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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
निवर्तक एवं प्रवर्तक धर्मों के दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय तनावों का निराकरण कर चैतसिक शांति या समाधि को प्राप्त करने का
प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों का विकास भिन्न-भिन्न मनोवैज्ञानिक प्रयास किया। जहाँ प्रारम्भिक वैदिक धर्म प्रवृत्तिप्रधान रहा वहीं प्रारम्भिक आधारों पर हुआ था, अत: यह स्वाभाविक था कि उनके दार्शनिक एवं श्रमण परम्पराएं निवृत्तिप्रधान रही। किन्तु एक ओर वासनाओं की सांस्कृतिक प्रदेय भिन्न-भिन्न हों। प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों के इन
सन्तुष्टि के प्रयास में चित्तशांति या समाधि सम्भव नहीं हो सकी, प्रदेयों और उनके आधार पर उनमें रही हुई पारस्परिक भिन्नता को निम्न
क्योंकि नई-नई इच्छाएँ आकांक्षाएँ और वासनाएँ जन्म लेती रहीं; तो
दूसरी ओर वासनाओं के दमन के भी चित्तशांति सम्भव न हो सकी, सारिणी से स्पष्टतया समझा जा सकता है
क्योंकि दमित वासनाएँ अपनी पूर्ति के लिए चित्त की समाधि भंग प्रवर्तक धर्म (दार्शनिक प्रदेय) निवर्तक धर्म (दार्शनिक प्रदेय) करती रहीं। इसका विपरीत परिणाम यह हुआ कि एक ओर प्रवृत्तिमार्गी १. जैविक मूल्यों की प्रधानता १. आध्यात्मिक मूल्यों की प्रधानता परम्परा में व्यक्ति ने अपनी भौतिक और लौकिक एषणाओं की पूर्ति के २. विधायक जीवनदृष्टि
२. निषेधक जीवनदृष्टि ३. समष्टिवादी
लिए दैविक शक्तियों की सहायता पाने हेतु कर्मकाण्ड का एक जंजाल ३. व्यष्टिवादी ४. व्यवहार में कर्म पर बल
व्यवहार में नैष्कर्म्यता का समर्थन खड़ा कर लिया तो दूसरी ओर वासनाओं के दमन के लिए देहदण्डनरूपी फिर भी दैवीय कृपा के
फिर भी तपस्या पर बल देने से तप साधनाओं का वर्तुल खड़ा हो गया। एक के लिए येन-केन प्रकारेण आकांक्षी होने से भाग्यवाद दृष्टि पुरुषार्थवादी
वैयक्तिक हितों की पूर्ति या वासनाओं की संतुष्टि ही वरेण्य हो गई तो एवं नियतिवाद का समर्थन
अनीश्वरवादी ५. इश्वरवादी
६. वैयक्तिक प्रयासों पर विश्वास, दूसरे के लिए जीवन का निषेध अर्थात् देहदण्डन ही साधना का लक्ष्य ६. ईश्वरीय कृपा पर विश्वास
कर्मसिद्धान्त का समर्थन
बन गया। वस्तुतः इन दोनों अतिवादों के समन्वय के प्रयास में ही एक ७ साधना के बाह्य साधनों पर बल ७. आन्तरिक विशुद्धता पर बल ८. जीवन का लक्ष्य स्वर्ग एवं ईश्वर ८. जीवन का लक्ष्य मोक्ष एवं निर्वाण
ओर जैन, बौद्ध आदि विकसित श्रमणिक साधना विधियों का जन्म के सान्निध्य की प्राप्ति। की प्राप्ति
हुआ तो दूसरी ओर औपनिषदिक् चिन्तन से लेकर सहजभक्तिमार्ग और ..(सांस्कृतिक प्रदेय)
(सांस्कृतिक प्रदेय)
तंत्र साधना तक का विकास भी इसी के निमित्त से हुआ। 'तेन त्यक्तेन ९. वर्ण व्यवस्था और जातिवाद का | ९. जातिवाद का विरोध, वर्णव्यवस्था जन्मना आधार पर समर्थन का केवल कर्मणा आधार पर समर्थन
भुञ्जीथा' का जो समन्वयात्मक स्वर औपनिषदिक ऋषियों ने दिया था, १०. गृहस्थ जीवन की प्रधानता १०. संन्यास की प्रधानता
परवर्ती समस्त हिन्दू साधना और उसकी तांत्रिक विधियाँ उसी के ११. सामाजिक जीवन-शैली ११. एकाकी जीवन-शैली
परिणाम हैं। फिर भी प्रवृत्ति और निवृत्ति के पक्षों का समुचित सन्तुलन १२. राजतन्त्र का समर्थन १२. जनतन्त्र का समर्थन
स्थिर नहीं रह सका। इनमें किसे प्रमुखता दी जाय, इसे लेकर उनकी प्रवर्तक धर्मों में प्रारम्भ में जैविक मूल्यों की प्रधानता रही, साधना-विधियों में अन्तर भी आया। वेदों में जैविक आवश्यकतओं की पूर्ति से सम्बन्धित प्रार्थनाओं के स्वर जैनों ने यद्यपि निवृत्तिप्रधान जीवनदृष्टि का अनुसरण तो अधिक मुखरित हुए हैं। उदाहरणार्थ- हम सौ वर्ष जीवें, हमारी सन्तान किया, किन्तु परवर्ती काल में उसमें प्रवृत्तिमार्ग के तत्त्व समाविष्ट होते बलिष्ठ होवें, हमारी गायें अधिक दूध देवें, वनस्पतियाँ प्रचुर मात्रा में गए। न केवल साधना के लिए जीवन रक्षण के प्रयत्नों का औचित्य हों आदि। इसके विपरीत निवर्तक धर्म ने जैविक मूल्यों के प्रति एक स्वीकार किया गया, अपितु ऐहिक-भौतिक कल्याण के लिए भी निषेधात्मक रुख अपनाया, उन्होंने सांसारिक जीवन की दुःखमयता का तांत्रिक साधना की जाने लगी। राग अलापा। उनकी दृष्टि में शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दुःखों का सागर। उन्होंने संसार और शरीर दोनों से ही मुक्ति को क्या जैन धर्म जीवन का निषेध सिखाता है? जीवन-लक्ष्य माना। उनकी दृष्टि में दैहिक आवश्यकताओं का निषेध, सामान्यतया यह माना जाता है कि तंत्र की जीवनदृष्टि ऐहिक अनासक्ति, विराग और आत्मसन्तोष ही सर्वोच्च जीवन मूल्य हैं। जीवन को सर्वथा वरेण्य मानती है, जबकि जैनों का जीवनदर्शन
एक ओर जैविक मूल्यों की प्रधानता का परिणाम यह हुआ निषेधमूलक है। इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जैन धर्मकि प्रवर्तक धर्म में जीवन के प्रति एक विधायक दृष्टि का निर्माण हुआ दर्शन तंत्र का विरोधी है, किन्तु जैन दर्शन के सम्बन्ध में यह एक भ्रान्त तथा जीवन को सर्वतोभावेन वाञ्छनीय और रक्षणीय माना गया; तो धारणा ही होगी। जैनों ने मानव जीवन को जीने के योग्य एवं सर्वथा दूसरी ओर जैविक मूल्यों के निषेध से जीवन के प्रति एक ऐसी वरेण्य माना है। उनके अनुसार मनुष्य जीवन ही तो एक ऐसा जीवन है निषेधात्मक दृष्टि का विकास हुआ जिसमें शारीरिक माँगों को ठुकराना जिसके माध्यम से व्यक्ति विमुक्ति के पथ पर आरूढ़ हो सकता है। ही जीवन लक्ष्य मान लिया गया और देह-दण्डन ही तप-त्याग और आध्यात्मिक विकास की यात्रा का प्रारम्भ और उसकी पूर्णता मनुष्य अध्यात्म के प्रतीक बन गये। यद्यपि इन दोनों साधना- पद्धतियों का जीवन से ही संभव है। अत: जीवन सर्वतोभावेन रक्षणीय है। उसमें मूलभूत लक्ष्य तो चैतसिक और सामाजिक स्तर पर शांति ही स्थापना 'शरीर' को संसार समुद्र में तैरने की नौका कहा गया है और नौका की की रहा है किन्तु उसके लिए उनकी व्यवस्था या साधना-विधि भिन्न- रक्षा करना पार जाने के इच्छुक व्यक्ति का अनिवार्य कर्तव्य है। इसी भिन्न रही है। प्रवृत्तिमार्गी परम्परा का मूलभूत लक्ष्य यही रहा है कि स्वयं प्रकार उसका अहिंसा का सिद्धान्त भी जीवन की रक्षणीयता पर के प्रयत्न एवं पुरुषार्थ से अथवा उनके असफल होने पर दैवीय सर्वाधिक बल देता है। शक्तियों के सहयोग से जैविक आवश्यकताओं एवं वासनाओं की पूर्ति वह न केवल दूसरों के जीवन के रक्षण की बात करता है करके चैतसिक शांति का अनुभव किया जाय। दूसरी ओर निवृत्तिमार्गी अपितु वह स्वयं के जीवन के रक्षण की भी बात करता है। उसके परम्पराओं ने वासनाओं की सन्तुष्टि को विवेक की उपलब्धि के मार्ग अनुसार स्व की हिंसा दूसरों की हिंसा से भी निकृष्ट है। अत: जीवन में बाधक समझा और वासनाओं के दमन के माध्यम से वासनाजन्य चाहे अपना हो या दूसरों का वह सर्वतोभावेन रक्षणीय है। यद्यपि इतना
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