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जटासिंहनन्दि का वराङ्गचरित और उसकी परम्परा
जटासिंहनन्दि और उनके वराङ्गचरित के दिगम्बर परम्परा से फिर भी सर्वप्रथम पुत्राटसंघीय जिनसेन के द्वारा जटासिंहनन्दि का भिन्न यापनीय अथवा कूर्चक संघ से सम्बन्धित होने के कुछ प्रमाण आदरपूर्वक उल्लेख यह बताता है कि वे सम्भवत: यापनीय परम्परा से उपलब्ध होते हैं । यद्यपि श्रीमती कुसुम पटोरिया के अनुसार वराङ्गचरित सम्बन्धित रहे हों। क्योंकि पुन्नाटसंघ का विकास यापनीय पुन्नागवृक्ष में ऐसा कोई भी अन्तरङ्ग साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिससे जटासिंहनन्दि मूलगण से ही हुआ है ।१५ पुनः श्वेताम्बर आचार्य उद्योतनसूरि ने यापनीय
और उनके ग्रन्थ को यापनीय कहा जा सके, किन्तु मेरी दृष्टि में श्रीमती आचार्य रविषेण और उनके ग्रन्थ पद्मचरित के साथ-साथ जटासिंहनन्दि कुसुम पटोरिया का यह कथन समुचित नहीं है । सम्भवत: उन्होंने मूल के वराङ्ग-चरित का उल्लेख किया है । इससे ऐसी कल्पना की जा ग्रन्थ को देखने का प्रयत्न ही नहीं किया और द्वितीयक स्रोतों से उपलब्ध सकती है कि दोनों एक ही परम्परा के और समकालिक रहे होंगे। पुनः सूचनाओं के आधार पर ऐसा मानस बना लिया।
श्वेताम्बर और यापनीय में एक-दूसरे के ग्रन्थों के अध्ययन की परम्परा ___ मैंने यथासम्भव मूल ग्रन्थ को देखने का प्रयास किया है और रही है । यापनीय आचार्य प्राचीन श्वेताम्बर आचार्यों के ग्रन्थों को पढ़ते उसमें मुझे ऐसे अनेक तत्त्व मिले हैं जिनके आधार पर वराङ्गचरित और थे। जटासिंहनन्दि के द्वारा प्रकीर्णकों, आवश्यकनियुक्ति तथा सिद्धसेन उसके कर्ता जटिल मुनि या जटासिंहनन्दि को दिगम्बर परम्परा से इतर के सन्मति तर्क और विमलसूरि के पउमचरिय का अनुसरण यही यापनीय अथवा कूर्चक परम्परा से सम्बद्ध माना जा सकता है । इस बताता है कि वे यापनीय सम्प्रदाय से सम्बन्धित रहे होंगे । क्योंकि विवेचन में सर्वप्रथम तो मैं श्रीमती कुसुम पटोरिया के द्वारा प्रस्तुत उन यापनीयों द्वारा इन ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन एवं अनुसरण किया बाह्य साक्ष्यों की चर्चा करूंगा जिनके आधार पर जटासिंहनन्दि के जाता था, इसके अनेक प्रमाण दिए जा सकते हैं । यह हो सकता है यापनीय होने की संभावना को पुष्ट किया जाता है । उसके पश्चात् मूल कि जटासिंहनन्दि यापनीय न होकर कूर्चक सम्प्रदाय से सम्बन्धित रहे ग्रन्थ में मुझे दिगम्बर मान्यताओं से भिन्न जो तथ्य उपलब्ध हुए हैं, उनकी हों और यह कूर्चक सम्प्रदाय भी यापनीयों की भांति श्वेताम्बरों के अति चर्चा करके यह दिखाने का प्रयत्न करूंगा कि जटासिंहनन्दि यापनीय निकट रहा हो । यद्यपि इस सम्बन्ध में विस्तृत गवेषणा अभी अपेक्षित अथवा कूर्चक परम्परा में से किसी एक से सम्बद्ध रहे होंगे। है।
जटासिंहनन्दि यापनीय संघ से सम्बन्धित थे या कूर्चक संघ २. जटासिंहनन्दि यापनीय परम्परा से सम्बद्ध रहे हैं, इस से सम्बन्धित थे, इस सम्बन्ध में तो अभी और भी सूक्ष्म अध्ययन की सम्बन्ध में जो बाह्य साक्ष्य उपलब्ध हैं उनमें प्रथम यह है कि कन्नड़ कवि आवश्यकता है किन्तु इतना निश्चित है कि वे दिगम्बर परम्परा से भिन्न जन्न ने जटासिंहनन्दि को 'काणूरगण' का बताया है। अनेक अभिलेखों अन्य किसी परम्परा से सम्बन्धित हैं क्योंकि उनकी अनेक मान्यताएं से यह सिद्ध होता है कि यह काणूरगण प्रारम्भ में यापनीय परम्परा का वर्तमान दिगम्बर परम्परा के विरोध में जाती हैं । आइए, इन तथ्यों की एक गण था । इस गण का सर्वप्रथम उल्लेख सौदंती के ई० सन् समीक्षा करें -
दसवीं शती (९८८) के एक अभिलेख में मिलता है । इस अभिलेख १. जिनसेन प्रथम (पुत्राटसंघीय) ने अपने हरिवंशपुराण (ई० में गण के साथ यापनीय संघ का भी स्पष्ट निर्देष है ।१६ यह सम्भव सन् ७८३) में, जिनसेन द्वितीय (पंचस्तूपान्वयी) ने अपने आदि पुराण है कि इस गण का अस्तित्व इसके पूर्व सातवीं-आठवीं सदी में भी रहा में, उद्योतनसूरि (श्वे० आचार्य) ने अपनी कुवलयमाला (ई०सन् ७७८) हो । डॉ० उपाध्ये जन्न के इस अभिलेख को शंका की दृष्टि से देखते में, राचमल्ल ने अपने कन्नड़ गद्य ग्रन्थ त्रिषष्ठिशलाकापुरुष (ई० सन् हैं। उनकी इस शंका के दो कारण हैं- एक तो यह कि गणों की उत्पत्ति ९७४-८४) में, धवल कवि ने अपभ्रंश भाषा में रचित अपने हरिवंश और इतिहास के विषय में पर्याप्त जानकारी का अभाव है, दूसरे में, जटिलमुनि अथवा उनके वरांगचरित का उल्लेख किया है। इनके जटासिंहनन्दि जन के समकालीन भी नहीं हैं।७। यह सत्य है कि दोनों अतिरिक्त भी पम्प ने अपने आदि पुराण (ई० सन् ९४१) में, नयनसेन में लगभग पांच सौ वर्ष का अन्तराल है किन्तु मात्र कालभेद के कारण ने अपने धर्मामृत (ई० सन् १११२) में और पार्श्वपंडित ने पार्श्वपुराण जन्न का कथन भ्रांत हो, हम डॉ० उपाध्ये के इस मन्तव्य से सहमत (ई० सन् १२०५) में, जन्न ने अपने अनन्तनाथ पुराण (ई० सन् नहीं हैं । यह ठीक है कि यापनीय परम्परा के काणूर आदि कुछ गणों १२०९) में,° गुणवर्ग द्वितीय ने अपने पुष्पदंतपुराण (ई० सन् १२३०)१९ का उल्लेख आगे चलकर मूलसंघ और कुन्दकुन्दान्वय के साथ भी में, कमल भवन ने शांतिनाथ पुराण (ई० सन् १२३३)२२ में और हुआ है किन्तु इससे उनका मूल में यापनीय होना अप्रमाणित नहीं हो महाबल कवि ने अपने नेमिनाथ पुराण (ई० सन् १२५४) में,१३ जाता। काणूरगण के ही १२वीं शताब्दी तक के अभिलेखों में यापनीय जटासिंहनन्दि का उल्लेख किया है।
संघ के उल्लेख उपलब्ध होते है (देखें- जैन शिलालेख संग्रह, भाग इन सभी उल्लेखों से यह ज्ञात होता है कि जटासिंहनन्दि ५, लेख क्रमांक १-७) । इसके अतिरिक्त स्वयं डॉ० उपाध्ये ने १२ वीं यापनीय, श्वेताम्बर और दिगम्बर तीनों ही परम्पराओं में मान्य रहे हैं। शताब्दी के पूर्वार्द्ध के कुछ शिलालेखों में काणूरगण के सिंहनन्दि के
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