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प्रायोपगमन उसमें समाधिमरण के लिए दो तथ्य आवश्यक माने गए हैं- पहला कषायों का कृशीकरण और दूसरा शरीर का कृशीकरण । इसमें भी मुख्य उद्देश्य तो कषायों का कृशीकरण है । भक्तपरिज्ञा में प्रथम तो मुनि के लिए कल्प का विचार किया गया है और उसके अन्त में यह बताया गया है कि अकल्प का सेवन करने की अपेक्षा शरीर का विसर्जन कर देना ही उचित है उसमें कहा गया है कि जब भिक्षु को यह अनुभव हो कि मेरा शरीर अब इतना दुर्बल अथवा रोग से आक्रान्त हो गया है कि गृहस्थों के घर भिक्षा हेतु परिभ्रमण करना मेरे लिए सम्भव नहीं है, साथ ही मुझे गृहस्थ के द्वारा मेरे सम्मुख लाया गया आहार आदि ग्रहण करना योग्य नहीं है। ऐसी स्थिति में एकाकी साधना करने वाले जिनकल्पी मुनि के लिए आहार का त्याग करके संथारा ग्रहण करने का विधान है। यद्यपि आचाराङ्गसूत्र के अनुसार संघस्थ मुनि की बीमारी अथवा वृद्धावस्थाजन्य शारीरिक दुर्बलता की स्थिति में आहारादि से एक-दूसरे का उपकार अर्थात् सेवा कर सकते हैं, किन्तु इस सम्बन्ध में भी चार विकल्पों का उल्लेख हुआ है
१. कोई भिक्षु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं ( साधर्मिक भिक्षुओं के लिए) आहार आदि लाऊंगा और (उनके द्वारा) लाया हुआ स्वीकार भी करूंगा।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
अथवा
२. कोई यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं (दूसरों के लिए) आहार आदि नहीं लाऊँगा, किन्तु (उनके द्वारा) लाया हुआ स्वीकार करूंगा।
अथवा
३. कोई भिक्षु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं (दूसरों के लिए) आहार आदि लाऊंगा, किन्तु उनके द्वारा लाया स्वीकार नहीं करूंगा ।
अथवा
४. कोई भिक्षु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं न तो (दूसरों के लिए) आहार आदि लाऊंगा और न (उनके द्वारा) लाया हुआ स्वीकार
उपरोक्त चार विकल्पों में से जो भिक्षु प्रथम दो विकल्प स्वीकार करता है, वह आहारादि के लिए संघस्य मुनियों की सेवा ले सकता है किन्तु जो अन्तिम दो विकल्प स्वीकार करता है, उसके लिए आहारादि के लिये दूसरों की सेवा लेने में प्रतिज्ञा भङ्ग का दोष आता है। ऐसी स्थिति में आचाराङ्गकार का मन्तव्य यही है कि प्रतिज्ञा भङ्ग नहीं करनी चाहिये, भले ही भक्तप्रत्याख्यान कर देह त्याग करना पड़े। आचाराङ्गकार के अनुसार ऐसी स्थिति में जब भिक्षु को यह संकल्प उत्पन्न हो कि मैं इस समय संयम साधना के लिए इस शरीर को वहन करने में ग्लान (असमर्थ ) हो रहा हूँ, तब वह क्रमशः आहार का संवर्तन (संक्षेप) करे। आहार का संक्षेप कर कषायों (क्रोध, मान, माया और लोभ) को कृश करे। कषायों को कृश कर समाधिपूर्ण भाव वाला शरीर और कषाय दोनों ओर से कृश बना हुआ वह भिक्षु फल का वस्थित हो समाधिमरण के लिए उत्थित (प्रयत्नशील) होकर शरीर का उत्सर्ग करे। संथारा ग्रहण करने का निश्चय कर लेने के पश्चात् वह किस प्रकार
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समाधिमरण ग्रहण करे इसका उल्लेख करते हुए आचाराङ्गकार कहता है कि ऐसे भिक्षु ग्राम, नगर, कर्वट, आश्रम आदि में जाकर घास की याचना करे और उसे प्राप्त कर गांव के बाहर एकांत में जाकर जीव-जन्तु, बीज, हरित आदि से रहित स्थान को देखकर घास का बिस्तर तैयार करे और उस पर स्थित होकर इत्वरिक अनशन अथवा प्रायोपगमन स्वीकार करें।
ज्ञातव्य है कि आचाराङ्गकार भक्तप्रत्याख्यान, इङ्गितिमरण और प्रायोपगमन ऐसे तीन प्रकार के समाधिमरण का उल्लेख करता है। भक्तप्रत्याख्यान में मात्र आहारादि का त्याग किया जाता है, किन्तु शारीरिक हलन चलन और गमनागमन की कोई मर्यादा निश्चित नहीं की जाती है। इङ्गितमरण में आहार त्याग के साथ ही साथ शारीरिक हलन-चलन और गमनागमन का एक क्षेत्र निश्चित कर लिया जाता है और उसके बाहर गमनागमन का त्याग कर दिया जाता है। प्रायोपगमन या पादोपगमन में आहार आदि के त्याग के साथ-साथ शारीरिक क्रियाओं का निरोध करते हुए मृत्यु पर्यन्त निश्चल रूप से लकड़ी के तख्ते के समान स्थिर पड़े रहना पड़ता है। इसीलिए आचाराङ्गकार ने प्रायोपगमन संथारे के प्रत्याख्यान में स्पष्ट रूप से यह लिखा है कि काय, योग एवं ईर्ष्या का प्रत्याख्यान करें। वस्तुतः यह तीनों संथारे की क्रमिक अवस्थाएँ हैं।
आचाराङ्गसूत्र में समाधिमरण का विवरण
क्रम से निर्ममत्व की स्थिति को प्राप्त धैर्यवान्, आत्मनिग्रही और गतिमान साधक इस अद्वितीय समाधिमरण की साधना हेतु तत्पर हो वह धर्म के पारगामी ज्ञानपूर्वक अनुक्रम से दोनों ही प्रकार के आरम्भ का (हिंसा का ) परित्याग कर दें वह कषायों को कृश करते हुए आहार की मात्रा को भी अल्प करें और परिषों को सहन करें। इस प्रकार करते हुए जब अति ग्लान हो जाय तो आहार का भी त्याग कर दें। ऐसी स्थिति में न तो जीवन की आकांक्षा रखे और न मरण की, अपितु जीवन एवं मरण दोनों में ही आसक्त न हो वह निर्जरापेक्षी मध्यस्थ समाधि भाव का अनुपालन करे तथा राग-द्वेष आदि आन्तरिक परिग्रह और शरीर आदि बाह्य परिग्रह का त्याग कर शुद्ध अध्यात्म का अन्वेषण करे।
यदि उसे अपने साधनाकाल में किसी भी रूप में आयुष्य के विनाश का कोई कारण जान पड़े, तो वह शीघ्र ही समाधिमरण का प्रयत्न करे। ग्राम अथवा अरण्य में जहाँ हरित एवं प्राणियों आदि का अभाव (अल्पता) हो, उस स्थण्डिल भूमि पर तृण का बिछौना तैयार करे और वहाँ निराहार होकर शान्त भाव से लेट जाये मनुष्य कृत अथवा अन्य किसी प्रकार के परीषह से आक्रान्त होने पर भी मर्यादा का उल्लङ्घन न करे तथा परिषहों को समभावपूर्वक सहन करे। आकाश में विचरण करने वाले पक्षी एवं रेंगने वाले प्राणी यदि उसके शरीर का मांस नोंचे रक्त पीये तो भी न उन्हें मारे और न उनका निवारण करे तथा न उस स्थान से उठकर अन्यत्र जाये, अपितु यह विचार करें कि ये प्राणी मेरे शरीर का ही नाश कर रहे हैं, मेरे ज्ञानादि गुणों
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