Book Title: Sagarmal Jain Abhinandan Granth
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 848
________________ ७१६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 25. १२. संस्कृत हिन्दी कोश-वामन शिवराम आप्टे, पृष्ठ ३२७/ -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २/३३, पृ० १५७-१५८। १३. नयेयुरेते सीमानं स्थलाङ्गारतुषद्रुमैः।। (ब) आवश्यकनियुक्ति, गाथा ४३५। सेतुवल्मीकनिम्नास्थिचैत्याद्यैरुपलक्षिताम् ॥१५१॥ (मूल के लिए देखिए इसी लेख का पृ०१३२ का सन्दर्भ क्रमांक ६)। चैत्यश्मशानसीमासु पुण्यस्थाने सुरालये। २२. देखें-इसी लेख का पृ० १३२ का सन्दर्भ क्रमांक १॥ जातद्रुमाणां द्विगुणो दमो वृक्षे च विश्रुते ।।२२८।। २३. वेसालिए णगरीए णगरणाभीए मुणिसुव्वयसामिस्स थूभो। -याज्ञवल्क्यस्मृति, व्यवहाराध्याय। -आवश्यकचूर्णि (पारिणामिक बुद्धि प्रकरण) पृ० ५३७ १४. वाचस्पत्ययम्, पृष्ठ २९६६। 24. An inscription (Luders, List No. 47) dated 79 (A.D. १५. (अ). आचारांग (द्वितीय-श्रुतस्कन्ध-आयारचूला) १/२४, ३/ 157) or (A.D. 127), on the pedestal of a missing ४७; ४/२१ (इनके मूलपाठों के लिए देखें इसी लेख का सन्दर्भ image mentions the installation of an image of Arhat Nandiāvarta at the so-called Vodva Stupa built by क्रमांक १) the gods (devanirmita). (ब). से भिक्खू वा भिक्खुणी वा.....मडयथूभियासु वा, -Jaina Art and Architecture, A. Ghosh, Vol. I.P. 53. मडयचेइएस वा......णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा। Sri Mahavira Commemoration, Vol. I. Agra, PP. -वही, १०/२३। 189-190. तेसि णं अंजणगपव्वयाणं उवरि बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा २६. मथुरायां नगर्यां कोऽपि क्षपक आतापयति, यस्यातापनां दृष्ट्वा पण्णत्ता। तेसिणं बहुसमरमणिज्जाणं भूमि-भागाणं बहुमज्झदेसभागे देवता आदृता तमागत्य वन्दित्वा ब्रूते, यन्मया कर्तव्यं चत्तारि सिद्धायतणा पण्णत्ता तन्ममाज्ञापयेद्भवानिति। एवमुक्ते सा क्षपकेण भण्यते, किं मम तेसि णं दाराणं पुरओ चत्तारि मुहमंडवा पण्णत्ता। कार्यमसंयत्या भविष्यति, ततस्तस्या देवताया अप्रीतिकमभूत्। तेसि णं मुहमंडवाणं पुरओ चत्तारि पेच्छाघरमंडवा पण्णत्ता। अप्रीतिवत्या च तयोक्तमवश्यं तव मया कार्य भविष्यति, ततो तेसिणं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ। देवताया सर्वरत्नमयः स्तूपो निर्मितः, तत्र भिक्षवो रक्तपटा तासि णं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि-चत्तारि चेइयथूभा पण्णत्ता। उपस्थिता; अयमस्मदीय: स्तूप; तैः समं सङ्घस्य षण्मासान् विवादो तेसि णं चेइयथूभाणं उवरिं चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ। जातः, ततः सङ्घो ब्रूते-को नामात्रार्थे शक्तः, केनापि कथितं तासिणं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि जिणपडिमाओ सव्वरयणामईओ यथामुकः क्षपकः, ततः सङ्घन स भण्यते-क्षपक! कायोत्सर्गेण संपलियंकणिसण्णाओ थूभाभिमुहाओ चिटुंति, तं जहा-रिसभा, देवतामाकम्पय, तत: क्षपकस्य कायोत्सर्गकरणं देवताया आकम्पनम् वद्धमाणा, चंदाणणा, वारिसेणा। सा आगता ब्रूते-संदिशत किं करोमि, क्षपकेण भणिता-तथा कुरूत -स्थानांग, ४/३३९। यथा सङ्घस्य जयो भवति, ततो देवताया क्षपकस्य खिंसना कृता, १७. सोहम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए चेइयक्खंभे हेट्ठा उवरिं च यथा एतन्मया असंयत्या अपि कार्यजातं एवं खिंसित्वा सा ब्रूतेअद्धतेरस-अद्धतेरस जोयणाणि वज्जेत्ता मज्झे पणतीस जोयणेसु यूयं राज्ञः समीपं गत्वा ब्रूत, यदि रक्तपटानां स्तूप: तत: कल्ये वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु जिण-सकहाओ पण्णत्ताओ। पताका दृश्यतां, अथास्माकं तर्हि शुक्ला पताका, राजा प्रतिपन्नमेवं -समवायांग, ३५/५। भवतु, ततो राज्ञा प्रत्ययिकरपुरुषैः स्तूपो रक्षापित: रात्रौ देवताया १८. मानस्तम्भमहाचैत्यद्रुमसिद्धार्थपादपान्। शुक्ला पताका कृता, प्रभाते दृष्टा स्तूपे शुक्ला पताका, जितं प्रेक्षमाणो व्यतीयाय स्तूपांश्चार्चितपूजितान्।। सङ्केन। -आदिपुराण, ४१/२०। -व्यवहारचूर्णि, मलयगिरि टीका-पञ्चम उद्देशक, पृ० ८। १९. (अ). णणस्थ अरिहंस वा अरिहंत चेइयाणि वा अणगारे वा २७ वैरकमारकथा गाण वा अणगार वा २७. वैरकुमारकथानकम्-बृहत्कथाकोश (हरिषेण) भारतीय विद्याभवन, भावियप्पणो णीसाए उ8 उप्पयति जाव सोहम्मो कप्पो। बम्बई, १९४२ ई०, पू० २२-२७१ -भगवती सूत्र, ३/२। २८. यशस्तिलकचम्पू, अनु० व प्रकाशक-सुन्दरलाल शास्त्री, वाराणसी। (ब). अरहंतचेइयाई वंदित्तए वा नमंसित्तए वा। ब्रजकुमारकथा-पृ०२७०, षष्ठ आश्वास। -उपासकदसांग, १/४५। २९. विविधतीर्थकल्प-मथुरापुरीकल्प। २० (अ). उज्जलमणिकणगरयणथूभिय.....। ३०. प्रो० टी०वी०जी० शास्त्री ने गन्तूर जिले के अमरावती से करीब ७ (ब) मणिकणथूभियाए। किलोमीटर दूर बड्डमाण गाँव में ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी (२३६ ई० -ज्ञाताधर्मकथा, १/१८ १/८९। पू०) का जैनस्तूप खोज निकाला है। यहीं भद्रबाहु के शिष्य गोदास२१. (अ) महइमहालए तओ चेइअथूभे करेह, एवं भगवओ तित्थगरस्स जिनका नाम कल्पसूत्र पट्टावली में है-के उल्लेख से युक्त शिलालेख चिइगाए, एगं गणहरस्स, एगं अवसेसाणं अणगाराणं चिइगाए। भी मिला है। दि० जैन महासमिति बुलेटिन, मार्च १९८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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