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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
१३ का उल्लेख किया है, यह उनकी भ्रान्ति है। वास्तविकता तो यह है की वाचना के समय द्वादश अङ्गों को ही व्यवस्थित करने का प्रयत्न कि माथुरी वाचना का नेतृत्व आर्य स्कन्दिल और वल्लभी की हुआ था। उसमें एकादश अङ्ग सुव्यवस्थित हुए और बारहवें दृष्टिवाद, प्रथम वाचना का नेतृत्व आर्य नागार्जुन कर रहे थे और ये दोनों जिसमें अन्य दर्शन एवं महावीर के पूर्व पार्श्वनाथ की परम्परा का साहित्य समकालिक थे, यह बात हम नन्दीसूत्र के प्रमाण से पूर्व में ही कह समाहित था, इसका सङ्कलन नहीं किया जा सका। इसी सन्दर्भ में चुके हैं। यह स्पष्ट है कि आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन की वाचना स्थूलिभद्र के द्वारा भद्रबाहु के सानिध्य में नेपाल जाकर चतुर्दश पूर्वो में मतभेद था।
के अध्ययन की बात कही जाती है। किन्तु स्थूलिभद्र भी मात्र दस पं०कैलाशचन्द्रजी ने यह प्रश्न उठाया है कि यदि वल्लभी वाचना पूर्वो का ही ज्ञान अर्थ सहित ग्रहण कर सके, शेष चार पूर्वो का केवल नागार्जुन की थी तो देवर्धि ने वल्लभी में क्या किया? साथ ही उन्होंने शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर सके। इसका फलितार्थ यही है कि पाटलीपुत्र यह भी कल्पना कर ली कि वादिवेतालशान्तिसूरि वल्लभी की वाचना की वाचना में एकादश अङ्गों का ही सङ्कलन और सम्पादन हुआ था। में नागार्जुनीयों का पक्ष उपस्थित करने वाले आचार्य थे। हमारा यह किसी भी चतुर्दश पूर्वविद् की उपस्थिति नहीं होने से दृष्टिवाद के दुर्भाग्य है कि दिगम्बर विद्वानों ने श्वेताम्बर साहित्य का समग्र एवं सङ्कलन एवं सम्पादन का कार्य नहीं किया जा सका। निष्पक्ष अध्ययन किये बिना मात्र यत्र-तत्र उद्धृत या अंशत: पठित उपाङ्ग साहित्य के अनेक ग्रन्थ जैसे प्रज्ञापना आदि, छेदसूत्रों अंशों के आधार पर अनेक भ्रान्तियाँ खड़ी कर दी। इसके प्रमाण के में आचारदशा, कल्प, व्यवहार आदि तथा चूलिकासूत्रों में नन्दी, रूप में उनके द्वारा उद्धृत मूल गाथा में ऐसा कहीं कोई उल्लेख ही अनुयोगद्वार आदि- ये सभी परवर्ती कृति होने से इस वाचना में नहीं है कि शान्तिसूरि वल्लभी वाचना के समकालिक थे। यदि हम सम्मिलित नहीं किये गये होंगे। यद्यपि आवश्यक, दशवैकालिक, आगमिक व्याख्याओं को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि अनेक वर्षों उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थ पाटलीपुत्र की वाचना के पूर्व के हैं, किन्तु तक नागार्जुनीय और देवर्धि की वाचनाएँ साथ-साथ चलती रही हैं, इस वाचना में इनका क्या किया गया, यह जानकारी प्राप्त नहीं है। क्योकि इनके पाठान्तरों का उल्लेख मूल ग्रन्थों में कम और टीकाओं हो सकता है कि सभी साधु-साध्वियों के लिये इनका स्वाध्याय आवश्यक में अधिक हुआ है।
होने के कारण इनके विस्मृत होने का प्रश्न ही न उठा हो।
पाटलीपुत्र वाचना के बाद दूसरी वाचना उड़ीसा के कुमारी पर्वत पञ्चम वाचना
(खण्डगिरि) पर खारवेल के राज्य काल में हई थी। इस वाचना के वी.नि. के ९८० वर्ष पश्चात् ई. सन् की पाँचवीं शती के उत्तरार्द्ध सम्बन्ध में मात्र इतना ही ज्ञात है कि इसमें भी श्रुत को सुव्यवस्थित में आर्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना और आर्य नागार्जुन की वल्लभी करने का प्रयत्न किया गया था। सम्भव है कि इस वाचना में ई.पू. वाचना के लगभग १५० वर्ष पश्चात् देवर्धिगणिक्षमाश्रमण की अध्यक्षता प्रथम शती से पूर्व रचित ग्रन्थों के सङ्कलन और सम्पादन का कोई में पुन: वल्लभी में एक वाचना हुई। इस वाचना में मुख्यत: आगमों प्रयत्न किया गया हो। को पुस्तकारुढ़ करने का कार्य किया गया। ऐसा लगता है कि इस जहाँ तक माथुरी वाचना का प्रश्न है, इतना तो निश्चित है कि वाचना में माथुरी और नागार्जुनीय दोनों वाचनाओं को समन्वित किया उसमें ई.सन् की चौथी शती तक के रचित सभी ग्रन्थों के सङ्कलन गया है और जहाँ मतभेद परिलक्षित हुआ वहाँ “नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' एवं सम्पादन का प्रयत्न किया गया होगा। इस वाचना के कार्य के ऐसा लिखकर नागार्जुनीय पाठ को भी सम्मिलित किया गया है। सन्दर्भ में जो सूचना मिलती है, उसमें इस वाचना में कालिकसूत्रों
प्रत्येक वाचना के सन्दर्भ में प्राय: यह कहा जाता है कि मध्यदेश को व्यवस्थित करने का निर्देश है। नन्दिसूत्र में कालिकसूत्र को अङ्गबाह्य, में द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण श्रमणसंघ समुद्रतटीय प्रदेशों की आवश्यक व्यतिरिक्त सूत्रों का ही एक भाग बताया गया है। कालिकसूत्रों
ओर चला गया और वृद्ध मुनि, जो इस अकाल में लम्बी यात्रा न के अन्तर्गत उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशाश्रुत, कल्प, व्यवहार, कर सके कालगत हो गये। सुकाल होने पर जब मुनिसंघ लौटकर निशीथ तथा वर्तमान में उपाङ्ग के नाम से अभिहित अनेक ग्रन्थ आते आया तो उसने यह पाया कि इनके श्रुतज्ञान में विस्मृति और विसंगति हैं। हो सकता है कि अङ्ग सूत्रों की जो पाटलीपुत्र की वाचना चली आ गयी है। प्रत्येक वाचना से पूर्व अकाल की यह कहानी मुझे बुद्धिगम्य । आ रही थी वह मथुरा में मान्य रही हो, किन्तु उपाङ्गों में से कुछ नहीं लगती है। मेरी दृष्टि में प्रथम वाचना में श्रमण संघ के विशृङ्खलित को तथा कल्प आदि छेदसूत्रों को सुव्यवस्थित किया गया हो। किन्तु होने का कारण अकाल की अपेक्षा मगध राज्य में युद्ध से उत्पन्न अशांति यापनीय ग्रन्थों की टीकाओं में जो माथुरी वाचना के आगमों के उद्धरण
और अराजकता ही थी क्योंकि उस समय नन्दों के अत्याचारों एवं मिलते हैं, उन पर जो शौरसेनी का प्रभाव दिखता है, उससे ऐसा चन्द्रगुप्त मौर्य के आक्रमण के कारण मगध में अशांति थी। उसी के लगता है कि माथुरी वाचना में न केवल कालिक सूत्रों का अपितु फलस्वरूप श्रमण संघ सुदूर समुद्रीतट की ओर या नेपाल आदि पर्वतीय उस काल तक रचित सभी ग्रन्थों के सङ्कलन का काम किया गया क्षेत्र की ओर चला गया था। भद्रबाहु की नेपाल यात्रा का भी सम्भवत: था। ज्ञातव्य है कि यह माथुरी वाचना अचेलता की पोषक यापनीय यही कारण रहा होगा।
परम्परा में भी मान्य रही है। यापनीय ग्रन्थों की व्याख्याओं एवं टीकाओं __ जो भी उपलब्ध साक्ष्य हैं उनसे यह फलित होता है कि पाटलिपुत्र में इस वाचना के आगमों के अवतरण तथा इन आगमों के प्रामाण्य
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