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जैनागम-धर्म में स्तूप
जैनागमों में स्तूप एवं स्तूप-मह का सर्वप्रथम उल्लेख हमें होता था, तो यह चैत्य-स्तूप कहलाता था। वाचस्पत्यम् में मुखरहित आचारांग सत्र के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध (आयारचूला) के तृतीय एवं चतुर्थ छत्राकार के यक्षायतनों के लिय चैत्य शब्द का भ अध्ययनों में मिलता है। आचारांग के पश्चात् अंग आगमों मे स्थानांगरे इस स्मृति-चिह्न में मृतात्मा (व्यन्तर) का निवास मानकर पूजा जाता था।
और प्रश्नव्याकरण में; उपांग साहित्य में जीवाभिगम, जम्बूद्वीप इस प्रकार विशिष्ट मृत व्यक्ति के स्मारक/स्मृति-चिह्न पूजा-स्थलों के रूप प्रज्ञप्ति; पुन: व्याख्यासाहित्य में हमें आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि", में परिवर्तित हो गये और पूजनीय माने जाने लगे। पहले जहाँ व्यक्ति के व्यवहारचूर्णि तथा आचारांग, स्थानांग आदि आगमों की टीकाओं में शव को जलाया जाता होगा, वहाँ चैत्यवृक्ष और चैत्यस्तूप बनते होंगे। स्तूप, चैत्यस्तूप एवं स्तूपमह का उल्लेख मिलता है। आचारांग में स्वतन्त्र आगे चलकर व्यक्ति के किसी शारीरिक अवशेष अर्थात् अस्थि, राख रूप से स्तूप शब्द का प्रयोग न होकर 'चैत्यकृत स्तूप' (थूभं, वा आदि पर चैत्य या स्तूप बनाये जाने लगे। फिर मात्र उन्हें पूजने के लिए चेइयकडं)-इस रूप में प्रयोग हुआ है। यहाँ चेइयकर्ड शब्द के अर्थ को यत्र-तत्र उनके नाम पर चैत्य या स्तूप बने। मूर्तिकला का विकास होने स्पष्ट कर लेना होगा। चेइयकडं शब्द भी दो शब्दों के योग से बना है- पर चैत्य यक्षायतन और सिद्धायतन अर्थात् यक्ष-मन्दिर या जिन-मन्दिर चेइय + कडं। प्रो० ढाकी का कहना है कि कडं शब्द प्राकृत कूड या के रूप में विकसित हुए। ईसा की छठी शताब्दी तक जैन साहित्य में संस्कृत कूट का सूचक है, जिसका अर्थ होता है-ढेर (Heap), विशेष चैत्य शब्द जिन-मन्दिर के अर्थ में भी प्रयुक्त होने लगा था और चैत्यालय, रूप से छत्राकार आकृति का ढेर। इस प्रकार वे "चेइयकर्ड" का अर्थ चैत्यगृह आदि जिन-मन्दिर के पर्यायवाची माने जाने लगे। करते हैं-कूटाकार या छत्राकार चैत्य तथा थूभ को इसका पर्यायवाची मानते किन्तु जहाँ तक आचारांग में प्रयुक्त चैत्यकृत-स्तूप के अर्थ का हैं। किन्तु मेरी दृष्टि में 'चेइयकडं' शब्द थूभ (स्तूप) का विशेषण है, प्रश्न है, उसमें उसका अर्थ है-किसी की स्मृति में उसके चिता-स्थल पर्यायवाची नहीं। चेइयकडं थूभ (चैत्यीकृत स्तूप) का तात्पर्य है-चिता पर अथवा उसके शारीरिक अवशेषों पर निर्मित मिट्टी, ईंटों या पत्थरों या शारीरिक अवशेषों पर निर्मित स्तूप अथवा चिता या शारीरिक अवशेषों की छत्राकार आकृति। प्रारम्भ में स्तूप किसी के चिता-स्थल अथवा अस्थि से सम्बन्धित स्तूप। स्तूप सम्भवत: वे स्तूप जो चिता-स्थल पर बनाये आदि शारीरिक अवशेषों पर निर्मित ईंट या पत्थरों की छत्राकार आकृति जाते थे अथवा जिनमें किसी व्यक्ति के शारीरिक अवशेष रख दिये जाते होता था। चैत्य-स्तूप के साथ-साथ चैत्य-वृक्षों का भी हमें आचारांग में थे, चैत्यीकृत स्तूप कहलाते थे। यहाँ कडं शब्द कूट का वाचक नहीं अपितु उल्लेख मिलता है। प्रथम तो किसी व्यक्ति के दाह-स्थल या समाधि-स्थल कृत का वाचक है। भगवती में कडं शब्द कृत का वाचक है१°। पुन: कडं पर उसकी स्मृति में वृक्षारोपण कर दिया जाता होगा और वही वृक्ष का कूट करने पर 'रुक्खं वा चेइयकडं' का ठीक अर्थ नहीं बैठेगा। “रुक्खं चैत्यवृक्ष कहलाता होगा। यद्यपि आगे चलकर जैन परम्परा में वह वृक्ष वा चेइयकडं" का अर्थ है-चिता-स्थल या अस्थि आदि के ऊपर रोपा भी चैत्यवृक्ष कहलाने लगा, जिसके नीचे किसी तीर्थंकर को केवल ज्ञान गया वृक्ष। चेइयकडं का अर्थ पूजनीय भी किया जा सकता है। प्रो० उत्पन्न होता था। क्रमश: इन चैत्य-वृक्षों एवं चैत्यस्तूपों की श्रद्धावान् उमाकांत शाह ११ ने यह अर्थ किया भी है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह परवर्ती सामान्यजनों के द्वारा पूजा की जाने लगी। आचारांग में जिन चैत्य-स्तूपों अर्थ-विकास का परिणाम है। अत: जैन साहित्य में स्तूप शब्द के अर्थ- का उल्लेख है, वे चैत्य-स्तूप जैन परम्परा या जैनधर्म सम्बन्धित हैंविकास को समझने के लिए चैत्य शब्द के अर्थ-विकास को समझना ऐसा कहना कठिन है, क्योंकि उसमें आकार, तोरण, तलगृह, प्रासाद, होगा। संस्कृत कोशों में चैत्य शब्द के पत्थरों का ढेर, स्मारक, समाधि- वृक्षगृह, पर्वत आदि की चर्चा के सन्दर्भ में ही चैत्य-वृक्ष और चैत्यप्रस्तर, यज्ञमण्डल, धार्मिक पूजा का स्थान, वेदी, देवमूर्ति स्थापित करने स्तूपों का उल्लेख हुआ है। साथ ही जैनमुनि को स्तूप आदि को उचकका स्थान, देवालय, बौद्ध और जैन मन्दिर आदि अनेक अर्थ दिये गये उचक कर देखने तथा स्तूपमह अर्थात् स्तूप-पूजा के महोत्सवों एवं मेलों हैं१२। किन्तु ये विभिन्न अर्थ चैत्य शब्द के अर्थ-विकास की प्रक्रिया के में जाने का निषेध किया गया है।१५ स्मरणीय है कि यदि आचारांग के परिणाम हैं।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकाल तक भी जैन स्तूप होते तो ऐसा सामान्य याज्ञवल्क्यस्मृति में श्मशान-सीमा में स्थित पुण्य-स्थान के रूप निषेध तो नहीं ही किया जाता। मात्र यह कहा जाता कि अन्य तीर्थकों में भी चैत्य शब्द का उल्लेख हुआ है।१३ प्राचीन जैनागमों में भी चिता- के स्तूप एवं स्तूपमह में नहीं जाना चाहिए। इससे यही ज्ञात होता है कि स्थल पर निर्मित स्मारक को चैत्य कहा गया है। किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकाल तक जैनेतर परम्पराओं में के चितास्थल पर उनकी स्मृति हेतु चबूतरा बना दिया जाता था, जो चैत्य सामान्य रूप से स्तूप निर्मित होने लगे थे। सम्भवत: आचारांग के द्वितीय कहलाता था। कभी-कभी चबूतरे के साथ-साथ वहाँ वृक्षारोपण कर दिया श्रुतस्कन्ध का रचनाकाल ईसा पूर्व की द्वितीय या तृतीय शताब्दी रहा जाता था, जिसे चैत्यवृक्ष कहा जाता था। यदि यह स्मृति-चिह्न छत्राकार होगा। क्योंकि इसके बाद मथुरा में जैन स्तूप मिलते हैं। अंग साहित्य में
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