कर्मविपाक, पृ. ५४ ६१ समवायांग ३०/१ तथा स्थानांग १२/४/४/३७३ पर आधारित है।
३४.
३५.
(अ) महाभारत शान्तिपर्व (गीता प्रेस, गोरखपुर) पृ. १२९ (ब) लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, गीतारहस्य, पृ. २६८ आचार्य नरेन्द्र देव, बौद्ध धर्म दर्शन, पृ. २७७
(अ) देखें उत्तराध्ययनसूत्र--सम्पादक मधुकरमुनि ४/४/१३, २३/१/३०
·
योगशास्त्र (हेमचन्द्र ), ४/१०७.
स्थानांग टीका (अभयदेव), १/११-१२
जैनधर्म, मुनिसुशीलकुमार, पृ. ८४
समयसारनाटक, बनारसीदास, उत्थानिका २८
"
भगवतीसूत्र, ७/१०/१२१
स्थानांगसूत्र स्थान, ९
भगवद्गीता १८ / १७
३६.
३७.
३८.
३९. दशवौकलिकसूत्र, ४/९
४०.
सूत्रकृतांगसूत्र, २/२/४
४१. उत्तराध्ययनसूत्र, २८/१४
धम्मपद, २४९
सूत्रकृतांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, आद्रकसंवाद २/६
सागरमल जैन, जैनकर्मसिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन,
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