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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
२१२ अनुकम्पा करना। (५) किसी को भी किसी प्रकार से दुःख न देना। मोहनीय कर्म के बन्ध के कारण- सामान्यतया मोहनीय कर्म का (६) किसी भी प्राणी को चिन्ता एवं भय उत्पन्न हो ऐसा कार्य न बन्ध छ: कारणों से होता है- (१) क्रोध, (२) अहंकार, (३) कपट, करना। (७) किसी भी प्राणी को शोकाकुल नहीं बनना। (८) किसी (४) लोभ, (५) अशुभाचरण और (६) विवेकाभाव (विमूढ़ता)। प्रथम भी प्राणी को रुदन नहीं कराना। (९) किसी भी प्राणी को नहीं मारना पाँच से चारित्रमोह का और अन्तिम से दर्शनमोह का बन्ध होता है।
और (१०) किसी भी प्राणी को प्रताड़ित नहीं करना। कर्मग्रन्थों में कर्मग्रन्थ में दर्शनमोह और चारित्रमोह के बन्धन के कारण अलगसातावेदनीय कर्म के बन्धन का कारण गुरुभक्ति, क्षमा, करुणा, अलग बताये गये हैं। दर्शनमोह के कारण हैं-उन्मार्ग देशना, सन्मार्ग व्रतपालन, योग-साधना, कषायविजय, दान और दृढ़श्रद्धा माना का अपलाप, धार्मिक सम्पत्ति का अपहरण और तीर्थंकर, मुनि, चैत्य गया है। तत्त्वार्थसूत्रकार का भी यही दृष्टिकोण है।
(जिन-प्रतिमाएँ) और धर्म-संघ के प्रतिकूल आचरण। चारित्रमोह कर्म सातावेदनीय कर्म का विपाक- उपर्युक्त शुभाचरण के फलस्वरूप के बन्धन के कारणों में कषाय, हास्य आदि तथा विषयों के अधीन प्राणी निम्न प्रकार की सुखद संवेदना प्राप्त करता है- (१) मनोहर, होना प्रमुख है। तत्त्वार्थ-सूत्र में सर्वज्ञ, श्रुत, संघ, धर्म और देव के कर्णप्रिय, सुखद स्वर श्रवण करने को मिलते हैं, (२) सुस्वादु भोजन- अवर्णवाद (निन्दा) को दर्शनमोह का तथा कषायजनित आत्म-परिणाम पानादि उपलब्ध होती है, (३) वांछित सुखों की प्राप्ति होती है, (४) को चारित्रमोह का कारण माना गया है। समवायांगसूत्र में तीव्रतम शुभ वचन, प्रशंसादि सुनने का अवसर प्राप्त होता है, (५) शारीरिक मोहकर्म के बन्धन के तीस कारण बताये गये हैं- (१) जो किसी त्रस सुख मिलता है।
प्राणी को पानी में डुबाकर मारता है। (२) जो किसी त्रस प्राणी को तीव्र असातावेदनीय कर्म के कारण- जिन अशुभ आचरणों के कारण अशुभ अध्यवसाय से मस्तक को गीला चमड़ा बांधकर मारता है। (३) प्राणी को दुःखद संवेदना प्राप्त होती है वे १२ प्रकार के हैं- (१) जो किसी त्रस प्राणी को मुँह बाँध कर मारता है। (४) जो किसी त्रस किसी भी प्राणी को दुःख देना, (२) चिन्तित बनाना, (३) शोकाकुल प्राणी को अग्नि के धुएँ से मारता है। (५) जो किसी त्रस प्राणी के बनाना, (४) रुलाना, (५) मारना और (६) प्रताड़ित करना, इन छ: मस्तक का छेदन करके मारता है। (६) जो किसी त्रस प्राणी को छल क्रियाओं की मन्दता और तीव्रता के आधार पर इनके बारह प्रकार हो से मारकर हँसता है। (७) जो मायाचार करके तथा असत्य बालेकर जाते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार- (१) दुःख (२) शोक (३) ताप अपना अनाचार छिपाता है। (८) जो अपने दुराचार को छिपाकर दूसरे ९४) आक्रन्दन (५) वध और (६) परिदेवन ये छ: असातावेदनीय पर कलंक लगता है। (९) जो कलह बढ़ाने के लिए जानता हुआ मिश्र कर्म के बन्ध के कारण हैं, जो 'स्व' और 'पर' की अपेक्षा से १२ भाषा बोलता है। (१०) जो पति-पत्नी में मतभेद पैदा करता है तथा प्रकार के हो जाते हैं। स्व एवं पर की अपेक्षा पर आधारित तत्त्वार्थसूत्र उन्हें मार्मिक वचनों से लज्जित कर देता है। (११) जो स्त्री में आसक्त का यह दृष्टिकोण अधिक संगत है। कर्मग्रन्थ में सातावेदनीय के बन्ध व्यक्ति अपने-आपको कुंवारा कहता है। (१२) जो अत्यन्त कामुक के कारणों के विपरीत गुरु का अविनय, अक्षमा, क्रूरता, अविरति, व्यक्ति अपने आप को ब्रह्मचारी कहता है। (१३) जो चापलूसी करके योगाभ्यास नहीं करना, कषाययुक्त होना, तथा दान एवं श्रद्धा का अपने स्वामी को ठगता है। (१४) जो जिनकी कृपा से समृद्ध बना है, अभाव असातावेदनीय कर्म के कारण माने गये हैं। इन क्रियाओं के ईर्ष्या से उनके ही कार्यों में विघ्न डालता है। (१५) जो प्रमुख पुरुष की विपाक के रूप में आठ प्रकार की दुःखद संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं- हत्या करता है। (१६) जो संयमी को पथभ्रष्ट करता है। (१७) जो (१) कर्ण-कटु, कर्कश स्वर सुनने को प्राप्त होते हैं (२) अमनोज्ञ एवं अपने उपकारी की हत्या करता है। (१८) जो प्रसिद्ध पुरुष की हत्या सौन्दर्यविहीन रूप देखने को प्राप्त होता है, (३) अमनोज्ञ गन्धों की करता है। (१९) जो महान् पुरुषों की निन्दा करता है। (२०) जो उपलब्धि होती है, (४) स्वादविहीन भोजनादि मिलता है, (५) अमनोज्ञ, न्यायमार्ग की निन्दा करता है। (२१) जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु कठोर एवं दुःखद संवेदना उत्पन्न करने वाले स्पर्श की प्राप्ति होती है, की निन्दा करता है। (२२) जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु का अविनय (६) अमनोज्ञ मानसिक अनुभूतियों का होना, (७) निन्दा अपमानजनक करता है। (२३) जो अबहुश्रुत होते हुए भी अपने-आपको बहुश्रुत वचन सुनने को मिलते हैं और (८) शरीर में विविध रोगों की उत्पत्ति कहता है। (२४) जो तपस्वी न होते हुए भी अपने-आपको तपस्वी से शरीर का दुःखद संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं।
कहता है। (२५) जो अस्वस्थ आचार्य आदि की सेवा नहीं करता।
(२६) जो आचार्य आदि कुशास्त्र का प्ररूपण करते हैं। (२७) जो ४. मोहनीय कर्म
आचार्य आदि अपनी प्रशंसा के लिए मंत्रादि का प्रयोग करते हैं। (२८) जैसे मदिरा आदि नशीली वस्तु के सेवन से विवेक-शक्ति जो इहलोक और परलोक में भोगोपभोग पाने की अभिलाषा करता है। कुंठित हो जाती है, उसी प्रकार जिन कर्म-परमाणुओं से आत्मा की (२९) जो देवताओं की निन्दा करता है या करवाता है। (३०) जो विवेक-शक्ति कुंठित होती है और अनैतिक आचरण में प्रवृत्ति होती है, असर्वज्ञ होते हुए भी अपने आपको सर्वज्ञ कहता है। उन्हें मोहनीय (विमोहित करने वाले) कर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं- (अ) दर्शन-मोह- जैन-दर्शन में 'दर्शन' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त दर्शनमोह और चारित्रमोह।
हुआ है- (१) प्रत्यक्षीकरण, (२) दृष्टिकोण और (३) श्रद्धा। प्रथम
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