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जैन साधना में ध्यान
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क्रमश: भौतिक तत्त्वों या शरीर, मातृकापदों, सर्वज्ञदेव तथा सिद्धात्मा कोई विशिष्ट पद्धति थी। यह भी हो सकता है कि साधकों की प्रकृति के का चिंतन किया जाता है; क्योंकि स्थूल ध्येयों के बाद क्रमश सूक्ष्म और अनुरूप ध्यान-साधना की एकाधिक पद्धतियां भी प्रचलित रही हों, सूक्ष्मतर ध्येय का ध्यान करने से मन में स्थिरता आती है और ध्याता एवं किन्तु आगमों की अन्तिम वाचना तक वे विलुप्त होने लगी थीं। जिस ध्येय में कोई अन्तर नहीं रह जाता।
रामपुत्त का निर्देश भगवान् बुद्ध के ध्यान के शिक्षक के रूप में मिलता
है, उनका उल्लेख जैन परंपरा के प्राचीन आगमों में जैसे सूत्रकृतांग, जैन धर्म में ध्यान-साधना का विकासक्रम
अंतकृददशा, औपपातिकदशा, ऋषिभाषित आदि में होना ४ इस बात जैन धर्म में ध्यानसाधना की परम्परा प्राचीनकाल से ही उपलब्ध का प्रमाण है कि निर्ग्रन्थ परम्परा रामपुत्त की ध्यान-साधना की पद्धति से होती है। सर्वप्रथम हमें आचारांग में महावीर के ध्यान साधना संबंधी प्रभावित थी। बौद्ध परम्परा की विपश्यना और निग्रंथ परम्परा की अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं। आचारांग के अनुसार महावीर अपने आचारांग की ध्यान साधना में जो कुछ निकटता परिलक्षित होती है, वह साधनात्मक जीवन में अधिकांश समय ध्यान-साधना में ही लीन रहते यह सूचित करती है कि सम्भवत: दोनों का मूल स्रोत रामपुत्त की ध्यानथे।८८ आचारांग से यह भी ज्ञात होता है कि महावीर ने न केवल पद्धति ही रही होगी। इस संबंध में तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन किया चित्तवृत्तियों के स्थिरीकरण का अभ्यास किया था, अपितु उन्होंने दृष्टि के जाना अपेक्षित है। स्थिरीकरण का भी अभ्यास किया था। इस साधना में वे अपलक होकर षट् आवश्यकों में कायोत्सर्ग को भी एक आवश्यक माना दीवार आदि किसी एक बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित करते थे। इस साधना में गया है। कायोत्सर्ग ध्यान-साधनापूर्वक ही होता है, इसमें कोई संदेह नहीं उनकी आंखें लाल हो जाती थीं और बाहर की ओर निकल आती थीं, है। प्रतिक्रमण में अनेक बार कायोत्सर्ग (ध्यान) किया जाता है। वर्तमानकाल जिन्हें देखकर दूसरे लोग भयभीत भी होते थे।८९ आचारांग के ये में भी यह परम्परा अविच्छिन्न रूप से जीवित है। आज भी ध्यान की इस उल्लेख इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि महावीर ने ध्यान-साधना की परम्परा में आचार संबंधी दोषों के चिन्तन के अतिरिक्त नमस्कार मंत्र, बाह्म और आभ्यन्तर अनेक विधियों का प्रयोग किया था। वे अप्रमत्त चतुर्विंशतिस्तव के माध्यम से पंचपरमेष्ठि अथवा तीर्थंकरों का ध्यान (जाग्रत) होकर समाधिपूर्वक ध्यान करते थे। ऐसे भी उल्लेख उपलब्ध किया जाता है। हुआ मात्र यह है कि ध्यान की इस समग्र प्रकिया में, जो होते हैं कि महावीर के शिष्य- प्रशिष्यों में भी यह ध्यान-साधना की सजगता अपेक्षित थी, वह समाप्त हो गयी है और ये सब ध्यान संबंधी प्रवृत्ति निरन्तर बनी रही। उत्तराध्ययन में मुनिजीवन की दिनचर्या का प्रक्रियाएं रूढ़ि मात्र बनकर रह गई हैं। यद्यपि इन प्रक्रियाओं की विवेचन करते हुए स्पष्ट रूप से निर्देश दिया गया है कि मुनि दिन और उपस्थिति से यह ज्ञात होता है कि ध्यान की इन प्रक्रियाओं से चेतना से रात्रि के द्वितीय प्रहर में ध्यान साधना करे।९० महावीरकालीन साधकों के सतत रूप से जाग्रत या ज्ञाता-द्रष्टा- भाव में स्थिर रखने का प्रयास ध्यान की कोष्ठोपगत विशेषता आगमों में उपलब्ध होती है। यह इस बात किया जाता रहा है। की सूचक है कि उस युग में ध्यान-साधना मुनि जीवन का एक आगम युग तक जैन धर्म में ध्यान का उद्देश्य मुख्य रूप से आवश्यक अंग थी। भद्रबाह द्वारा नेपाल में जाकर महाप्राण ध्यान की आत्मशुद्धि या चारित्रशुद्धि ही था अथवा यों कहें कि वह चित्त को साधना करने का उल्लेख भी मिलता है।९१ इसी प्रकार दुर्बलिकापुष्यमित्र समभाव में स्थिर रखने का प्रयास था। की ध्यान साधना का उल्लेख आवश्यकचूर्णि में है।९२ यद्यपि आगमों में मध्य युग में जब भारत में तंत्र और हठयोग संबंधी साधनाएं ध्यान संबंधी निर्देश तो हैं, किन्तु महावीर और उनके अनुयायियों की प्रमुख बनी तो उनके प्रभाव से जैन ध्यान की प्रक्रिया में परिवर्तन आया। ध्यान प्रक्रिया का विस्तृत विवरण उनमें उपलब्ध नहीं है।
आगमिक काल में ध्यान-साधना में शरीर, इन्द्रिय, मन और चित्तमहावीर के युग में श्रमण परम्परा में ऐसे अनेक श्रमण थे वृत्तियों के प्रति सजग होकर चेतना को द्रष्टाभाव या साक्षीभाव में स्थिर जिनकी अपनी-अपनी ध्यान-साधना की विशिष्ट पद्धतियां थी। इनमें किया जाता था, जिससे शरीर और मन के उद्वेग और आकुलताएं शान्त बुद्ध और महावीर के समकालीन किन्तु उनसे ज्येष्ठ रामपुत्त का हम हो जाती थीं। दूसरे शब्दों में वह चैतसिक समत्व अर्थात् सामायिक की प्रारम्भ में ही उल्लेख कर चुके हैं। आचारांगसूत्र में साधकों के सम्बन्ध साधना थी, जिसका कुछ रूप आज भी विपश्यना में उपलब्ध है। किन्तु में विपस्सी९३ और पासग जैसे विशेषण मिलते हैं। इससे ऐसा लगता जैसे-जैसे भारतीय समाज में तंत्र और हठयोग का प्रभाव बढ़ा वैस-वैसे है कि भगवान् महावीर की निर्ग्रन्थ परम्परा में भी ज्ञाता-द्रष्टाभाव में जैन साधनापद्धति में भी परिर्वतन आया। जैन ध्यानपद्धति में पदस्थ, चेतना को स्थिर रखने के लिए विपश्यना जैसी कोई ध्यान साधना की पिण्डस्थ, रूपस्थ आदि ध्यान की विधियाँ और पार्थिवी, आग्नेयी, पद्धति रही होगी। उसमें श्वासोच्छवास प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा, कषाय या चित्त वायवीय और वारुणीय जैसी धारणाएं सम्मिलित हुईं। बीजाक्षरों तथा प्रेक्षा के संकेत तो हैं किन्तु विस्तृत विवरणों के अभाव में आज उस मंत्रों का ध्यान करने की परम्परा विकसित हुई और षट्चक्रों के भेदन का पद्धति की सम्पूर्ण प्रक्रिया की चर्चा नहीं की जा सकती, परन्तु आचारांग प्रयास भी हुआ। यह स्पष्ट है कि यह सब कौलतन्त्र एवं हठयोग से जैन जैसे प्राचीन आगम में इन शब्दों की उपस्थिति इस तथ्य की सूचक परम्परा में आया। अवश्य है कि उस युग में ध्यान- साधना की जैन परम्परा की अपनी यदि हम जैन परम्परा में ध्यान की प्रक्रिया का इतिहास देखते
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