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अनौदेशिक आहार मिल पाना सम्भव है? क्या कश्मीर से कन्याकुमारी तक और बम्बई से कलकत्ता तक की सारी यात्राएं औदेशिक आहार के अभाव में निर्विघ्न सम्भव हो सकती हैं? क्या आर्हत प्रवचन की प्रभावना के लिए मंदिरों का निर्माण, पूजा और प्रतिष्ठा के समारोह, संस्थाओं का संचालन मुनिजनों के स्वागत और विदाई समारोह तथा अधिवेशन षनिकाय की नवकोटि युक्त अहिंसा के परिपालन के साथ कोई संगति रख सकते हैं? हमें अपनी अन्तरात्मा से यह सब पूछना होगा। हो सकता है कि कुछ विरल सन्त और साधक हों जो इन कसौटियों पर खरे उतरते हों, मैं उनकी बात नहीं कहता, वे शतशः वन्दनीय हैं, किन्तु सामान्य स्थिति क्या है? फिर भिक्षाचर्या, पाद - विहार, शरीर-संचालन, वासोच्छवास किसमें हिंसा नहीं है। महाभारत के शान्ति पर्व में कहा गया हैं, जल में जीव हैं, पृथ्वी पर और वृक्षों के फलों में अनेक जीव हैं, ऐसा कोई मनुष्य नहीं जो इन्हें नहीं मारता हो, पुनः कितने ही ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं जो इन्द्रियों से नहीं, अनुमान से जाने जाते हैं, मनुष्य की पलकों के झपकने मात्र से ही जिनके कंधे टूट जाते हैं। अतः जीव-हिंसा से बचा नहीं जा सकता (१५/ २५-२६)। एक ओर षट्जीवनिकाय की अवधारणा और दूसरी ओर पूर्ण नवकोटियुक्त पूर्ण अहिंसा का आदर्श, जीवित रहकर इन दोनों में संगति बिठा पाना अशक्य है। अत: जैन आचार्यों को भी यह कहना पड़ा कि 'अनेकानेक जीव-समूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का अहिंसकत्व अन्त में आध्यात्मिक विशुद्धि की दृष्टि से ही है' (ओघनियुक्ति ७४७)। लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि हम अहिंसा को अव्यवहार्य मानकर तिलांजलि दे देवें । यद्यपि एक शरीरधारी के नाते यह हमारी विवशता है कि हम द्रव्य और भाव दोनों अपेक्षा से पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध नहीं कर सकते हैं किन्तु उस दिशा में क्रमशः आगे बढ़ सकते हैं और जीवन की पूर्णता के साथ ही पूर्ण अहिंसा के आदर्श को भी उपलब्ध कर सकते हैं। कम से कम हिंसा की दिशा में आगे बढ़ते हुए साधक के लिए जीवन का अन्तिम क्षण अवश्य ही ऐसा है, जब वह पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार कर सकता है जैनधर्म की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो पादोपगमन संथारा एवं चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान की अवस्थाएं ऐसी हैं जिनमें पूर्ण अहिंसा का आदर्श साकार हो जाता है।
पुनः अहिंसा की सम्भावना पर हमें न केवल वैयक्तिक दृष्टि से विचार करना है अपितु सामाजिक दृष्टि से भी विचार करना है। चाहे यह सम्भव भी हो, व्यक्ति शरीर, सम्पत्ति संघ और समाज से निरपेक्ष होकर पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध कर सकता है; फिर भी ऐसी निरपेक्षता किन्हीं विरल साधकों के लिए ही सम्भव होगी, सर्व सामान्य के लिए तो सम्भव नहीं कही जा सकती है। अतः मूल प्रश्न यह है। कि क्या सामाजिक जीवन पूर्ण अहिंसा के आदर्श पर खड़ा किया जा सकता है? क्या पूर्ण अहिंसक समाज की रचना सम्भव है? इस प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व मैं आपसे समाज रचना के स्वरूप पर कुछ बातें कहना चाहूँगा। एक तो यह कि अहिंसक चेतना अर्थात् संवेदनशीलता के अभाव में समाज की कल्पना ही सम्भव नहीं है। समाज जब भी
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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खड़ा होता है आत्मीयता, प्रेम और सहयोग के आधार पर खड़ा होता है अर्थात् अहिंसा के आधार पर खड़ा होता है क्योंकि हिंसा का अर्थ है—घृणा, विद्वेष, आक्रामकता और जहाँ भी ये वृत्तियाँ बलवती होंगी सामाजिकता की भावना ही समाप्त हो जावेगी, समाज ढह जावेगा। अतः समाज और अहिंसा सहगामी हैं। दूसरे शब्दों में यदि हम मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी मानते हैं तो हमें यह मानना होगा कि अहिंसा उसके लिए स्वाभाविक ही है जब भी कोई समाज खड़ा होगा और टिकेगा तो वह अहिंसा की भित्ति पर ही खड़ा होगा और टिकेगा। किंतु एक दूसरा पहलू भी है, वह यह कि समाज के लिए भी अपने अस्तित्व और अपने सदस्यों के हितों के संरक्षण का प्रश्न मुख्य है और जहाँ अस्तित्व की सुरक्षा और हितों के संरक्षण का प्रश्न है, वहाँ हिंसा अपरिहार्य है। हितों में टकराव स्वाभाविक है, अनेक बार तो एक का हित दूसरे के अहित पर, एक का अस्तित्व दूसरे के विनाश पर खड़ा होता है, ऐसी स्थिति में समाज जीवन में भी हिंसा अपरिहार्य होगी। पुनः समाज का हित और सदस्य - व्यक्ति का हित भी परस्पर विरोध में हो सकता है। जब वैयक्तिक और सामाजिक हितों के संघर्ष की स्थिति हो तो बहुजन हितार्थ हिंसा अपरिहार्य भी हो सकती है। जब समाज या राष्ट्र का कोई सदस्य या वर्ग अथवा दूसरा राष्ट्र अपने हितों के लिये हिंसा पर अथवा अन्याय पर उतारू हो जावे तो निश्चय ही अहिंसा की दुहाई देने से काम न चलेगा। जब तक जैन आचार्यों द्वारा उद्घोषित 'मानव जाति एक है' की कल्पना साकार नहीं हो पाती, जब तक सम्पूर्ण मानव समाज ईमानदारी के साथ अहिंसा के पालन के लिए प्रतिबद्ध नहीं होता, तब तक अहिंसक समाज की बात कहना कपोल कल्पना ही कहा जावेगा। आचारांग, सूत्रकृतांग आदि जैनागम जिस पूर्ण अहिंसा के आदर्श को प्रस्तुत करते हैं उसमें भी जब संघ की या संघ के किसी सदस्य की सुरक्षा या न्याय का प्रश्न आया तो हिंसा को स्वीकार करना पहा गणाधिपति चेटक और आचार्य कालक के उदाहरण इसके प्रमाण हैं। यही नहीं, निशीथचूर्ण में तो यहाँ तक स्वीकार कर लिया गया है कि संघ की सुरक्षा के लिए मुनि भी हिंसा का सहारा ले सकता है। ऐसे प्रसंगों में पशु हिंसा तो क्या मनुष्य की हिंसा भी उचित मान ली गई है। जब तक मानव समाज का एक भी सदस्य पाशविक प्रवृत्तियों में आस्था रखता है यह सोचना व्यर्थ ही है कि सामुदायिक जीवन में पूर्ण अहिंसा का आदर्श व्यवहार्य बन सकेगा। निशीथचूर्णि में अहिंसा के अपवादों को लेकर जो कुछ कहा गया है, उसे चाहे कुछ लोग साध्वाचार के रूप में सीधे मान्य करना न चाहते हों; किंतु क्या यह नपुंसकता नहीं होगी जब किसी मुनि संघ के सामने किसी तरुणी साध्वी का अपहरण हो रहा हो या उस पर बलात्कार हो रहा हो और वे अहिंसा की दुहाई देते हुए मौन दर्शक बने रहें? क्या उनका कोई दायित्व नहीं है? यह बात चाहे हास्यास्पद लगती हो कि अहिंसा की रक्षा के लए हिंसा आवश्यक है किन्तु व्यावहारिक जीवन में अनेक बार ऐसी परिस्थितियाँ आ सकती हैं जिनमें अहिंसक संस्कृति की रक्षा के लिए हिंसकवृत्ति अपनाना पड़े। यदि हिंसा में आस्था रखनेवाला कोई समाज किसी अहिंसक समाज को पूरी तरह मिटा देने को तत्पर हो जावे, तो
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