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ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचायें : एक विमर्श
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शिव, शंकर आदि पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त हुए हैं। जैन दृष्टि से इन्हें सातवीं ऋचा (७.५५.७) में यह कहा गया है कि सहस्त्र श्रृङ्ग वाला वृषभ वृषभ का विशेषण भी माना गया है। अत: किसे किसका विशेषण माना समुद्र से ऊपर आया। यद्यपि वैदिक विद्वान् इस ऋचा की व्याख्या में वृषभ जाय, यह निर्धारण सहज नहीं है। ऋग्वेद में जो रुद्र की स्तुति है उसमें का अर्थ सूर्य करते हैं, वे वृषभ का सूर्य अर्थ इस आधार पर लगाते हैं ५ बार वृषभ शब्द का और ३ बार अर्हन् शब्द का उल्लेख हुआ है। मात्र कि वृषभ शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है जो वर्षा का कारण होता है, इतना ही नहीं, रुद्र को अर्हन् शब्द से भी सम्बोधित किया गया है। इतना वह वृषभ है। क्योंकि सूर्य वृष्टि का कारण है, अत: वृषभ का एक अर्थ तो निश्चित है कि अर्हन् विशेषण ऋषभदेव के लिए ही अधिक समीचीन सूर्य भी हो सकता है। सहस्र श्रृङ्ग का अर्थ भी वे सूर्य की हजारों किरणों है क्योंकि यह मान्य तथ्य है कि उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म आर्हत धर्म है। से करते हैं, किन्तु जैन दृष्टि से इसका अर्थ यह भी किया जा सकता अत: ऋग्वेद में रुद्र की जो स्तुति प्राप्त होती है उसमें यदि रुद्र को वृषभ है कि ज्ञान रूपी सहस्त्रों किरणों से मण्डित ऋषभदेव समुद्रतट पर आये। माना जाय तो वह वृषभ की स्तुति के रूप में भी व्याख्यायित हो सकती इसी ऋचा की अगली पंक्ति का शब्दार्थ इस प्रकार है- उस की सहायता है। यद्यपि मैं इसे एक सम्भावित व्याख्या से अधिक नहीं मानता हूँ। इस से हम मनुष्यों को सुला देते हैं, किन्तु सूर्य की सहायता से मनुष्यों को सम्बन्ध में पूर्ण सुनिश्चितता का दावा करना मिथ्या होगा।
कैसे सुलाया जा सकता है यह बात सामान्य बुद्धि की समझ में नहीं आती। ऋग्वेद में वृषभ शब्द का बृहस्पति के विशेषण के रूप में भी फिर भी सहस्त्र श्रृङ्ग की व्याख्या तो लाक्षणिक दृष्टि से ही करना होगा। माना गया है। यहाँ भी यही समस्या है। हम बृहस्पति को भी वृषभ का वृषभ शब्द बैल का वाची भी है और ऋग्वेद में बैल के क्रियाकलापों विशेषण बना सकते हैं क्योंकि ऋषभ को परमज्ञानी माना गया है। इस की अग्नि, इन्द्र आदि से तुलना भी की गई है जैसे ८वें मण्डल में शिशानो प्रकार हम देखते हैं कि वृषभ शब्द इन्द्र, अग्नि, रुद्र अथवा बृहस्पति वृषभो यथाग्निः श्रृङ्ग दविध्वत, (८.६८.१३) में हम देखते हैं कि अग्नि का विशेषण माना जाय या इन शब्दों को वृषभ का विशेषण माना जाय, की तुलना वृषभ से की गयी है और कहा गया है कि जैसे वृषभ अपने इस समस्या का सम्यक् समाधान इतना ही हो सकता है कि इन व्याख्याओं सीगों से प्रहार करते समय अपने सिर को हिलाता है उसी प्रकार अग्नि में दृष्टिभेद ही प्रमुख है। दोनों व्याख्याओं में किसी को भी हम पूर्णतः भी अपनी ज्वालाओं को हिलाता है। असंगत नहीं कह सकते। किन्तु यदि जैन दृष्टि से विचार करें तो हमें मानना इसी प्रकार की अन्य ऋचायें भी हैं- वृषभो न तिग्मश्रृंगोऽन्त!थेषु होगा कि रुद्र, इन्द्र, अग्नि आदि ऋषभ के विशेषण हैं।
रोरुवत- (१०.८६.१५) तीक्ष्ण सींग वाले वृषभ के समान जो अपने ऋग्वेद में हमें एक सबसे महत्त्वपूर्ण सूचना यह मिलती है कि समूह में शब्द करता है। इसका जैन दृष्टि से लाक्षणिक अर्थ यह भी हो अनेक सन्दर्भो में वृषभ का एक विशेषण मरुत्वान् आया है (वृषभों सकता है कि तीक्ष्ण प्रज्ञा वाले ऋषभ देव अपने समूह अर्थात् चतुर्विध मरुत्वान् (२.३३.६))। जैन परम्परा में ऋषभ को मरुदेवी का पुत्र माना संघ या परिषद में उपदेश देते हैं और हे इन्द्र! तुम भी उन पर मंथन गया है, अत: उनके साथ यह विशेषण समुचित प्रतीत होता है। या चिन्तन करो। ज्ञातव्य है इस ऋचा में 'न' शब्द समानता या तुलना
ऋग्वेद में वृषभ सम्बन्धी ऋचाओं की व्याख्या के सम्बन्ध में का वाची है। इसी प्रकार 'आशुः शिसानो वृषभो न' (१०.१०३.१) में यह भी स्पष्ट है कि अनेक प्रसंगों में उनकी लाक्षणिक व्याख्या के अतिरिक्त भी तुलना है। अन्य कोई विकल्प नहीं रहता है।
इस प्रकार ऋग्वेद में वृषभ शब्द तुलना की दृष्टि से बैल के ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल के अट्ठावनवें सूक्त की तीसरी ऋचा अर्थ में भी अनेक स्थलों में प्रयुक्त हुआ है। में वृषभ को चार सीगों, तीन पादा या पावों, दो शीर्ष, सात हस्त एवं उपर्युक्त समस्त चर्चाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर तीन प्रकार से बद्ध कहा गया है। यह ऋचा स्पष्ट रूप से ऋषभ को समर्पित पहुचते हैं कि ऋग्वेद में जिन-जिन स्थानों पर वृषभ शब्द का प्रयोग हुआ है। इसमें ऋषभ को मृत्यों में उपस्थित या प्रविष्ठ महादेव कहा गया है। है उन सभी स्थलों की व्याख्या वृषभ को 'ऋषभ' मानकर नहीं की जा इस ऋचा की कठिनाई यह है कि इसे किसी भी स्थिति में अपने सकती है। मात्र कुछ स्थल हैं जहाँ पर ऋग्वेद में प्रयुक्त वृषभ की व्याख्या शब्दानुसारी सहज अर्थ द्वारा व्याख्यायित नहीं किया जा सकता क्योंकि ऋषभ के सन्दर्भ में की जा सकती है। इनमें भी सम्पूर्ण ऋचा को न तो वृषभ के चार सींग होते हैं, न तीन पाद, न दो शिर होते हैं, न व्याख्यायित करने के लिये लाक्षणिक अर्थ का ही ग्रहण करना होगा। ही सात हाथ होते हैं, चाहे हम किसी भी परम्परा की दृष्टि से इस ऋचा अधिक से अधिक हम यह कह सकते हैं कि ऋग्वैदिक काल में वृषभ की व्याख्या करें, लाक्षणिक रूप. में ही करना होगा। ऐसी स्थिति में इस एक उपास्य या स्तुत्य ऋषि के रूप में गृहीत थे। ऋचा को जहाँ दयानन्द सरस्वती आदि वैदिक परम्परा के विद्धानों ने हिन्दू पुन: ऋग्वेद में वृषभ का रुद्र, इन्द्र, अग्नि आदि के साथ जो परम्परानुसार व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया, वही जैन विद्वानों ने समीकरण किया गया है वह इतना अवश्य बताता है कि यह समीकरण इसे जैन दृष्टि से व्याख्यायित किया। जब सहज शब्दानुसारी अर्थ संभव परवर्ती काल में प्रचलित रहा। ६ठी शती से लेकर १०वीं शती के जैन नहीं है तब लाक्षणिक अर्थ के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प भी शेष नहीं साहित्य में जहाँ ऋषभ की स्तुति या उसके पर्यायवाची नामों का उल्लेख
है उनमें ऋषभ की स्तुति इसी रूप में की गयी। ऋषभ के शिव, परमेश्वर, इसी प्रकार ऋग्वेद के ७वें मण्डल के पच्चावनवें सूक्त की शंकर, विधाता आदि नामों की चर्चा हमें जैन परम्परा के प्रसिद्ध भक्तामर
रहता।
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