________________
२४८
जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
यह भी सही है कि कभी-कभी दैशिक और कालिक परिस्थितियों तथ्य को हम उसका साधना बना लेते हैं। उदाहरण के लिए जब हमें में इतना असाधारण और कुछ स्थायी परिवर्तन हो जाता है कि जिसके जीवन-रक्षण हो एकमात्र मूल्य प्रतीत होता है तो उस अवस्था में हम कारण मूल्यों का मूल्यांतरण आवश्यक हो जाता है। किन्तु इसमें जिन हिंसा, असत्य-भाषण, चोरी आदि को अनैतिक नहीं मानते हैं। इस मूल्यों का परिवर्तन होता है, वे मुख्यत: साधन-मूल्य होते हैं। क्योंकि प्रकार अपवाद में एक साधन मूल्य साध्य स्थान पर चला जाता है साधन-मूल्य आचरण से सम्बन्धित होते हैं और आचरण परिस्थिति-निरपेक्ष और अपने साधनों को मूल्यवत्ता प्रदान करता प्रतीत होता है, किन्तु नहीं हो सकता, अत: उसमें परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ परिवर्तन यह मूल्य भ्रम ही है। उस समय भी चोरी या हिंसा मूल्य नहीं बन होता रहा है। दूसरे, व्यक्ति को समाज में जीवन जीना होता है और जाते हैं क्योंकि उनका स्वत: कोई मूल्य नहीं है, वे तो उस साध्य समाज परिस्थिति-निरपेक्ष नहीं होता है, अत: सामाजिक-नैतिकता की मूल्यवत्ता के कारण मूल्य के रूप में प्रतीत या आभाषित होई अपरिवर्तनीय नहीं कही जा सकती। उसमें देशकालगत परिवर्तनों का हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि अहिंसा के स्थान पर हिंसा प्रभाव पड़ता है किन्तु उसकी यह परिवर्तनशीलता देशकाल-सापेक्ष या सत्य के स्थान पर असत्य नैतिक मूल्य भी बन जाते हैं। साधु होती है, इसमें मुख्यत: मात्र मूल्यों का संक्रमण या पदक्रम परिवर्तन पुरुष की रक्षा के लिए दुष्टजन की हिंसा की जा सकती है, किन्तु होता है। अपवाद की स्थिति इन सामान्य परिवर्तनों से भिन्न प्रकार इससे हिंसा मूल्य नहीं बन जाती है। किसी प्रत्यय की नैतिक की होती है, उसमें कभी-कभी मूल्य का विरोधी तत्त्व ही मूल्यवान मूल्यवत्ता उसके किसी परिस्थिति विशेष में आचारित होने या नहीं प्रतीत होने लगता है।
होने से अप्रभावित भी रह सकती है। प्रथम तो यह कि अपवाद की
मूल्यवत्ता केवल उस परिस्थिति विशेष में ही होती है, उसके आधार क्या आपद्धर्म नैतिक-मूल्यों की परिवर्तनशीलता का सूचक है? पर जीवन का कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता। साथ ही
क्या अपवाद की स्वीकृति नैतिक मूल्य की मूल्यवत्ता को ही जब व्यक्ति आपद्धर्म का आचरण करता है तब भी उसकी दृष्टि में निरस्त कर देती है? यह सत्य है कि किसी परिस्थिति विशेष में सामान्य मूल नैतिक नियम की मूल्यवत्ता अक्षुण्ण बनी रहती है। यह तो रूप में स्वीकृत मूल्य के विरोधी मूल्य की सिद्धि नैतिक हो जाती परिस्थितिगत या व्यक्तिगत विवशता है, जिसके कारण उसे वह आचरण है। महाभारत में कहा गया है
करना पड़ रहा है। दूसरे सार्वभौम नियम में और अपवाद में अन्तर स एव धर्मः सोऽधों देश-काले प्रतिष्ठितः।
है। अपवाद की यदि कोई मूल्यवत्ता है, तो वह केवल विशिष्ट आदानमनृतं हिंसा धर्मोह्यावस्थिकः स्मृतः ।।
परिस्थिति में ही रहती है, जबकि सामान्य नियम की मूल्यवत्ता । अर्थात् कभी ऐसी स्थिति आ जाती है कि जब हिंसा, झूठ तथा सार्वदेशिक है, सार्वकालिक और सर्वजनीन होती है। अत: आपद्धर्म चौर्य कर्म ही धर्म हो जाते हैं। प्राचीनतम जैन आगम आचाराङ्ग में की स्वीकृति मूल्य-परिवर्तन की सूचक नहीं है। वह सामान्यतया भी कहा गया है
किसी मूल्य को न तो निर्मूल्य करती है और न मूल्य-संस्थान में उसे जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा।। अपने स्थान से पदच्युत ही करती है। अत: वह मूल्यान्तरण भी
जो आस्रव (पाप) के स्थान होते हैं, वे संवर (धर्म) के स्थान नहीं है। हो जाते हैं और जो संवर के स्थान होते हैं वे ही आस्रव (पाप) के नैतिक कर्म के दो पक्ष होते हैं- एक बाह्य पक्ष, जो आचरण स्थान हो जाते हैं। किन्तु यह परिवर्तन साधन-मूल्यों का ही होता है। के रूप में होता है और दूसरा आन्तरिक पक्ष, जो कर्ता के मनोभावों आपद्धर्म में कोई एक साध्य इतना प्रधान हो जाता है कि उसकी सिद्धि के रूप में होता है। आपद्धर्म का सम्बन्ध केवल बाह्य पक्ष से होता के लिए किसी दूसरे मूल्य का निषेध आवश्यक हो जाता है। जैसे है, अत: उससे किसी नैतिक मूल्य की मूल्यवत्ता प्रभावित नहीं होती। अन्याय के प्रतिकार के लिए हिंसा अथवा शरीररक्षण या दूसरों के मात्र कर्म का बाह्य पक्ष उसे नैतिक-मूल्य प्रदान नहीं करता है। जीवन-रक्षण के लिए चोरी आवश्यक हो जाती है। मान लीजिये देश में अकाल की स्थिति के कारण हजारों लोग मृत्यु के ग्रास बन रहे नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता का मूल्याङ्कन हों, दूसरी ओर कुछ लोगों ने अधिक मुनाफा कमाने के लिए अनाज नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता के सम्बन्ध में हमें जान डिर्वी को गोदामों मे बन्द कर रखा हो। ऐसी स्थिति में जनजीवन की रक्षा का दृष्टिकोण अधिक संगतिपूर्ण जान पड़ता है। वे यह मानते हैं कि के लिए हिंसा या चोरी भी मूल्य बन जाती है और अहिंसा या आचौर्य वे परिस्थितियाँ, जिसमें नैतिक-आदर्शों की सिद्धि की जाती है, सदैव के मूल्यों का निषेध आवश्यक लगता है। किन्तु यह निषेध परिस्थिति- परिवर्तनशील है और नैतिक नियमों, नैतिक कर्तव्यों और नैतिक विशेष तक सीमित रहता है। उस परिस्थिति के सामान्य होने पर पुनः मूल्याङ्कनों के लिए इन परिवर्तनशील परिस्थितियों के साथ समायोजन धर्म, धर्म बन जाता है और अधर्म अधर्म बन जाता है। वस्तुतः करना आवश्यक होता है, किन्तु यह मान लेना मूर्खतापूर्ण ही होगा आपवादिक अवस्था में कोई एक मूल्य इतना प्रधान प्रतीत होता है कि नैतिक सिद्धान्त इतने परिवर्तनशील हैं कि किसी सामाजिक स्थिति कि उसकी उपलब्धि के लिए हम अन्य मूल्यों की उपेक्षा कर देते में उनमें कोई नियामक शक्ति ही नहीं होती है। शुभ की विषयवस्तु हैं, अथवा कभी-कभी सामान्य रूप से स्वीकृत उसी मूल्य के विरोधी बदल सकती है किन्तु शुभ का आकार नहीं। दूसरे शब्दों में नैतिकता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org