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जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण
२१५ दान, लाभ, भोग, उपभोग-शक्ति के उपयोग में बाधक बनता है, वह हैं- १. सर्वघाती और २. देशघाती। सर्वघाती कर्म प्रकृति किसी भी अपनी उपलबध सामग्री एवं शक्तियों का समुचित उपयोग नहीं कर आत्मगुण को पूर्णतया आवरित करती है और देशघाती कर्म-प्रकृति पाता है। जैसे कोई व्यक्ति किसी दान देने वाले व्यक्ति को दान प्राप्त उसके एक अंश को आवरित करती है। करने वाली संस्था के बारे में गलत सूचना देकर या अन्य प्रकार से दान आत्मा के स्वाभाविक सत्यानुभूति नामक गुण को मिथ्यात्व देने से रोक देता है अथवा किसी भोजन करते हुए व्यक्ति को भोजन (अशुद्ध दृष्टिकोण) सर्वरूपेण आच्छादित कर देता है। अनन्तज्ञान पर से उठा देता है, तो उसकी उपलब्धियों में भी बाधा उपस्थित होती (केवलज्ञान) और अनन्तदर्शन (केवलदर्शन) नामक आत्मा के गुणों है अथवा भोग-सामग्री के होने पर भी वह उसके भोग से वंचित रहता का आवरण भी पूर्ण रूप से होता है। पाँचों प्रकार की निद्राएँ भी आत्मा है। कर्मग्रन्थ के अनुसार जिन-पूजा आदि धर्म-कार्यों में विघ्न उत्पन्न की सहज अनुभूति की क्षमता को पूर्णतया आवरित करती हैं। इसी करने वाला और हिंसा में तत्पर व्यक्ति भी अन्तराय कर्म का संचय प्रकार चारों कषायों के पहले तीनों प्रकार, जो कि संख्या में १२ होते करता है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार भी विघ्न या बाधा डालना ही हैं, भी पूर्णतया बाधक बनते हैं। अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व का, अन्तराय-कर्म के बन्ध का कारण हैं।
प्रत्याख्यानी कषाय देशव्रती चारित्र (ग्रहस्थ धर्म) का और अप्रत्याख्यानी
कषाय सर्वव्रती चारित्र (मुनिधर्म) का पूर्णतया बाधक बनता है। अत: ये घाती और अघाती कर्म
२० प्रकार की कर्मप्रकृतियाँ सर्वघाती कही जाती हैं। शेष ज्ञानावरणीय कर्मों के इस वर्गीकरण में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय कर्म की ४, दर्शनावरणीय कर्म की ३, मोहनीय कर्म की १३, और अन्तराय- इन चार कर्मों को 'घाती' और नाम, गोत्र, आयुष्य अन्तराय कर्म की ५, कुल २५ कर्मप्रकृतियाँ देशघाती कही जाती हैं। और वेदनीय- इन चार कर्मों को 'अघाती' माना जाता है। घाती कर्म सर्वघात का अर्थ मात्र इन गुणों के पूर्ण प्रकटन को रोकना है, न कि आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति नामक गुणों का आवरण करते इन गुणों का अनस्तित्व। क्योंकि ज्ञानादि गुणों के पूर्ण अभाव की हैं। ये कर्म आत्मा की स्वभावदशा को विकृत करते हैं, अत: जीवन- स्थिति में आत्म-तत्त्व और जड़-तत्त्व में अन्तर ही नहीं रहेगा। कर्म तो मुक्ति में बाधक होते हैं। इन घाती कर्मों में अविद्या रूप मोहनीय कर्म आत्मगुणों के प्रकटन में बाधक तत्त्व हैं, वे आत्मगुणों को विनष्ट नहीं ही आत्मस्वरूप की आवरण-क्षमता, तीव्रता और स्थितिकाल की दृष्टि कर सकते। नन्दीसूत्र में तो कहा गया है कि जिस प्रकार बादल सूर्य के से प्रमुख हैं। वस्तुतः मोहकर्म ही एक ऐसा कर्म-संस्कार है, जिसके प्रकाश को चाहे कितना ही आवरित क्यों न कर लें, फिर भी वह न तो कारण कर्म-बन्ध का प्रवाह सतत् बना रहता है। मोहनीय कर्म उस बीज उसकी प्रकाश-क्षमता को नष्ट कर सकता है और न उसके प्रकाश के के समान है, जिसमें अंकुरण की शक्ति है। जिस प्रकार उगने योग्य प्रकटन को पूर्णतया रोक सकता है। उसी प्रकार चाहे कर्म ज्ञानादि बीज हवा, पानी आदि के सहयोग से अपनी परम्परा को बढ़ाता रहता आत्मगुणों को कितना ही आवृत क्यों न कर ले, फिर भी उनका एक है, उसी प्रकार मोहनीय रूपी कर्म-बीज, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंश हमेशा ही अनावृत रहता है। अन्तराय रूप हवा, पानी आदि के सहयोग से कर्म-परम्परा को सतत् बनाये रखता है। मोहनीय कर्म ही जन्म-मरण, संसार या बन्धन का कर्म बन्धन से मुक्ति मूल है, शेष घाती कर्म उसके सहयोगी मात्र हैं। इसे कर्मों का सेनापति
जैन कर्मसिद्धान्त की यह मान्यता है कि प्रत्येक कर्म अपना कहा गया है। जिस प्रकार सेनापति के पराजित होने पर सारी सेना विपाक या फल देकर आत्मा से अलग हो जाता है। इस विपाक की हतप्रभ हो शीघ्र ही पराजित हो जाती है, उसी प्रकार मोह कर्म पर अवस्था में यदि आत्मा राग-द्वेष अथवा मोह से अभिभूत होता है, तो विजय प्राप्त कर लेने पर शेष सारे कर्मों को आसानी से पराजित कर वह पुनः नये कर्म का संचय कर लेता है। इस प्रकार यह परम्परा सतत् आत्मशुद्धता की उपलब्धि की जा सकती है। जैसे ही मोह नष्ट हो जाता रूप से चलती रहती है। व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में यह नहीं है कि वह है, वैसे ही ज्ञानावरण ओर दर्शनावरण का पर्दा हट जाता है, अन्तराय कर्म के विपाक के परिणाम स्वरूप होने वाली अनुभूति से इंकार कर या बाधकता समाप्त हो जाती है और व्यक्ति (आत्मा) जीवन-मुक्त बन दे। अत: यह एक कठिन समस्या है कि कर्म के बन्धन व विपाक की जाता है।
इस प्रक्रिया से मुक्ति कैसे हो, यदि कर्म के विपाक के फलस्वरूप हमारे अघाती कर्म वे हैं जो आत्मा के स्वभाव दशा की उपलब्धि अन्दर क्रोधादि कषाय भाव अथवा कामादि भोग भाव उत्पन्न होना ही और विकास में बाधक नहीं होते। अघाती कर्म भुने हुए बीज के समान है तो फिर स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि हम विमुक्ति की दिशा हैं, जिनमें नवीन कर्मों की उत्पादन-क्षमता नहीं होती। वे कर्म-परम्परा में आगे कैसे बढ़ें? इस हेतु जैन आचार्यों ने दो उपायों का प्रतिपादन का प्रवाह बनाये रखने में असमर्थ होते हैं और समय की परिपक्वता के किया है-- (१) संवर और (२) निर्जरा। संवर का तात्पर्य है कि विपाक साथ ही अपना फल देकर सहज ही अलग हो जाते हैं।
की स्थिति में प्रतिक्रिया से रहित रहकर नवीन कर्मास्रव एवं बन्ध को सर्वघाती और देशघाती कर्म-प्रकृतियाँ- आत्मा के स्व-लक्षणों का नहीं होने देना और निर्जरा का तात्पर्य है पूर्व कर्मों के विपाक की आवरण करने वाले घाती कर्मों की ४५ कर्म-प्रकृतियाँ भी दो प्रकार की समभाव पूर्वक अनुभूति करते हुए उन्हें निर्जरित कर देना या फिर तप
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