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नीति के मानवतावादी सिद्वान्त और जैन आचार-दर्शन
'मानवतावाद' सामान्य रूप से स्वाभाविक इच्छाओं का सर्वथा तो जैन दर्शन भी प्राणी में निहित सहानुभूति के तत्त्व को स्वीकार दमन उचित नहीं मानता, वरन् उनका संयमन आवश्यक मानता है। करता है (परस्परोपग्रहो जीवानाम् –तत्त्वार्थ,५/२१) तथापि वह कर्मवह संयम का पक्षधर है, दमन का नहीं। उसके अनुसार सच्चा नियम पर भी अपनी आस्था प्रकट करके चलता है। इस सहानुभूति नैतिक जीवन इच्छाओं के दमन में नहीं, अपितु उसके नियमन या के तत्त्व के साथ-साथ कर्म-सिद्वान्त को भी नैतिकता का आधार नियन्त्रण में है।
बनाता है। मानवतावाद में नैतिकता का प्रत्यय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, यही .. मानवतावाद सांसारिक हित-साधन पर बल देता है और कारण है कि मानवतावाद को आचारशास्त्रीय धर्म कहा जाता है। पारलौकिक सुख-कामना को व्यर्थ मानता है, यद्यपि वह मनुष्य को मानवतावादी सिद्वान्त नैतिकता को मानव की सांस्कृतिक चेतना के स्थूल सुखों तक सीमित नहीं रखता है, किन्तु कला, साहित्य, मैत्री विकास में देखते हैं। सांस्कृतिक चेतना का विकास ही नैतिकता का और सामाजिक सम्पर्क के सूक्ष्म सुखों को भी स्थान देता है। लेमान्ट आधार है। सांस्कृतिक विकास एवं नैतिक जीवन मानवीय गुणों के परम्परावादी और मानतावादी आचार दर्शन में निषेधात्मक और विकास में हैं। मानवतावादी चिन्तन में मनुष्य ही नैतिक मूल्यों का विधानात्मक दृष्टि से भेद स्पष्ट करता है। उसके अनुसार परम्परावादी मापदण्ड है और मानवीय गुणों का विकास ही नैतिकता है। मानवतावादी नैतिक दर्शन में वर्तमान के प्रति उदासीनता और परलोक में सुख विचारकों की एक लम्बी परम्परा है। प्लेटो और अरस्तू से लेकर लेमान्ट, प्राप्त करने की जो इच्छा होती है, वह निषेधात्मक है। इसके विपरीत जाकमारिता तथा समकालीन विचारकों में रसल, वारनर फिटे, मानवतावाद इस जीवन के प्रति आस्था रखता है और उसे सुखी बनाना सी०बी०गर्नेट और इस्राइल लेविन प्रभृति विचारक इस परम्परा का चाहता है, यह विधायक है। प्रतिनिधित्व करते हैं। यद्यपि उपरोक्त सभी विचारक मानवीय गुणों तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार करते समय हम यह के विकास के संदर्भ में ही नैतिकता के प्रत्यय को देखते हैं फिर भी पाते हैं कि यद्यपि जैन दर्शन पारलौकिकता के प्रत्यय को स्वीकार प्राथमिक मानवीय गुण क्या है, इस सम्बन्ध में उनमें मत-भेद है। करता है और भावी जीवन के अस्तित्व में आस्था भी रखता है, लेकिन समकालीन मानवतावादी विचारकों में इसी प्रश्न को लेकर प्रमुख रूप इस आधार पर उसे निषेधात्मक नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वह से तीन वर्ग हैं, जिन्हें क्रमशः आत्मचेतनतावाद, विवेकवाद और वर्तमान जीवन के प्रति उदासीनता नहीं रखता है। जैन दार्शनिक स्पष्ट आत्मसंयमवाद कहा जा सकता है। इन तीनों ही मान्यताओं का जैन रूप से यह कहते हैं कि नैतिक साधना का पारलौकिक सुख की कामना दर्शन के साथ निकट सम्बन्ध देखा जा सकता है, लेकिन इसके पहले से कोई सम्बन्ध नहीं है, वरन् पारलौकिक सुख-कामना के आधार कि हम इनके साथ जैन दर्शन की तुलना करें, मानवतावाद की कुछ पर किया गया नैतिक कर्म दूषित है। वे नैतिक-साधना को न ऐहिक सामान्य प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में जैन दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन सुखों के लिए और न पारलौकिक सुखों के लिए मानते हैं वरन् उनके अपेक्षित है।
अनुसार तो नैतिक साधना का एकमात्र साध्य आत्म-विकास या सर्वप्रथम मानतावादी विचार-परम्परा सहानुभूति के प्रत्यय को आत्मपूर्णता है। बुद्ध ने भी स्पष्ट रूप से यह बताया है कि नैतिक ही नैतिकता का आधार बनाती है। मानवतावाद के अनुसार मनुष्य जीवन का साध्य पारलौकिक सुख की कामना नहीं है। गीता में भी का परम प्राप्तव्य इसी जगत् में केन्द्रित हैं और इसीलिए वह अपने ___ फलाकांक्षा के रूप में पारलौकिक सुख की कामना को अनुचित ही नैतिक दर्शन को किसी पारलौकिक सुख-कामना पर आधृत नहीं करता। कहा गया है। उसके अनुसार नैतिक होने के लिए किसी पारलौकिक आदर्श या साध्य जैन विचारणा नैतिक जीवन के लिए अपनी दृष्टि वर्तमान पर के प्रति निष्ठा की आवश्यकता नहीं है, वरन् मनुष्य में निहित सहानुभूति ही केन्द्रित करती है और कहती है कि - को तत्त्व ही उसे नैतिकता के प्रति आस्थावान् बनाये रखने के लिए गत वस्तु सोचे नहीं आगत वांछा नाय। पर्याप्त है। वह नैतिकता को प्रलोभन और भय के आधार पर खड़ा वर्तमान में वर्ते सही सो ज्ञानी जग माय। नहीं कर, मानव में निहित सहानुभूति के तत्त्व पर खड़ा करता है।
- आलोचना पाठ उसके अनुसार नैतिक होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम जो भूत के सम्बन्ध में कोई शोक नहीं करता और भविष्य के किसी पारलौकिक सत्ता (ईश्वर) अथवा कर्म के नियम जैसे किसी सिद्वान्त सम्बन्ध में जिसकी कोई अपेक्षाएँ नहीं हैं, जो मात्र वर्तमान में ही पर आस्था रखें। उसके अनुसार मानवीय प्रकृति में निहित सहानुभूति अपने जीवन को जीता है, वही सच्चा ज्ञानी है। विशुद्ध वर्तमान में का तत्त्व ही नैतिक होने के लिए पर्याप्त है।
जीवन जीना जैन परम्परा का नैतिक आदर्श रहा है। अत: वह वर्तमान यदि हम इस प्रश्न पर जैन दर्शन का दृष्टिकोण जानना चाहें के प्रति उदासीन नहीं है, फिर भी इस अर्थ में वह मानवतावादी विचारकों
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