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________________ २९० अग्रसर हो रहे थे, उनका शरीर इस भयंकर शीत के प्रकोप का सामना करने में कठिनाई का अनुभव कर रहा था। ऐसे सभी मुनियों के द्वारा यह भी सम्भव नहीं था कि वे संथारा ग्रहण कर उन शीतलहरों का सामना करते हुए अपने प्राणोत्सर्ग कर दें। ऐसे मुनियों के लिये अपवाद मार्ग के रूप में शीत-निवारण के लिये एक ऊनी वस्त्र रखने की अनुमति दी गई। ये मुनि रहते तो अचेल ही थे, किन्तु रात्रि में शीत-निवारणार्थ उस ऊनी वस्त्र (कम्बल) का उपयोग कर लेते थे। यह व्यवस्था स्थविर या वृद्ध मुनियों के लिये थी और इसलिये इसे 'स्थाविरकल्प' का नाम दिया गया। मथुरा से प्राप्त ईस्वी सन् प्रथम द्वितीय शती की जिन प्रतिमाओं की पाद पीठ पर या फलकों पर जो मुनि प्रतिमाएँ अंकित हैं वे नग्न होकर भी कम्बल और मुखवस्त्रिका लिये हुए हैं। मेरी दृष्टि में यह व्यवस्था भी आपवादिक ही था । · कर सकता था। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य स्थानांगसूत्र ( ३/३/३४७) में वस्त्रग्रहण के निम्नलिखित तीन कारणों का उल्लेख उपलब्ध होता है१. लज्जा के निवारण के लिये (लिंगोत्थान होने पर लज्जित न होना पड़े, इस हेतु) । २. जुगुप्सा (घृणा) के निवारण के लिये (लिंग या अण्डकोष विद्रूप होने पर लोग घृणा न करें, इस हेतु)। हम देखते हैं कि महावीर का जो मुनि संघ दक्षिण भारत या दक्षिण मध्य भारत में रहा उसमें अचेलता सुरक्षित रह सकी, किन्तु में आपवादिक स्थितियों का भी उल्लेख है, जिनमें मुनि वस्त्र-ग्रहण जो मुनि संघ उत्तर एवं पश्चिमोत्तर भारत में रहा उसमें शीत-प्रकोप की तीव्रता की देश-कालगत परिस्थितियों के कारण वस्त्र का प्रवेश हो गया। आज भी हम देखते हैं कि जहाँ भारत के दक्षिण और दक्षिण-मध्य क्षेत्र में दिगम्बर परम्परा का बाहुल्य है, वहाँ पश्चिमोत्तर भारत में श्वेताम्बर परम्परा का बाहुल्य है। वस्तुतः इसका कारण जलवायु ही है। दक्षिण में जहाँ शीतकाल में आज भी तापमान २५-३० डिग्री सेल्सियस से नीचे नहीं जाता, वहाँ नग्न रहना कठिन नहीं है किन्तु हिमालय के तराई क्षेत्र, पश्चिमोत्तर भारत एवं राजस्थान जहाँ तापमान शून्य डिग्री से भी नीचे चला जाता है, वहाँ शीतकाल में अचेल रहना कठिन है । पुनः एक युवा साधक को शीत सहन करने में उतनी कठिनाई नहीं होती जितनी कि वृद्ध तपस्वी साधक को । अतः जिन क्षेत्रों में शीत की अधिकता थी उन क्षेत्रों में वस्त्र का प्रवेश स्वाभाविक ही था। आचारांग में हमें ऐसे मुनियों के उल्लेख उपलब्ध हैं जो शीतकाल में सर्दी से घर-थर कांपते थे। जो लोग उनके आचार ( अर्थात् आग जलाकर शीत निवारण करने के निषेध) से परिचित नहीं थे, उन्हें यह शंका भी होती थी कि कहीं उनका शरीर कामावेग में तो नहीं काँप रहा है। यह ज्ञात होने पर कि इनका शरीर सर्दी से काँप रहा है, कभी-कभी वे शरीर को तपाने के लिये आग जला देने को कहते थे, जिसका उन मुनियों को निषेध करना होता था । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र - प्रवेश के लिये उत्तर भारत की भयंकर सर्दी भी एक मुख्य कारण रही है। ३. परीषह (शीत परीषह) के निवारण के लिये । स्थानांगसूत्र में वर्णित उपर्युक्त तीन कारणों में प्रथम दो का समावेश लोक-लज्जा में हो जाता है, क्योंकि जुगुप्सा का निवारण भी एक प्रकार से लोक-लज्जा का निवारण ही है। दोनों में अन्तर यह है कि लज्जा का भाव स्वतः में निहित होता है और घृणा दूसरों के द्वारा की जाती है, किन्तु दोनों का उद्देश्य लोकापवाद से बचना है। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में मान्य, किन्तु मूलतः यापनीय अन्य भगवती आराधना (७६) की टीका में निम्नलिखित तीन आपवादिक स्थितियों में वस्त्र ग्रहण की स्वीकृति प्रदान की गयी है- १. जिसका लिंग (पुरुष चिह्न) एवं अण्डकोष विद्रुप हो । २. जो महान् सम्पत्तिशाली अथवा लज्जालु हो । ३. जिसके स्वजन मिथ्यादृष्टि हों । ४. महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र के प्रवेश का चौथा कारण पार्श्व की परम्परा के मुनियों का महावीर की परम्परा में सम्मिलित होना भी है। यह स्पष्ट है कि पार्श्व की परम्परा के मुनि सचेल होते थे। वे अधोवस्त्र और उत्तरीय दोनों ही धारण करते थे। हमें सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती, राजमश्नीय आदि में न केवल पार्श्व की परम्परा के मुनियों के उल्लेख मिलते हैं अपितु उनके द्वारा महावीर के संघ में पुनः दीक्षित होने के सन्दर्भ भी मिलते हैं इन सन्दर्भों का सूक्ष्मता से विश्लेषण करने पर यह ज्ञात होता है कि पार्श्व की परम्परा के यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में निर्धन्य संघ में मुनि के लिये वस्त्र प्रहण एक आपवादिक व्यवस्था ही थी उत्सर्ग या श्रेष्ठ मार्ग तो अचेलता को ही माना गया था। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य आचारांग, स्थानांग और उत्तराध्ययन में न केवल मुनि की अचेलता के प्रतिपादक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं अपितु अचेलता की प्रशंसा भी उपलब्ध होती है। उनमें भी वस्त्र ग्रहण की अनुमति मात्र लोक-लज्जा के निवारण और शीत-निवारण के लिये ही है। आचारांग में चार प्रकार के मुनियों के उल्लेख है- १. अचेल २. एक वस्त्रधारी ३. दो वस्त्रधारी, ४. तीन वस्त्रधारी । १. इनमें अचेल तो सर्वथा नग्न रहते थे। ये जिनकल्पी जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ Jain Education International कुछ मुनियों ने तो महावीर की परम्परा में सम्मिलित होते समय अचेलकत्व ग्रहण किया, किन्तु कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अचेलता को ग्रहण नहीं किया। सम्भव है कुछ पार्श्वापत्यों को सचेल रहने की अनुमति देकर सामायिक चारित्र के साथ महावीर के संघ में सम्मिलित किया गया होगा। इस प्रकार महावीर के जीवनकाल में या उसके कुछ पश्चात् निर्मन्थ संघ में सचेल अचेल दोनों प्रकार की एक मिली-जुली व्यवस्था स्वीकार कर ली गयी थी और पार्श्व की परम्परा में प्रचलित सचेलता को भी मान्यता प्रदान कर दी गयी। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि महावीर के निर्मन्य संघ में प्रारम्भ में तो मुनि की अचेलता पर ही बल दिया गया था, किन्तु कालान्तर में लोक-लज्जा और शीत परीषद से बचने के लिये आपवादिक रूप में वस्त्र ग्रहण को मान्यता प्रदान कर दी गयी। श्वेताम्बर मान्य आगमों और दिगम्बरों द्वारा मान्य यापनीय ग्रन्थों For Private & Personal Use Only , www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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