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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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जिन-प्रणीत नहीं कहा जा सकता है। जैन खगोल व भूगोल सम्बन्धी और भारतीय इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्त्व है। फिर भी हमें यह जो अवधारणायें उपलब्ध हैं, उनका आगमिक आधार चन्द्रप्रज्ञप्ति, स्मरण रखना होगा कि आगमों के नाम पर हमारे पास जो कुछ उपलब्ध सूर्यप्रज्ञप्ति एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, जिन्हें वर्तमान में उपांग के रूप में है, उसमें पर्याप्त विस्मरण, परिवर्तन, परिवर्धन और प्रक्षेपण भी हआ मान्य किया जाता है, किन्तु नन्दीसूत्र की सूची के अनुसार ये ग्रन्थ है। अत: इस तथ्य को स्वयं अन्तिम वाचनाकार देवर्द्धि ने भी स्वीकार आवश्यक व्यतिरिक्त अंग बाह्य आगमों में परिगणित किये जाते हैं। किया है। अत: आगम वचनों में कितना अंश जिन वचन है- इस परम्परागत दृष्टि से अंग-बाह्य आगमों के उपदेष्टा एवं रचयिता जिन न सम्बन्ध में पर्याप्त समीक्षा, सतर्कता और सावधानी आवश्यक है। होकर स्थविर ही माने गये हैं और इससे यह फलित होता है कि ये आज दो प्रकार की अतियाँ देखने में आती है- एक अति । ग्रन्थ सर्वज्ञ प्रणीत न होकर छद्यस्थ जैन आचार्यों द्वारा प्रणीत हैं। अत: यह है कि चाहे पन्द्रहवीं शती के लेखक ने महावीर-गौतम के संवा यदि इनमें प्रतिपादित तथ्य आधुनिक विज्ञान के प्रतिकूल जाते हैं, तो के रूप में किसी ग्रन्थ की रचना की हो, उसे भी बिना समीक्षा के जिन उससे. सर्वज्ञ की सर्वज्ञता पर आँच नहीं आती है। हमें इस भय का वचन के रूप में मान्य किया जा रहा है और उसे ही चरम सत्य माना परित्याग कर देना चाहिए कि यदि हम खगोल एवं भूगोल के सम्बन्ध जाता है- दूसरी ओर सम्पूर्ण आगम साहित्य को अन्धविश्वास में आधुनिक वैज्ञानिक गवेषणाओं को मान्य करेंगे तो उससे जिन की कहकर नकारा जा रहा है। आज आवश्यकता है नीर-क्षीर बुद्धि से सर्वज्ञता पर कोई आंच आयेगी। यहाँ यह भी स्मरण रहे कि सर्वज्ञ या आगम-वचनों की समीक्षा करके मध्यम मार्ग अपनाने की। जिन केवल उपदेश देते हैं ग्रन्थ लेखन का कार्य तो उनके गणधर या
आज न तो विज्ञान ही चरम सत्य है और न आगम के नाम अन्य स्थविर आचार्य ही करते हैं। साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए पर जो कुछ है वही चरम सत्य है। आज न तो आगमों को नकारने से कि सर्वज्ञ के लिए उपदेश का विषय तो अध्यात्म व आचारशास्त्र ही कुछ होगा और न वैज्ञानिक सत्यों को नकारने से। विज्ञान और आगम होता है खगोल व भूगोल उनके मूल प्रतिपाद्य नहीं है। खगोल व के सन्दर्भ में आज एक तटस्थ समीक्षक बुद्धि की आवश्यकता है। भूगोल सम्बन्धी जो अवधारणायें जैन परम्परा में मिलती हैं वह थोड़े
जैन सृष्टिशास्त्र और जैन खगोल-भूगोल में भी, जहाँ तक अन्तर के साथ समकालिक बौद्ध एवं हिन्दू परम्परा में भी पायी जाती सृष्टिशास्त्र का सम्बन्ध है, वह आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणाओं के हैं। अत: यह मानना ही उचित होगा कि खगोल एवं भूगोल सम्बन्धी साथ एक सीमा तक संगति रखता है। जैन सृष्टिशास्त्र के अनुसार
जैन मान्यताएँ आज यदि विज्ञान-सम्मत सिद्ध नहीं होती हैं तो उससे सर्वप्रथम इस जगत् को अनादि और अनन्त माना गया है, किन्तु उसमें न तो सर्वज्ञ की सर्वज्ञता पर आँच आती है और न जैन धर्म की जगत् की अनादि अनन्तता उसके प्रवाह की दृष्टि से है। इसे अनादि आध्यात्मशास्त्रीय, तस्वमीमांसीय एवं आचारशास्त्रीय अवधारणाओं अनन्त इसलिए कहा जाता है कि कोई भी काल ऐसा नहीं था जब सृष्टि पर कोई खरोंच आती है। सूर्यप्रज्ञप्ति जैसा ग्रन्थ जिसमें जैन आचारशास्त्र नहीं थी या नहीं होगी। प्रवाह की दृष्टि से जगत् अनादि-अनन्त होते और उसकी अहिंसक निष्ठा के विरुद्ध प्रतिपादन पाये जाते हैं, किसी हुए भी इसमें प्रतिक्षण उत्पत्ति और विनाश अर्थात् सृष्टि और प्रलय का भी स्थिति में सर्वज्ञ प्रणीत नहीं माना जा सकता है। जो लोग खगोल- क्रम भी चलता रहता है, दूसरे शब्दों में यह जगत् अपने प्रवाह की भूगोल सम्बन्धी वैज्ञानिक तथ्यों को केवल इसलिए स्वीकार करने से अपेक्षा से शाश्वत होते हुए भी इसमें सृष्टि एवं प्रलय होते रहते हैं कतराते हैं कि इससे सर्वज्ञ की अवहेलना होगी, वे वस्तुत: जैन क्योंकि जो भी उत्पन्न होता है उसका विनाश अपरिहार्य है। फिर भी आध्यात्मशास्त्र के रहस्यों से या तो अनभिज्ञ हैं या उनकी अनुभूति से इसका सृष्टा या कर्ता कोई भी नहीं है। यह सब प्राकृतिक नियम से ही रहित हैं। क्योंकि हमें सर्वप्रथम तो यह स्मरण रखना होगा कि जो शासित है। यदि वैज्ञानिक दृष्टि से इस पर विचार करें तो विज्ञान को आत्म द्रष्टा सर्वज्ञ प्रणीत हैं ही नहीं उसके अमान्य होने से सर्वज्ञ की भी इस तथ्य को स्वीकार करने में आपत्ति नहीं है कि यह विश्व अपने सर्वज्ञता कैसे खण्डित हो सकती है? आचार्य कुन्दकुन्द ने तो स्पष्ट मूल तत्त्व या मूल घटक की दृष्टि से अनादि-अनन्त होते हुए भी इसमें रूप से कहा है कि सर्वज्ञ आत्मा को जानता है, यही यथार्थ/सत्य है। सृजन और विनाश की प्रक्रिया सतत् रूप से चल रही है। यहाँ तक सर्वज्ञ बाह्य जगत् को जानता है यह केवल व्यवहार है। भगवतीसूत्र का विज्ञान व जैनदर्शन दोनों साथ जाते हैं। दोनों इस संबंध में भी एक मत यह कथन भी कि 'केवली सिय जाणइ सिय ण जाणइ'- इस सत्य हैं कि जगत् का कोई सृष्टा नहीं है और यह प्राकृतिक नियम से शासित को उद्घाटित करता है कि सर्वज्ञ आत्म द्रष्टा होता है। वस्तुत: सर्वज्ञ है। साथ ही अनन्त विश्व में सृष्टि-लोक की सीमितता जैन दर्शन एवं का उपदेश भी आत्मानुभूति और आत्म-विशुद्धि के लिए होता है। जिन विज्ञान दोनों को मान्य है। इन मूल-भूत अवधारणाओं में साम्यता के साधनों से हम शुद्धात्मा की अनुभूति कर सके, आत्मशुद्धि या आत्मविमुक्ति होते हुए भी जब हम इनके विस्तार में जाते हैं, तो हमें जैन आगमिक को उपलब्ध कर सके, वही सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपाद्य है।
मान्यताओं एवं आधुनिक विज्ञान दोनों में पर्याप्त अन्तर भी प्रतीत यह सत्य है कि आगमों के रूप में हमारे पास जो कुछ होता है। उपलब्ध है उसमें जिन वचन भी संकलित हैं और यह भी सत्य है कि
अधोलोक, मध्यलोक एवं स्वर्गलोक की कल्पना लगभग आगमों का और उनमें उपलब्ध सामग्री का जैनधर्म, प्राकृत साहित्य सभी धर्म-दर्शनों में उपलब्ध होती है, किन्तु आधुनिक विज्ञान के द्वारा
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