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डॉ सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
७९ विषय वस्तु क्रमश: निम्न प्रकार है -
१. अर्धमागधी आगम-साहित्य : एक विमर्श - पैंतालीस पृष्ठों के इस लेख में श्वेताम्बर जैन अर्धमागधी आगम साहित्य का आलोडन किया गया है । इसमें जैन श्रमणधारा की प्राचीनता को सिद्ध करते हुए बतलाया है कि वैदिक उपनिषदों के अनेक अंश आचारांगसूत्र, . सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित आदि प्राचीन जैन आगमों में यथावत् उपलब्ध होते हैं।
श्वेताम्बर जैन आगम को तीर्थंकर महावीर की वाणी स्वीकार करने में बाधा यह है कि उसमें तथ्यात्मक विविधतायें तथा अन्तर्विरोध स्पष्ट दिखलाई देते हैं । डा० जैन ने भी आगम रूप में मान्य सभी ग्रन्थों को महावीरवाणी नहीं मानते हैं।
डा० जैन ने शौरसेनी दिगम्बर जैनागमों (मूलाचार, भगवतीआराधना, षट्खण्डागम, नियमसार आदि) के आधार के रूप में श्वेताम्बर जैन अर्धमागधी आगमों को बतलाया है, जिस पर अभी और चिन्तन आवश्यक है, क्योंकि 'मूल आगमों के अंशों का उपलब्ध श्वेताम्बर अर्धमागधी आगमों में सर्वथा अभाव हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता है । इसी प्रसंग में डॉ० जैन ने पं० कैलाशचन्द जैन की दिगम्बर मान्यता की समीक्षा की है । आलेख में जैन आगमों का विविध रूपों में विभाजन, उनकी विषय वस्तु, वाचनायें, रचनाकाल आदि सभी पक्षों के विवेचन है । जैनसंघ के प्रामाणिक इतिहास के लिए ये विषय बड़े उपयोगी हैं। २. प्राचीन जैन आगमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा -
तेरह पृष्ठों के इस आलेख का वाचन दिल्ली विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग की संगोष्ठी में किया गया था। इस आलेख में चार्वाक दर्शन की विषयवस्तु के लिये प्राचीन जैन आगमों को विशेषकर आचारांग, ऋषिभाषित, सूत्रकृतांग और राजप्रश्नीयसूत्र को आधार बनाया गया है । राजप्रश्नीयसूत्र एक ऐसा प्राकृत आगम ग्रन्थ है जिसमें चार्वाक मत के उच्छेदवाद और तज्जीवतच्छीरवाद को पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत करके खण्डन किया गया है । चार्वाक दर्शन को समझने के लिये प्रस्तुत आलेख महत्त्वपूर्ण है। ३. महावीर के समकालीन विभिन्न आत्मवाद एवं उसमे जैन आत्मवाद का वैशिष्ट्यष्ट्य -
दस पृष्ठों का यह आलेख सर्वप्रथम सन् १९६६' में सुधर्मा में प्रकाशित हुआ था। इसमें सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, और उत्तराध्ययन सूत्र, इन जैन आगम ग्रन्थों का कठोपनिषद्, गीता, छान्दोग्योपनिषद् और बृहदारण्यकोपनिषद्, इन हिन्दू धर्म ग्रन्थों का तथा सुत्तपिटक, दीघनिकाय, ब्रह्मजालसूत्र और मज्झिमनिकाय इन बौद्ध पालि ग्रन्थों को आधार मानकर आठ प्रकार के आत्मवादों को उपस्थित किया है । पश्चात् जैन दृष्टि से समस्त आत्मवादों का समन्वय करते हुये उसका वैशिष्ट्य प्रतिपादित किया है। ४. सकरात्मक अहिंसा की भूमिका -
अट्ठारह पृष्ठ यह आलेख पं० कन्हैयालाल जी लोड़ा के ग्रन्थ की भूमिका है । प्रश्नव्याकरण में अहिंसा के निर्वाण आदि साठ पर्यायवाची नाम मिलते हैं, जिनमें से अप्रमाद आदि ३-४ नामों को छोड़कर शेष सभी सकारात्मक हैं । डॉ० जैन ने इस लेख में आगमों को आधार मानकर जैन अनेकान्तदृष्टि से अहिंसा को अपेक्षाभेद से सकारात्मक एवं नकारात्मक (निषेधरूप) दोनों सिद्ध किया है । प्रसंग: पुण्य कर्म को रागादि के अभाव में कर्मबन्ध का कारण नहीं माना है, अन्यथा तीर्थंकर की लोक-कल्याणकारिणी देशना भी कर्मबन्ध का कारण होने लगेगी। 'अहिंसा एक पुण्य कर्म है जिसे निष्काम कर्म (वीतरागभाव) के रूप में करना चाहिए" यह आलेख का उद्देश्य है। अहिंसा पर लेखक के अन्य भी लेख प्रकाशित
५. तीर्थंकर और ईश्वर के सम्प्रत्ययों का तुलनात्मक विवेचन
छह पृष्ठीय इस लघु निबन्ध में ईश्वरवाद और तीर्थंकर के मौलिक अन्तर को स्पष्ट किया गया है। दोनों में सर्वज्ञत्व, परमकारुणिकत्त्व आदि अनेक समानतायें होने पर भी तीर्थंकरवाद से पूर्ण व्यक्ति-स्वातन्त्रय की स्थापना होती है जो ईश्वरवाद में संभव नही है । बौद्ध और जैन दोनों तीर्थकरवादी दर्शन हैं । जैनों का तीर्थकरवाद कहीं अधिक सयुक्तिक है, क्योंकि इसमें प्रत्येक आत्मा को परमात्मा माना गया है। ६. जैनधर्म में भक्ति का स्थान
चार पृष्ठों का यह लघु लेख जो 'श्रमण' में मार्च १९८०' में भी छपा था । वस्तुत: तीर्थंकरवाद और ईश्वर के सम्प्रत्ययों के लेख का पूरक है । जब जैनधर्म के तीर्थंकरवाद में सृष्टिकर्ता आदि स्वीकृत नहीं है तो फिर उसकी भक्ति क्यों की जाती है ? इसका समाधान इसमें किया गया है। ७. मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण
छब्बीस पृष्ठों का यह लेख पुस्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ में सन् १९७९ में छपा था। चित्त, अन्त:करण और मन ये पर्यायवाची शब्द हैं। मन संसार बन्धन और मुक्ति में किस प्रकार अपना कार्य करता है ? राग, वासना, इन्द्रियाँ और इच्छाओं का निरोध ही मनोनिग्रह है। मनोनिग्रह से मुक्ति का पथ प्रशस्त होता है । मन की अपरिमित शक्ति है । जैन दृष्टि से मन दो प्रकार का है-द्रव्यमन (जड़, भौतिक पक्ष) और भाव मन
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