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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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कृतिकर्म (वैयावृत्य) एवं अतिथि संविभाग व्रत का रूप ही मान लिया गया। मथुरा के शिल्पांकनों से पुष्पपूजा के दूसरी सदी में प्रचलित होने संकेत मिलते हैं ।
लेखक के मत से जैनों के लिए सामान्यतः भावपूजा ही सिद्धांत सम्मत है जिसमें एकेंद्रियों की भी विराधना नहीं होती । पर हिन्दूपरम्परा के प्रभाव से स्तवन के बाद पुष्प पूजा के रूप में द्रव्यपूजा भी प्रारम्भ हुई जो विकसित होते-होते अष्ट द्रव्य पूजा में परिणत हो गई। वस्तुतः पूजन का पूर्वरूप स्तवन ही रहा होगा क्योंकि इसका उल्लेख ईसापूर्व सदियों के जैन ग्रंथों में पाया जाता है। प्रारंभ में उसका उल्लेख ईसापूर्व सदियों के जैन ग्रंथों में पाया जाता है। प्रारंभ में पूजा के उद्देश्य के रूप में एहिक समृद्धि कम एवं पारलौकिक समृद्धि (तद्-गुण लब्धये) अधिक माने गये । प्रत्येक पूजन द्रव्य के पृथक्-पृथक् फलादेश भी माने गये। पहले केवल तीर्थंकर पूजा ही स्वीकृत थी, पर उत्तरवर्ती काल में तंत्र के प्रभाव से शासन देव - देवियों आदि की पूजा भी चल पड़ी जिसका उद्देश्य लौकिक कामना प्रधान होता है। पर तंत्र परंपरा के विपर्यास में पूजन में प्रयुक्त सामग्री को प्रसाद न मानकर निर्माल्य मानने की पद्धति जैनों में स्वीकृत हुई। पूजा की समग्र विधि ६-७ वीं सदी तक ही पूर्णत: विकसित हो पाई। इसके बाद ही जैनों का प्रमुख पूजा साहित्य देखने को मिलता है। अब तो पूजाओं की संख्या भी अगणित होती जा रही है।
श्वेताम्बर परंपरा में पंच, अष्ट एवं सत्रह - भेदी पूजा - विकसित हुई जिसमें पूजन के आदि से अंत तक के विविध चरण समाहित हैं । राजप्रश्नीय में प्राय: एक दर्जन चरणों का उल्लेख है जो श्वेतांबर परंपरा के प्रतीक हैं और क्रमशः सत्रह चरणों में परिणत हुए हैं । (इसके विपर्यास में दिगंबर पूजा-विधि के चरण किंचित् भिन्न हैं। यह अष्ट-चरणी है और इसमें विसर्जन और शांतिपाठ भी संपादित है।) तंत्र परंपरा में पंचोपचारी, दशोपचारी एवं षोडशोपचारी पूजायें होती हैं जिनसे व्यक्त होता है कि पूजा के चरण एक दूसर से प्रभावित रहे हैं। जैन- पूजा विधि जैनीकृत की गई है। (उदाहरणार्थ, पंचप्रकारी पूजा तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों की प्रतीक है)। पूजा के विभिन्न चरणों में स्तवन, नृत्य, गान एवं वाद्य के चरण भी हैं जो ४-५वीं सदी से पूजा या धार्मिक क्रियाकांडों के सामान्य अंग बन गये। दोनों ही परंपराओं में देवताओं के नाम को छोड़कर पदों और मंत्रों में भी समानता देखी जाती है जो तंत्र के प्रभाव को और भी रेखांकित करती है।
भक्तिवाद में मंत्र जप एवं पूजा के अतिरिक्त स्तवन एवं नामस्मरण का भी महत्त्व है। ये प्रक्रियायें दोनों परंपराओं में प्रचलित हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि स्तवन की प्रक्रिया मंत्र जप की तुलना में न केवल पूर्ववर्ती है अपितु सरल भी है। प्रारंभ में तो स्तवन गुणानुवाद और 'तद्गुण लब्धये के रूप में थे, पर उत्तरवर्ती काल में प्रथम सदी से ही इनमें याचना के स्वर भी समाहित होने लगे। बाद में स्तोत्र स्तवन याचनाप्रधान होते गये जो तंत्र का प्रभाव है। ये स्तवन (१) अध्यात्मिक साधना के आदर्श का स्मरण कराते हैं। (२) उसकी प्राप्ति के लिये प्रेरणा देते हैं और (३) संचित कर्मों को विकसित करते हैं तथा (४) लौकिक कामनाओं की पूर्ति में (उत्तरवर्ती उद्देश्य) साधक होते हैं। भद्रबाहु द्वितीय रचित उपसर्गहर स्तोत्र से प्रारंभ होकर भक्तामर स्तोत्र, कल्याण मंदिर स्रोत आदि में याचना के स्वर मुखर हो गये हैं । ये सकाम भक्ति के रूप है । लेखक ने (१) नमस्कार मंत्र, (२) तीर्थंकर (३) गणधरादि (४) श्रुतदेवी तथा (५) शासनरक्षक देवकुल से संबंधित पांच प्रकार के स्रोत्रों का अच्छा विवरण दिया है।
स्तोत्र परंपरा के साथ उत्तरवर्ती काल में प्रायः नवमी सदी के बाद जैन ग्रंथों में नाम और मंत्र जप परंपरा का समाहरण भी हुआ है । नाम-जप तो जिनसेन से प्रारम्भ हुआ कहते हैं जब विष्णु और शिव सहस्त्र नाम लोकप्रिय हो रहे थे। जैनों में नाम-जप का उद्भव हिन्दू प्रभाव को सूचित करता है। नाम-जप भक्तिवाद के, स्तवन के समान, सरलतम रूप है। फिर भी यह जैनों में हिन्दुओं के समान बहु-प्रचलन में नहीं है । उसके विपर्यास में, जैनों में स्तोत्रपाठ और मंत्र जप अधिक प्रचलित हैं। किसी भी प्रकार का जाप हो, उसमें भावों की विशुद्धता का लक्ष्य रहता है। लेखक ने तांत्रिकों के १८ प्रकार के जपों की तुलना में जैनों के २६ प्रकार के जपों की विधि व स्वरूप का सुन्दर और सचित्र विवेचन किया है। यह बताया गया है कि सशक्त जप की अपेक्षा मौन एवं मानस जप श्रेष्ठ है। श्राद्धविधि प्रकरण के अनुसार स्तोत्रपाठ एक करोड़ पूजापाठ के समकक्ष है, जप एक करोड़ स्तवन के समकक्ष है तथा निर्विकल्प ध्यान एक करोड़ ध्यान के समकक्ष होता है। परिमाणात्मकतः यह अतिशयोक्ति हो सकती है, पर इसकी गुणात्मकता असंदिग्ध है। उससे भक्तिमार्ग के विविध रूपों की कोटि का अनुमान होता है।
पूजा स्तोत्र जप ध्यान निर्विकल्प ध्यान
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चौथे अध्याय में मंत्र और उनकी साधना का सांगोपांग विवरण है यत्र मनन, मंत्रणा एवं मानसिक चंचलताओं के निराकर्ता माने जाते हैं। ये ध्वनिरूप पौड्रलिक शक्तियां हैं जो हमारी चेता को प्रभावित एवं उन्नत करती हैं। मंत्र अध्यात्मविकासी भी होते हैं और लोकेषणा साधक भी होते हैं। इनमें ध्वनि विशेष समाहारी अक्षर-रचना होती है। प्राचीन जैन ग्रंथों में सामान्यतः व्यक्तिगत लोकैषणा या षट्कर्म साधक मंत्रों का श्रमणों के लिए निषेध किया है पर संघधर्म की रक्षा, शासन प्रभावना तथा प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षार्थ इनके अभ्यास और प्रयोग की अनुमति दी है जिसके अनेक उदाहरण जैन इतिहास में मिलते हैं। मंत्र साधना की कला आज भी जीवंत है और इसके वैज्ञानिक आधार भी सुलभ हुए
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