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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ प्राचीन अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु लुप्त हो गयी अथवा उसकी प्राचीन यापनीय और श्वेताम्बरों का भेद होने तक स्थानांग में उल्लिखित सामग्री विषयवस्तु सप्रयोजन वहाँ से अलग कर दी गई।
अन्तकृद्दशा में प्रचलित रही हो और तत्सम्बन्धी जानकारी अनुश्रुति मेरी मान्यता यह है कि विषयवस्तु का यह परिवर्तन विस्मृति के माध्यम से तत्त्वार्थवार्तिककार तक पहुँची हो। तत्त्वार्थवार्तिककार के कारण नहीं, परन्तु सप्रयोजन ही हुआ है। अन्तकृद्दशा की प्राचीन को भी कुछ नामों के सम्बन्ध में अवश्य ही भ्रान्ति है, अगर उसके विषयवस्तु में जिन दस व्यक्तित्वों के चरित्र का चित्रण किया गया था सामने मूलग्रन्थ होता तो ऐसी भ्रान्ति की सम्भावना नहीं रहती। जमाली उनमें निश्चित रूप से मातंग, अम्बड, रामपुत्त, भयाली (भगाली), जमाली का तो संस्कृत रूप यमलीक हो सकता है, किन्तु भगाली या भयाली आदि ऐसे हैं जो चाहे किसी समय तक जैन परम्परा में सम्मान्यरूप का संस्कृत रूप वलीक किसी प्रकार नहीं बनता। इसी प्रकार किंकम से रहे हों, किन्तु अब वे जैन परम्परा के विरोधी या बाहरी मान लिये का किष्कम्बल रूप किस प्रकार बना यह भी विचारणीय है। चिल्वक गये थे। जिनप्रणीत, अंगसूत्रों में उनका उल्लेख रखना समुचित नहीं या पल्लतेत्तीय के नाम का अपलाप करके पालअम्बष्ठपुत्त को भी अलगमाना गया अत: जिस प्रकार प्रश्नव्याकरण से ऋषिभाषित को ऋषियों अलग कर देने से ऐसा लगता है कि वार्तिककार के समक्ष मूल ग्रन्थ के उपदेशों से सप्रयोजन अलग किया गया उसी प्रकार अन्तकृद्दशा नहीं है, केवल अनुश्रुति के रूप में ही वह उनकी चर्चा कर रहा है। से इनके विवरण को भी सप्रयोजन अलग किया। यह भी सम्भव है जहाँ श्वेताम्बर चूर्णिकार और टीकाकार विषयवस्तु सम्बन्धी दोनों ही कि जब जैन परम्परा में श्रीकृष्ण को वासुदेव के रूप में स्वीकार कर प्रकार की विषयवस्तु से अवगत हैं वहाँ दिगम्बर आचार्यों को (मात्र लिया गया तो उनके तथा उनके परिवार से सम्बन्धित कथानकों को प्राचीन संस्करण) उपलब्ध अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु के सम्बन्ध में कहीं स्थान देना आवश्यक था। अत: अन्तकृद्दशा की प्राचीन विषयवस्तु जो कि छठी शताब्दी में अस्तित्व में आ चुकी थी, कोई जानकारी को बदल कर उसके स्थान पर कृष्ण और उनके परिवार से सम्बन्धित नहीं थी। अत: उनका आधार केवल अनुश्रुति था ग्रन्थ नहीं। जब कि पाँच वर्गों को जोड़ दिया गया।
श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों का आधार एक ओर ग्रन्थ था तो दूसरी अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु की चर्चा करते हुए सबसे महत्त्वपूर्ण ओर स्थानांग का विवरण। धवला और जयधवला में अन्तकृद्दशा सम्बन्धी तथ्य हमारे सामने यह आता है कि दिगम्बर परम्परा में अन्तकृद्दशा जो विवरण उपलब्ध है वह निश्चित रूप से तत्त्वार्थवार्तिक पर आधारित की जो विषयवस्तु तत्वार्थवार्तिक में उल्लिखित है वह स्थानांग की है। स्वयं धवलाकार वीरसेन 'उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये' कहकर उसका सूची से बहुत कुछ मेल खाती है। यह कैसे सम्भव हुआ? दिगम्बर उल्लेख करता हैं। इससे स्पष्ट है कि धवलाकार के समक्ष भी प्राचीन परम्परा जहाँ अङ्ग आगमों के लोप की बात करती है तो फिर विषयवस्तु का कोई ग्रन्थ उपस्थित नहीं था। तत्त्वार्थवार्तिककार को उसकी प्राचीन विषयवस्तु के सम्बन्ध में जानकारी अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि प्राचीन अन्तकृद्दशा कैसे हो गई। मेरी ऐसी मान्यता है कि श्वेताम्बर आगम साहित्य के की विषयवस्तु ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के पूर्व ही परिवर्तित सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा में जो कुछ जानकारी प्राप्त हुई है वह हो चुकी थी और छठी शताब्दी के अन्त तक वर्तमान अन्तकृद्दशा यापनीय परम्परा के माध्यम से प्राप्त हुई है और इतना निश्चित है कि अस्तित्व में आ चुकी थी।
सन्दर्भ : १. स्थानाङ्ग (सं० मधुकरमुनि) दशम स्थान, सूत्र ११० एवं ११३
दस दसाओ पण्णताओ, तं जहा-कम्मविवागदसाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, आयारदसाओ, पण्हावागरण- दसाओ, बंधदसाओ, दोगिद्धिदसाओ, दीहदसाओ, संखेवियदसाओ।
एवं अंतगडदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहाणमि मातंगे सोमिले, रामगुत्ते सुदंसणे चेव। जमाली य भगाली य, किंकमे चिल्लएतिय। फाले अंबडपत्ते य एमेते दस आहिता ।।
भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइं पडिमाओ बहुविहाओ, खमा अज्जवं मद्दवं च, सोअंच सच्चसहियं , सत्तरसविहो य संजमो, उत्तमं च बंभं, आकिंचणया तवो चियाओ समिइगुत्तीओ चेव, तह अपप्मायजोगो, सज्झायज्झाणाण य उत्तमाण दोणहंपि लक्खणाई। पत्ताण य संजमुत्तमं जियपरीसहाणं चउब्विहकम्मखयम्मि जह केवलस्स लंभो, परियाओ जत्तिओ य जह पालिओ मुणिहिं, पायोवग्ओ य जो जहिं, जत्तियाणि भत्ताणि छेयइत्ता अंतगडो मुणिवरो तमरयोघविप्पमुक्को, मोक्खसुहमणुत्तरं च पत्ता। एए अण्णे य एवमाइ वित्थारेणं परूवेई। अंतगडदसासु णं पस्ति वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जाओ संगहणीओ। से णं अंगट्ठयाए अट्ठमे अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा सत्त वग्गा दस उद्देसणकाला दस समुद्देसणकाला संखेज्जाई पयसयसहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा
समवायाङ्ग(सं० मधुकरमुनि) प्रकीर्णक समवाय सूत्र, ५३९-५४०। से किं तं अतंगडदसाओ? अन्तगडदसासु णं अन्तगडाणं नगराई उज्जाणाई चेइयाई वणसंडाइं रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया इडिविसेसा
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