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जैन धर्म में स्वाध्याय का अर्थ एवं स्थान
प्राप्त होता है।
भन्ते! अनुप्रेक्षा से जीव को क्या प्राप्त होता है? अनुप्रेक्षा अर्थात् सूत्रार्थ के चिन्तन-मनन से जीव आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरणादि सात कर्मों की प्रकृतियों के प्रगाढ़ बन्धन को शिथिल करता है। उनकी दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन करता है। उनके तीव्र रसानुभाव को मन्द करता है। बहुकर्म-प्रदेशों को अल्पप्रदेशों में परिवर्तित करता है। आयुष्यकर्म का बन्ध कदाचित् करता है, कदाचित् नहीं भी करता है असातावेदनीयकर्म का पुनः पुनः उपचय नहीं करता है जो संसार अटवी अनादि एवं अनन्त है, दीर्घमार्ग से युक्त है, जिसके नरकादि गतिरूप चार अन्त (अवयव) है, उसे शीघ्र ही पार करता है।
भन्ते! धर्मकथा (धर्मोपदेश) से जीव को क्या प्राप्त होता है? धर्मकथा से जीव कर्मों की निर्जरा करता है और प्रवचन ( शासन एवं सिद्धान्त) की प्रभावना करता है। प्रवचन की प्रभावना करने वाला जीव भविष्य में शुभ फल देने वाले पुण्य कर्मों का बन्ध करता है।
इसी प्रकार स्थानांगसूत्र' में भी शास्त्राध्ययन से क्या लाभ हैं? इसकी चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें कहा गया है कि सूत्र की वाचना से पाँच लाभ हैं- १. वाचना से श्रुत का संग्रह होता है अर्थात् यदि अध्ययन का क्रम बना रहे तो ज्ञान की वह परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती रहती है। २. शास्त्राध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति से शिष्य का हित होता है, क्योंकि वह उसके ज्ञान की प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण साधन है । ३. शास्त्राध्ययन अर्थात् अध्यापन की प्रवृत्ति बनी रहने से ज्ञानावरण कर्म की निर्जरा होती है अर्थात् अज्ञान का नाश होता है। ४. अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति के जीवित रहने से उसके विस्मृत होने की सम्भावना नहीं रहती है। ५. जब श्रुत स्थिर रहता है तो उसकी अविच्छिन्न परम्परा चलती रहती है।
स्वाध्याय का प्रयोजन
स्थानांगसूत्र में स्वाध्याय क्यों करना चाहिए इसकी चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें यह बताया गया है कि स्वाध्याय के निम्र पाँच प्रयोजन होने चाहिए—
१. ज्ञान की प्राप्ति के लिये २. सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति के लिये ३. सदाचरण में प्रवृत्ति हेतु ४. दुराग्रहों और अज्ञान का विमोचन करने के लिये ५. यथार्थ का बोध करने के लिए या अवस्थित भावों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए।.
आचार्य अकलंक ने स्वाध्याय के निम्न पाँच प्रयोजनों की भी चर्चा की है
१. बुद्धि की निर्मलता, २ प्रशस्त मनोभावों की प्राप्ति, ३. जिनशासन की रक्षा, ४. संशय की निवृत्ति, ५. परवादियों की शंका का निरसन, ६. तप त्याग की वृद्धि और अतिचारों (दोषों)
की शुद्धि ।
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स्वाध्याय का साधक जीवन में स्थान
स्वाध्याय का जैन परम्परा में कितना महत्त्व रहा है, इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर उत्तराध्ययनसूत्र के माध्यम से ही अपनी बात को स्पष्ट करूंगा उसमें मुनि की जीवन-चर्या की चर्चा करते हुए कहा गया है-
दिवसस्स चउरो भागे कुज्जा भिक्खू वियक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुज्जा दिभागेसु चउसु वि ।। पढमं पोरिसिं सज्झायं बीयं झाणं झियायई । तइयाए भिक्खाचरियं पुणो चउत्थीए सज्झायं । रत्तिं पि चउरो भागे भिक्खू कुज्जा वियक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुज्जा राइभाए चउसु वि ।। पढमं पोरिसि सज्ज्ञायं बीयं झियायई।
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तइयाए निद्दमोक्खं तु चउत्थी भुज्जो वि सज्झायं ॥ उत्तराध्ययनसूत्र २६/११,१२,१७,१८ मुनि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे, दूसरे प्रहर में ध्यान करे, तीसरे में भिक्षा-चर्या एवं दैहिक आवश्यकता की निवृत्ति का कार्य करे। पुनः चतुर्थ प्रहर में स्वाध्याय करे इसी प्रकार रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में निद्रा व चौथे में पुनः स्वाध्याय का निर्देश है। इस प्रकार मुनि प्रतिदिन चार प्रहर अर्थात् १२ घंटे स्वाध्याय में रत रहे। दूसरे शब्दों में साधक जीवन का आधा भाग स्वाध्याय के लिये नियत था। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा में स्वाध्याय का महत्व प्राचीन काल से ही सुस्थापित रहा है. क्योंकि यही एक ऐसा माध्यम था जिसके द्वारा व्यक्ति के अज्ञान का निवारण तथा आध्यात्मिक विशुद्धि सम्भव थी।
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सत्साहित्य के अध्ययन की दिशायें
सत्साहित्य के पठन के रूप में स्वाध्याय की क्या उपयोगिता है? यह सुस्पष्ट है वस्तुतः सत्साहित्य का अध्ययन व्यक्ति की जीवन दृष्टि को ही बदल देता है। ऐसे अनेक लोग हैं जिनकी सत्साहित्य के अध्ययन से जीवन की दिशा ही बदल गयी। स्वाध्याय एक ऐसा माध्यम है, जो एकान्त के क्षणों में हमें अकेलापन महसूस नहीं होने देता और एक सच्चे मित्र की भाँति सदैव साथ देता है तथा मार्ग-दर्शन करता है।
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