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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ आचारांग आदि में हमें जैन तीर्थस्थलों का कोई उल्लेख नहीं मिलता है की जन्म कल्याणक आदि भूमियों के अतिरिक्त उत्तरापथ में धर्मचक्र, यद्यपि उनमें हिन्दू परम्परा के तीर्थस्थलों पर होने वाले महोत्सवों तथा मथुरा में देवनिर्मितस्तूप और कौशल की जीवन्तस्वामी की प्रतिमा को यात्राओं का उल्लेख मिलता है। परन्तु आध्यात्ममार्गी जैन परम्परा मुनि पूज्य बताया गया है ।२७ इसी प्रकार वे स्थल, जहां कलात्मक एवं भव्य के लिए इन तीर्थमेलों और यात्राओं में भाग लेने का भी निषेध करती मन्दिरों का निर्माण हुआ अथवा किसी जिन-प्रतिमा को चमत्कारी मान थी । ईसा की प्रथम शताब्दी से पांचवीं शताब्दी के मध्य निर्मित लिया गया, तीर्थ रूप में मान्य हुए। उत्तरापथ, मथुरा और कोशल आदि परवर्ती आगमिक साहित्य में भी यद्यपि जैन तीर्थस्थलों और तीर्थयात्राओं की तीर्थ रूप में प्रसिद्धि इसी कारण थी। हमारी दृष्टि से सम्भवतः आगे के स्पष्ट संकेत तो नहीं मिलते, फिर भी इनमें तीर्थङ्करों की कल्याणकभूमियों, चलकर तीर्थों का जो विभाजन कल्याणक क्षेत्र, सिद्धक्षेत्र और अतिशयक्षेत्र विशेष रूप से जन्म एवं निर्वाणस्थलों की चर्चा है२२ । साथ ही तीर्थङ्करों के रूप में हुआ, उसका भी यही कारण था। की चिता-भस्म एवं अस्थियों को क्षीरसमुद्रादि में प्रवाहित करने तथा तीर्थ क्षेत्र के प्रकार - जैन परम्परा में तीर्थ स्थलों का देवलोक में उनके रखे जाने के उल्लेख इन आगमों में हैं । उनमें वर्गीकरण मुख्य रूप से तीन वर्गों में किया जाता है - अस्थियों एवं चिता-भस्म पर चैत्य और स्तूप के निर्माण के उल्लेख भी १. कल्याणकक्षेत्र, २. निर्वाणक्षेत्र और ३. अतिशयक्षेत्र । मिलते हैं । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में ऋषभ के निर्वाणस्थल पर स्तूप बनाने का १.कल्याणक क्षेत्र- जैन परम्परा में सामान्यतया प्रत्येक उल्लेख है२३ । इस काल के आगम ग्रन्थों में हमें देवलोक एवं तीर्थंकर के पांच कल्याणक माने गये हैं। कल्याणक शब्द का तात्पर्य नन्दीश्वरद्वीप में निर्मित चैत्य आदि के उल्लेखों के साथ-साथ यह भी तीर्थंकर के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना से सम्बन्धित पवित्र दिन से है। वर्णन मिलता है कि पर्व-तिथियों में देवता नन्दीश्वरद्वीप जाकर महोत्सव जैन परम्परा में तीर्थंकरों के गर्भ-प्रवेश, जन्म, दीक्षा (अभिनिष्क्रमण), आदि मनाते हैं।४ । यद्यपि इस काल के आगमों में अरिहंतों के स्तूपों कैवल्य (बोधिप्राप्ति) और निर्वाण दिवसों को कल्याण दिवस के रूप एवं चैत्यों के उल्लेख तो हैं किन्तु उन पवित्र स्थलों पर मनुष्यों द्वारा में माना जाता है। तीर्थंकर के जीवन की ये महत्त्वपूर्ण घटनाएँ जिस नगर आयोजित होने वाले महोत्सवों और उनकी तीर्थ-यात्राओं पर जाने का या स्थल पर घटित होती हैं उसे कल्याणक भूमि कहा जाता है। तीर्थंकरों कोई उल्लेख नहीं है । विद्वानों से मेरी अपेक्षा है कि यदि उन्हें इस तरह की इन कल्याणक भूमियों का एक संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार हैका कोई उल्लेख मिले तो वे सूचित करें।
२. निर्वाणक्षेत्र- निर्वाणक्षेत्र को सामन्यतया सिद्धक्षेत्र भी यद्यपि लोहानीपुर और मथुरा में उपलब्ध जिन-मूर्तियों, आयागपट्टों, कहा जाता है । जिस स्थल से किसी मुनि को निर्वाण प्राप्त होता है, स्तूपांकनों तथा पूजा के निमित्त कमल लेकर प्रस्थान आदि के अंकनों वह स्थल सिद्धक्षेत्र या निर्वाणस्थल के नाम से जाना जाता है । सामान्य से यह तो निश्चित हो जाता है कि जैन परम्परा में चैत्यों के निर्माण और मान्यता तो यह है कि इस भूमण्डल पर ऐसी कोई भी जगह नहीं है जहाँ जिन प्रतिमा के पूजन की परम्परा ई०पू० की तीसरी शताब्दी में भी से कोई न कोई मुनि सिद्धि को प्राप्त न हुआ हो । अत: व्यावहारिक दृष्टि प्रचलित थी। किन्तु तीर्थ और तीर्थयात्रा सम्बन्धी उल्लेखों का आचारांग, से तो समस्त भूमण्डल ही सिद्धक्षेत्र या निर्वाणक्षेत्र है । फिर भी उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक जैसे इस काल के प्राचीन आगमों में सामान्यतया जहाँ से अनेक सुप्रसिद्ध मुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया हो, अभाव हमारे सामने एक प्रश्न चिह्न तो अवश्य ही उपस्थित करता है। उसे निर्वाण क्षेत्र कहा जाता है। जैन परम्परा में शत्रुजय, पावागिरि,
तीर्थ और तीर्थयात्रा सम्बन्धी समस्त उल्लेख नियुक्ति, भाष्य तुंगीगिरि) सिद्धवरकूट, चूलगिरि, रेशन्दगिरि, सोनागिरि आदि सिद्धक्षेत्र और चूर्णि साहित्य में उपलब्ध होते हैं । आचारांग नियुक्ति में अष्टापद, माने जाते हैं। सिद्धक्षेत्रों की विशिष्ट मान्यता तो दिगम्बर परम्परा में ऊर्जयन्त, गजाग्रपद, धर्मचक्र और अहिच्छत्रा को वन्दन किया गया प्रचलित है, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में भी शत्रुजयतीर्थ सिद्धक्षेत्र ही है। है ।२५ इससे यह स्पष्ट होता है कि नियुक्ति काल में तीर्थस्थलों के दर्शन,
३. अतिशयक्षेत्र- वे स्थल, जो न तो किसी तीर्थङ्कर की वन्दन एवं यात्रा की अवधारणा स्पष्ट रूप से बन चुकी थी और इसे पुण्य कल्याणक-भूमि हैं, न किसी मुनि की साधना या निर्वाण-भूमि हैं किन्तु कार्य माना जाता था । निशीथचूर्णि में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जहाँ की जिन-मूर्तियाँ चमत्कारी हैं अथवा जहाँ के मन्दिर भव्य हैं, वे तीर्थङ्करों की कल्याणक भूमियों की यात्रा करने से दर्शन की विशुद्धि अतिशय क्षेत्र कहे जाते है । आज जैन परम्परा में अधिकांश तीर्थ होती है अर्थात् व्यक्ति की श्रद्धा पुष्ट होती है।
अतिशयक्षेत्र के रूप में ही माने जाते है । उदाहरण के रूप में आबू, इस प्रकार जैनों में तीर्थङ्करों की कल्याणक-भूमियों की तीर्थरूप रणकपुर, जैसलमेर, श्रवणबेलगोला आदि इसी रूप में प्रसिद्ध हैं । हमें में स्वीकार कर उनकी यात्रा के स्पष्ट उल्लेख सर्वप्रथम लगभग छठी स्मरण रखना चाहिए कि जैनों के कुछ तीर्थ न केवल तीर्थंकरों की शती से मिलने लगते हैं । यद्यपि इसके पूर्व भी यह परम्परा प्रचलित मूर्तियों के चामत्कारिक होने के कारण, अपितु उस तीर्थ के अधिष्ठायक तो अवश्य ही रही होगी। इस काल में कल्याणक भूमियों के अतिरिक्त देवों की चमत्कारिता के कारण भी प्रसिद्धि उन तीर्थों के अधिष्ठायक वे स्थल, जो मन्दिर और मूर्तिकला के कारण प्रसिद्ध हो गये थे, उन्हें देवों के कारण ही हुई है। इसी प्रकार हुम्मच की प्रसिद्धि पार्श्व की यक्षी भी तीर्थ के रूप में स्वीकार किया गया और उनकी यात्रा एवं वन्दन को पद्मावती की मूर्ति के चामत्कारिक होने के आधार पर ही है। भी बोधिलाभ और निर्जरा का कारण माना गया। निशीथचूर्णि में तीर्थङ्करों इन तीन प्रकार के तीर्थों के अतिरिक्त कुछ तीर्थ ऐसे भी हैं जो
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