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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
इस विषय को ऐसा आकर्षक बनाया कि इस विभाग में आज भी छात्रों का बाहुल्य रहता है । डाक्टर सा० ने अपने सत्प्रयत्न से विभाग में शिक्षकों की संख्या भी बढ़ा ली । इतने बड़े महाविद्यालय की, जिसमें बी० ए० से लेकर एम० ए० तक की कक्षाएँ हों, जिसमें अनेक विभाग, अनेक वर्ग और परस्पर विपरीत स्वभाव वाले बहुसंख्यक शिक्षक हों, समयसारिणी बनाना हँसी खेल नहीं है । किस विषय का अध्यापन किस समय रखा जाय जिससे एक ही विद्यार्थी के दो विषय एक ही काल खण्ड में न पड़ जाय अथवा किसी शिक्षक को लम्बे समय तक कालेज में न रुकना पड़े और किसी को थोड़े ही समय में छुट्टी न मिल जाय, इन बातों को ध्यान में रखते हुए समयसारिणी बनाना बहुत बड़े सिरदर्द का काम है। इतने विशाल महाविद्यालय की परीक्षाओं का संचालन भी ऐसा ही मानसोत्पीड़क कार्य है। किन्तु डाक्टर सागरमल जी ने ये दोनों दुष्कर कार्य बड़ी दक्षता से दीर्घकाल तक सम्पन्न किये और दर्शन के प्रोफेसरों के विषय में प्रचलित धारणाओं को मिथ्या सिद्ध कर दिया ।
डाक्टर सा० के साथ गुजारे वे दिन आज भी जब स्मृतिपटल पर आते हैं, तब मन आनन्द में डूब जाता है। उनके सौजन्य का माधुर्य, उनके औदार्य की जगमगाहट, उनके वात्सल्य की खुशबू, उनके सत्सङ्ग का सौरभ आज भी मैं अपने परिवेश में बिखरा हुआ पाता हूँ। मेरी कामना है कि जैनजगत् के लब्ध प्रतिष्ठ मनीषी, सरस्वती के पुत्र और मेरे अग्रजकल्प आदरणीय डा० सागरमल जी जैन स्वस्थ रहते हुए सौ से अधिक वर्षों तक जियें, जिससे जैनसाहित्य के कोश में अभिवृद्धि तथा जैनसिद्धान्त के जिज्ञासुओं का मार्ग आलोकित होता रहे ।
*१३७, आराधना नगर, भोपाल-४६२००३
एक अभिनन्दनीय व्यक्तित्य : डॉ० सागरमल जैन
मफतराज पी० मुणोत*
जैन धर्म, दर्शन, साहित्य, कला व संस्कृति के क्षेत्र में डॉ० जैन के उल्लेखनीय योगदान के लिये मिले 'आचार्य श्री हस्ती स्मृति सम्मान के सम्मान समारोह में मुझे उनसे पीपाड़ में मिलने का सुअवसर मिला। वे जैन धर्म के मूर्धन्य विद्वान्
मैं उनके, युवक समाज के प्रति शोधपूर्ण विचारों तथा स्वाध्याय के माध्यम से, व्यक्ति से व्यक्ति की टूटी कड़ियों को जोड़ने की वैचारिक जागरुकता से बहुत प्रभावित हुआ । इतने ज्ञान व विद्वत्ता के धनी होते हुये भी सादगी व अभिमान रहित जीवन, उनके जीवन को विद्वत्ता की ऊँचाइयों पर ले जाता है । मुझे उनके पीपाड़ में व्यक्त किये गये विचार याद हैं, उन्होंने कहा था 'यह सम्मान मेरा नहीं, आचार्य भगवंत का है । इस सम्मान से उनकी प्रेरणा जीवित है, उनकी प्रेरणा से एक नहीं कई सागरमल पैदा हो सकते हैं । पूजा, प्रतिष्ठा व मान-सम्मान की इच्छा करने वाला सबसे अधिक पाप करता है परन्तु सम्मान भी अगर प्रेरणा का निमित्त बनता है तो उपादेय है।'
उनके शतायु होने की शुभ कामना के साथ शत्-शत् अभिनन्दन । *मुणोतविला, वेस्ट फील्ड कम्पाउन्ड लेन ६३ के० भूलाभाई देसाई रोड, मुम्बई-४०००२६
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