Book Title: Sagarmal Jain Abhinandan Granth
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 741
________________ ६१० जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ कदम आगे थे। उन्होंने दिगम्बर परम्परा में मूर्ति-पूजा का ही निषेध कर को स्मरण रखना है कि जैन श्रमणों की सुविधावादी प्रवृत्ति जैनधर्म के दिया। मात्र यही नहीं, इन्होंने धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप की पुनः प्रतिष्ठा लिए भी उतनी खतरनाक सिद्ध होगी, जैसी कभी बौद्ध धर्म के लिए हुई की। बनारसीदास की परम्परा जहाँ दिगम्बर तेरापंथ के नाम से विकसित थी कि वह अपनी मातृभूमि में ही अपना अस्तित्व खो बैठा था। विदेश हुई तो तारण स्वामी का वह आन्दोलन तारणपंथ या समैया के नाम से यात्रा कोई बड़ा अपराध नहीं है। अपराध है जैन श्रमणों की बढ़ती हुई पहचाना जाने लगा। तारणपंथ के चैत्यालयों में मूर्ति के स्थान पर शास्त्र सुविधावादी प्रवृत्ति एवं बिना सामुदायिक निर्णय के पूर्व प्रचलित आचार की प्रतिष्ठा की गई। इस प्रकार सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दी में जैन व्यवस्था का उल्लंघन। आज का जैन श्रमण इतना सुविधावादी और परम्परा में इस्लाम धर्म के प्रभाव के फलस्वरूप एक नया परिवर्तन आया भोगवादी होता जा रहा है कि एक सामान्य जैन गृहस्थ की अपेक्षा भी और अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का जन्म हुआ। फिर भी पुरानी परम्पराएं उसका खान-पान और सम्पूर्ण जीवन शैली अधिक सुविधासम्पन्न हो गयी यथावत चलती रहीं। पुनः बीसवीं शती में गांधी जी के गुरुतुल्य है। एक श्रमण के लिए वर्ष में होने वाला खर्च सामान्य गृहस्थ से कई श्रीमद्राजचन्द्र के कारण अध्यात्म प्रेमियों का एक नया संघ बना। यद्यपि गुना अधिक होता है। सदस्य संख्या की दृष्टि से चाहे यह संघ प्रभावशाली न हो किन्तु उनकी आज के जैन श्रमण की जीवन शैली इतनी सुविधाभोगी हो अध्यात्मनिष्ठा आज इसकी एक अलग पहचान बनाती है। इसी प्रकार गई है कि वह जन-सामान्य की उपेक्षा सम्पन्न श्रेष्ठिवर्ग के आसपास श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा में दीक्षित कानजी स्वामी ने महान् केन्द्रित हो रहा है और उसकी जीवन शैली उसे और अधिक सुविधाअध्यात्मवादी दिगम्बर संत कुन्दकुन्द के 'समयसार' जैसे अध्यात्म और भोगी बना रही है- यदि वाहन प्रयोग सामान्य हो गया तो जैन श्रमण जन'निश्चयनय प्रधान ग्रन्थ के अध्ययन से दिगम्बर पराम्परा में इस शताब्दी साधारण और ग्रामीण जैन परिवार से बिल्कुल कट जायेगा। वाहन सुविधा में एक नये आंदोलन को जन्म दिया। और विदेश यात्रा को युग की आवश्यकता मानकर भी उस सम्बन्ध में कुछ मर्यादाएँ निश्चित करनी होंगी। विदेशयात्रा और वाहन-प्रयोग की नवीन परम्परा १. चरित्रवान् और विद्वान् श्रमण या श्रमणी ही आचार्य और संघ की आज पुन: जैनधर्म के आचार-विचार को लेकर परिवर्तन की अनुमति से विदेश भेजे जायें। यह निर्णय पूर्णत: आचार्य और संघ बात कही जाती हैं। परम्परागत आचार व्यवस्था को नकार कर श्वेताम्बर की सर्वोच्च समिति के अधीन हो कि किस श्रमण या श्रमणी को जैनमुनियों एवं दिगम्बर भट्टारकों का एक वर्ग वाहन प्रयोग और विदेश विदेश भेजा जाये। यात्रा को आज आवश्यक मानने लगा है। यह सत्य है कि युगीन २. जिस श्रमण या श्रमणी को विदेश यात्रा के लिए भेजा जाये उसे उस परस्थितियों के बदलने पर किसी भी जीवित धर्म के लिए यह आवश्यक देश की भाषा और जैनशास्त्र तथा दर्शन का समुचित ज्ञान हो और होता है कि वह युगानुरूप अपनी जीवन-शैली में परिवर्तन करे। आज उनके ज्ञान का प्रमाणीकरण और उनकी जैनधर्म के प्रति निष्ठा का विज्ञान और तकनीकी का युग है। प्रगति के कारण आज देशों के बीच सम्यक् मूल्यांकन हो। दूरियाँ सिमट गयीं। आज जैन परिवार भी विश्व के प्रत्येक कोने में पहुँच ३. विदेश यात्रा धर्म संस्कार जागृत करने के लिए हो न कि घूमने-फिरने चुके हैं। अत: उनके संस्कारों को जीवित रखने और विश्व में जैनधर्म की के लिए। अतः प्रथमतः उन्हीं क्षेत्रों में यात्रा की अनुमति हो जहाँ अस्मिता को स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि जैन श्रमण वर्ग जैन परिवारों का निवास हो और उस क्षेत्र में वे अपने परम्परागत विश्व के देशों की यात्रा कर जैनधर्म का प्रसार करे, किन्तु इस हेतु आचार- नियमों का वाहन प्रयोग आदि के अपवाद को छोड़कर उसी प्रकार नियमों में कुछ परिवर्तन तो लाना ही होगा। धर्म प्रसार के लिए जैन श्रमण पालन कर सकें। देश-विदेश की यात्राएँ प्राचीनकाल से ही करते रहे। महावीर के युग में ४. अपरिपक्व वय और अपरिपक्व विचारों के श्रमण-श्रमणियों को जैन मुनियों ने यात्रा में बाधक नदियों को नावों से पार करके अपनी यात्राएँ किसी भी परिस्थिति में विदेश यात्रा की अनुमति न दी जाये। की थीं। मात्र नदियों को पार करके ही नहीं, महासागर को जहाजों से ५. जिस प्रकार प्राचीनकाल में बड़ी नदियों को नौका से पार करने की पार करके भी जैन मुनियों ने लंका और सुवर्णद्वीप तक की यात्राएँ की वर्ष में संख्या निर्धारित होती थी, उसी प्रकार वर्ष में एक या दो थीं, ऐसे ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं। अत: आज यदि विदेशों में जैनधर्म से अधिक यात्राओं की अनमुति न हो। जिस क्षेत्र में वे जायें, वहाँ के प्रसार के लिए कोई जैन मुनि वायुयान से यात्रा कर लेता है तो वह रुककर संस्कार जागरण का कार्य करें, न कि भ्रमण-सुख के लिए कोई बहुत बड़ा अपराध करता है, यह नहीं कहा जा सकता। किन्तु जहां यात्राएँ करते रहें। पाद विहार की सुविधाएँ उपलब्ध हैं, वहाँ भी वाहन प्रयोग तो उचित ६. वाहन यात्रा को अपवाद् मार्ग ही माना जाये और उसके लिए समुचित नहीं माना जा सकता। पुनः हमें यह भी विचार करना होगा कि वह विदेश प्रायश्चित्त की व्यवस्था हो। यात्रा जैनधर्म की गरिमा को स्थापित करती है या उसे खण्डित करती ७. देश में भी आपवादिक परस्थितियों में अथवा किसी सुदूर प्रदेश की है। विदेशों में जैन मुनि जैनधर्म का गौरव तभी स्थापित कर सकता है यात्रा ज्ञान-साधना अथवा धर्म के प्रसार के लिए आवश्यक होने पर । जब उसकी अपनी जीवनचर्या कठोर एवं संयमपरक हो। हमें इस तथ्य ही वाहन द्वारा यात्रा की अनुमति दी जाये। बिना अनमुति के वाहन Jain Education International For Private & Personal Use Only 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