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श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
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दो शिष्यों माढरगोत्री सम्भूतिविजय और प्राचीनगोत्री भद्रबाह का उल्लेख मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन भी मुनि के उपकरणों में समाहित हैं। मुनियों करती है। कल्पसूत्र में गणों और शाखाओं की उत्पत्ति बताई गई है, वे के नाम, गण, शाखा, कुल आदि श्वेताम्बर परम्परा के कल्पसूत्र की एक ओर आर्य भद्रबाहु के शिष्य काश्यप गोत्री गोदास से एवं दूसरी ओर स्थविरावलि से मिलते हैं। इस प्रकार ये श्वेताम्बर परम्परा की पूर्व स्थिति स्थूलिभद्र के शिष्य-प्रशिष्यों से प्रारम्भ होती है। गोदास से गोदासगण के सूचक हैं। जैन धर्म में तीर्थंकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त स्तूप के निर्माण की उत्पत्ति हुई और उसकी चार शाखाएं ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, की परम्परा भी थी, यह भी मथुरा के शिल्प से सिद्ध हो जाता है। पौण्ड्रवर्द्धनिका और दासीकाटिका निकली हैं। इसके पश्चात् भद्रबाहु की परम्परा कैसे आगे बढ़ी, इस सम्बन्ध में कल्पसूत्र की स्थविरावलि में कोई यापनीय या बोटिक संघ का उद्भव निर्देश नहीं है। इन शाखाओं के नामों से भी ऐसा लगता है कि भद्रबाहु ईसा की द्वितीय शती में महावीर के निर्वाण के छ: सौ नौ वर्ष की शिष्य परम्परा बंगाल और उड़ीसा से दक्षिण की ओर चली गई होगी। पश्चात् उत्तर भारत निर्ग्रन्थ संघ में विभाजन की एक अन्य घटना घटित दक्षिण में गोदास गण का एक अभिलेख भी मिला है। अत: यह मान्यता हुई, फलत: उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ सचेल एवं अचेल ऐसे दो भागों समुचित ही है कि भद्रबाहु की परम्परा से ही आगे चलकर दक्षिण की में बंट गया। पापित्यों के प्रभाव से आपवादिक रूप में एवं शीतादि अचेलक निर्ग्रन्थ परम्परा का विकास हुआ।
के निवारणार्थ गृहीत हुए वस्त्र, पात्र आदि जब मुनि की अपरिहार्य उपधि ___ श्वेताम्बर परम्परा पाटलिपुत्र की वाचना के समय भद्रबाहु के बनने लगे, तो परिग्रह की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के प्रश्न पर नेपाल में होने का उल्लेख करती है जबकि दिगम्बर परम्परा चन्द्रगुप्त आर्य कृष्ण और आर्य शिवभूति में मतभेद हो गया। आर्य कृष्ण जिनकल्प मौर्य को दीक्षित करके उनके दक्षिण जाने का उल्लेख करती है। सम्भव का उच्छेद बताकर गृहीत वस्त्र-पात्र को मुनिचर्या का अपरिहार्य अंग मानने है कि वे अपने जीवन के अन्तिम चरण में उत्तर से दक्षिण चले गये हों। लगे, जबकि आर्य शिवभूति ने इनके त्याग और जिनकल्प के आचरण उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ की परम्परा सम्भूतिविजय के प्रशिष्य एवं पर बल दिया। उनका कहना था कि समर्थ के जिनकल्प का निषेध नहीं स्थूलिभद्र के शिष्यों से आगे बढ़ी। कल्पसूत्र में वर्णित गोदास गण और मानना चाहिए। वस्त्र, पात्र का ग्रहण अपवाद मार्ग है, उत्सर्ग मार्ग तो उसकी उपर्युक्त चार शाखाओं को छोड़कर शेष सभी गणों, कुलों और अचेलता ही है। आर्य शिवभूति की उत्तर भारत की इस अचेल परम्परा शाखाओं का सम्बन्ध स्थूलिभद्र की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा से ही है। इसी को श्वेताम्बरों ने बोटिक (भ्रष्ट) कहा। किंतु आगे चलकर यह परम्परा प्रकार दक्षिण का अचेल निर्ग्रन्थ संघ भद्रबाहु की परम्परा से और उत्तर यापनीय के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध हुई। गोपाञ्चल में विकसित होने का सचेल निर्ग्रन्थ संघ स्थूलिभद्र की परम्परा से विकसित हुआ। इस संघ के कारण यह गोप्य संघ नाम से भी जानी जाती थी। षट्दर्शनसमुच्चय में उत्तर बलिस्सहगण, उद्धेहगण, कोटिकगण, चारणगण, मानवगण, की टीका में गुणरत्न ने गोप्य संघ या यापनीय संघ को पर्यायवाची बताया वेसवाडिवगण, उड्डवाडियगण आदि प्रमुख गण थे। इन गणों की अनेक है। यापनीय संघ की विशेषता यह थी कि एक ओर यह श्वेताम्बर परम्परा शाखाएं एवं कुल थे। कल्पूसत्र की स्थविरावलि इन सबका उल्लेख तो के समान आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि करती है किन्तु इसके अंतिम भाग में मात्र कोटिकगण की वज्री शाखा अर्द्धमागधी आगम साहित्य को मान्य करता था जो कि उसे उत्तराधिकार की आचार्य परम्परा दी गई है जो देवर्द्धिक्षमाश्रमण (वीर निर्माण में ही प्राप्त हुआ था, साथ ही वह सचेल, स्त्री और अन्यतैर्थिकों की मुक्ति सं०९८०) तक जाती है। स्थूलभद्र के शिष्य-प्रशिष्यों की परम्परा में उद्भूत को स्वीकार करता था। आगम साहित्य के वस्त्र-पात्र सम्बन्धी उल्लेखों जिन विभिन्न गणों, शाखाओं एवं कुलों की सूचना हमें कल्पसूत्र की को वह साध्वियों एवं आपवादिक स्थिति में मुनियों से सम्बन्धित मानता स्थविरावलि से मिलती है उसकी पुष्टि मथुरा के अभिलेखों से हो जाती था किन्तु दूसरी ओर वह दिगम्बर परम्परा के समान वस्त्र और पात्र का है जो कल्पसूत्र की स्थविरावलि की प्रामाणिकता को सिद्ध करते हैं। निषेध कर मुनि की नग्नता पर बल देता था। यापनीय मुनि नग्न रहते दिगम्बर परम्परा में महावीर के निर्वाण से लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् थे और पानीतलभोजी (हाथ में भोजन करने वाले) होते थे। इसके आचार्यों तक की जो पट्टावली उपलब्ध है, एक तो वह पर्याप्त परवर्ती है दूसरे ने उत्तराधिकार में प्राप्त आगमों से गाथायें लेकर शौरसेनी प्राकृत में अनेक भद्रबाहु के नाम के अतिरिक्त उसकी पुष्टि का प्राचीन साहित्यिक और ग्रन्थ बनाये। इनमें कषायप्राभृत, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, अभिलेखीय कोई साक्ष्य नहीं है। भद्रबाहु के सम्बन्ध में भी जो साक्ष्य मूलाचार आदि प्रसिद्ध हैं। हैं, वह पर्याप्त परवर्ती हैं। अत: ऐतिहासिक दृष्टि से उसकी प्रामाणिकता दक्षिण भारत में अचेल निर्ग्रन्थ परम्परा का इतिहास ईस्वी सन् पर प्रश्न चिह्न लगाये जा सकते हैं। महावीर के निर्वाण से ईसा की प्रथम की तीसरी चौथी-शती तक अंधकार में ही है। इस सम्बन्ध में हमें न तो एवं द्वितीय शताब्दी तक के जो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ विशेष साहित्यिक साक्ष्य ही मिलते हैं और न अभिलेखीय ही। यद्यपि संघ में हुए, उन्हें समझने के लिए अर्द्धमागधी आगमों के अतिरिक्त मथुरा इस काल के कुछ पूर्व के ब्राह्मी लिपि के अनेक गुफा अभिलेख तमिलनाडु का शिल्प एवं अभिलेख हमारी बहुत अधिक मदद करते हैं। मथुरा शिल्प में पाये जाते हैं किन्तु वे श्रमणों या निर्माता के नाम के अतिरिक्त कोई की विशेषता यह है कि तीर्थंकर प्रतिमाएँ नग्न हैं, मुनि नग्न होकर भी जानकारी नहीं देते। तमिलनाडु में अभिलेख युक्त जो गुफायें हैं, वे वस्त्र खण्ड से अपनी नग्नता छिपाये हुए हैं। वस्त्र के अतिरिक्त पात्र, झोली, सम्भवत: निर्ग्रन्थ के समाधि मरण ग्रहण करने के स्थल रहे होंगे। संगम
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