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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
के ही उल्लेख हैं, जिनकी ऐतिहासिकता संदिग्ध ही है। मथुरा के (क्षपणक) इस कार्य को करने में समर्थ है। संघ उनके पास गया। क्षपणक ऐतिहासिक स्तूप का प्राचीनतम उल्लेख व्यवहारचूर्णि में और व्यवहारसूत्र से कहा कि कायोत्सर्ग कर देवी को आकम्पित करो अर्थात् बुलाओ। की मलयगिरि की टीका२२ में मिलता है। इस स्तूप के सम्बन्ध में परवर्ती उन्होंने कायोत्सर्ग कर देवी को बुलाया। देवी ने आकर कहा- "बताइये दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्य में अन्यत्र भी उल्लेख मिलते हैं। मैं क्या करूँ?" तब मुनि ने कहा- “जिससे संघ की जय हो वैसा करो।" आवश्यकचूर्णि में वैशाली के मुनिसुव्रतस्वामी के स्तूप का उल्लेख है।२३ देवी ने व्यंग्यपूर्वक कहा- “अब मुझ असंयति से भी तुम्हारा कार्य होगा। इस समग्र चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि जैन साहित्य तुम राजा के पास जाकर कहो कि यदि यह स्तूप बौद्धों का होगा तो इसके में जो स्तूप-सम्बन्धी विवरण उपलब्ध हैं, उनमें ऐतिहासिक दृष्टि से मथुरा शिखर पर रक्त-पताका होगी और यदि यह हमारा अर्थात् जैनों का होगा
और वैशाली के प्रसंग ही महत्त्वपूर्ण हैं और उसमें भी वैशाली के सम्बन्ध तो शुक्ल-पताका दिखायी देगी।" उस समय राजा के कुछ विश्वासी पुरुषों में कोई पुरातात्त्विक प्रमाण नहीं मिले हैं। जैन धर्म में स्तूप-निर्माण और ने स्तूप पर रक्त-पताका लगवा दी। तब देवी ने रात्रि को उसे श्वेत-पताका स्तूप-पूजा के पुरातात्त्विक प्रमाण अभी तक तो केवल मथुरा से उपलब्ध कर दिया। प्रात:काल स्तूप पर शुक्ल-पताका दिखायी देने से जैन संघ हुए है।२४ वैशाली के स्तूप को मुनिसुव्रत का स्तूप कहा गया है। मथुरा विजयी हो गया।२६ मथुरा के देव-निर्मित स्तूप का यह संकेत किंचित् के स्तूप के पास से उपलब्ध एक पाद-पीठ के लेख को प्रो०के०डी० रूपान्तर के साथ दिगम्बर परम्परा में हरिषेण के बृहद्कथाकोश के वाजपेयी ने अर्हत् मुनिसुव्रत पढ़ा है।२५ कहीं ऐसा तो नहीं कि वैरकुमार के आख्यान में२७ तथा सोमदेवसूरि के यशस्तिलकचम्पू के आवश्यकचूर्णिकार ने भ्रमवश उसे वैशाली में स्थित कह दिया हो। षष्ठ आश्वास में ब्रजकुमार की कथा में २८ मिलता है। पुन: चौदहवीं शताब्दी
पुरातत्त्व की दृष्टि से मथुरा में न केवल जैन स्तूप के अवशेष में जिनप्रभसूरि ने भी विविधतीर्थकल्प के मथुरापुरीकल्प में इसका उल्लेख उपलब्ध हुए हैं, अपितु अनेक आयागपटों पर भी स्तूपों का अंकन और किया है २९। बौद्धों से हुए विवाद का भी किंचित् रूपान्तर के साथ सभी स्तूप पूजा के दृश्य उपलब्ध होते हैं। एक शिलाखण्ड में तो आसपास ने उल्लेख किया है। जिन-प्रतिमाओं का और बीच में स्तूप का अंकन है। एक अन्य आयागपट इस कथा से तीन स्पष्ट निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। प्रथम पर पुरुषों को स्तूप की पूजा करते हुए दिखाया गया है। मथुरा से तो उस स्तूप को देव-निर्मित कहने का तात्पर्य यही है कि उसके निर्माता उपलब्ध स्तूप-अंकन से युक्त अनेक आयागपटों पर शिलालेख भी हैं। के सम्बन्ध में जैनाचार्यों को स्पष्ट रूप से कुछ ज्ञात नहीं था, दूसरे उसके इस सबसे इतना स्पष्ट हो जाता है कि इस काल में जैनों में स्तूप-निर्माण स्वामित्व को लेकर जैन और बौद्ध-संघ में कोई विवाद हुआ था, तीसरे
और स्तूप-पूजा की परम्परा रही है। स्तूप के आसपास जिन-प्रतिमा से यह कि जैनों में स्तूपपूजा प्रारम्भ हो चुकी थी। यह भी निश्चित है कि परवर्ती युक्त शिलाखण्ड इसका सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण है, किन्तु मथुरा में जो साहित्य में उस स्तूप का जैनस्तूप के रूप में ही उल्लेख हुआ है। अत: भी स्तूप और स्तूपों के अंकन सहित आयागपट मिले हैं, वे सभी ईसा इस विवाद के पश्चात् यह स्तूप जैनों के अधिकार में रहा-इस बात से पूर्व दूसरी शती से लेकर ईसा की तीसरी शताब्दी तक के ही हैं। ईसा भी इन्कार नहीं किया जा सकता है। लेकिन यहाँ मूल प्रश्न यह है कि की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के बाद से न तो स्तूप मिलते हैं और न स्तूपों क्या उस स्तूप का निर्माण मूलत: जैन स्तूप के रूप में हुआ था अथवा.. के अंकन से युक्त आयागपट ही। इस सम्बन्ध में प्रो० उमाकांत शाह की वह मूलत: एक बौद्ध परम्परा का स्तूप था और परवर्ती काल में वह जैनों पुस्तक 'Art and Architecturer, के अध्याय छठा और दसवां विशेष के अधिकार में चला गया। रूप से द्रष्टव्य हैं। इन पुरातात्त्विक प्रमाणों से भी मेरी इस मान्यता की इसे मूलत: बौद्ध परम्परा का स्तूप होने के पक्ष में निम्न तर्क पुष्टि होती है कि ईसा की. तीसरी और चौथी शताब्दी के बाद जैनों में दिये जा सकते हैं-सर्वप्रथम तो यह कि जैन परम्परा के आचारांग जैसे स्तूप-पूजा की प्रणाली लुप्त होने लगी थी। .
प्राचीनतम अंग-आगम साहित्य में जैन स्तूपों के निर्माण और उसकी पूजा व्यवहारचूर्णि और व्यवहारसूत्र की मलयगिरि टीका में मथुरा के उल्लेख नहीं मिलते हैं, अपितु स्तूपपूजा का निषेध ही है। यद्यपि कुछ के देवनिर्मित स्तूप के निर्माण की कथा एवं उसके स्वामित्व को लेकर परवर्ती आगमों-स्थानांग, जीवाभिगम, औपपातिक एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति जैनों और बौद्धों के विवाद की सूचना मिलती है। मलयगिरि लिखते हैं में जैन-परम्परा मे स्तूपनिर्माण और स्तूपपूजा के संकेत मिलने लगते हैं, कि मथुरा नगरी में कोई क्षपक-जैन मुनि कठिन तपस्या करता था, उसकी किन्तु ये सब ईसा की प्रथम शताब्दी की या उसके पश्चात् की रचनाएँ तपस्या से प्रभावित हो एक देवी आयी। उसकी वन्दना कर वह बोली हैं। दूसरे यदि जैन परम्परा में प्राचीन काल से स्तूप-निर्माण एवं स्तूपकि मेरे योग्य क्या कार्य है? इस पर जैन मुनि ने कहा-असंयति से · पूजा की पद्धति होती तो फिर मथुरा के अतिरिक्त अन्यत्र भी जैन स्तूप मेरा क्या कार्य होना? देवी को यह बात बहुत अप्रीतिकर लगी और उसने उपलब्ध होने चाहिये थे, किन्तु मथुरा के अतिरिक्त कहीं भी जैन स्तूपों कहा कि मुझसे तुम्हारा कार्य होगा, तब उसने एक सर्वरत्नमय स्तूप निर्मित के पुरातात्त्विक अवशेष उपलब्ध नहीं होते।३० जबकि बौद्ध परम्परा में किया। कुछ रक्तपट अर्थात् बौद्ध भिक्षु उपस्थित होकर कहने लगे यह मथुरा के अतिरिक्त अन्यत्र भी बौद्ध स्तूप और उनके अवशेष मिलते हैं। हमारा स्तूप है। छ: मास तक यह विवाद चलता रहा। संघ ने विचार किया . एक प्रश्न यह भी है कि यदि जैन धर्म में स्तूप-निर्माण एवं कि इस कार्य को करने में कौन समर्थ है। किसी ने कहा कि अमुक मुनि स्तूप-पूजा की परम्परा थी तो फिर वह एकदम विलुप्त कैसे हो गयी?
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