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जैनधर्म में तीर्थ की अवधारणा
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उल्लेख अपने आप में एक स्वतन्त्र शोध का विषय है । अत: हम उन भगवतीआराधना एवं मूलाचार हैं । किन्तु इनमें तीर्थ शब्द का तात्पर्य सबकी चर्चा न करके मात्र उनकी एक संक्षिप्त सूची प्रस्तुत कर रहे हैं- धर्मतीर्थ या चतुर्विधसंघ रूपी तीर्थ से ही है । दिगम्बर परम्परा में रचना
रचनाकार रचनातिथि तीर्थक्षेत्रों का वर्णन करने वाले ग्रन्थों में तिलोयपण्णत्ती को प्राचीनतम सकलतीर्थस्तोत्र सिद्धसेनसूरि वि०सं०११२३ माना जा सकता है । तिलोयपण्णत्ती में मुख्य रूप से तीर्थङ्करों की अष्टोत्तरीतीर्थमाला महेन्द्रसूरि वि०सं० १२४१ कल्याणक-भूमियों के उल्लेख मिलते हैं । किन्तु इसके अतिरिक्त उसमें कल्पप्रदीप अपरनाम
क्षेत्रमंगल की चर्चा करते हुए पावा, ऊर्जयंत और चम्पा के नामों का विविधतीर्थकल्प जिनप्रभसूरि वि०सं०१३८९ उल्लेख किया गया है ।२५ इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती में राजगृह का तीर्थयात्रास्तवन विनयप्रभ उपाध्याय
पंचशैलनगर के रूप में उल्लेख हुआ है और उसमें पांचों शैलों का वि०सं०१४वीं शती
यथार्थ और विस्तृत विवेचन भी है । समन्तभद्र ने स्वयम्भूस्तोत्र में अष्टोत्तरीतीर्थमाला मुनिप्रभसूरि वि०सं० १५वीं शती ऊर्जयंत का विशेष विवरण प्रस्तुत किया है । दिगम्बर परम्परा में इसके तीर्थमाला
मेघकृत वि०सं० १६वीं शती पश्चात् तीर्थों का विवेचन करने वाले ग्रन्थों के रूप में दशभक्तिपाठ पूर्वदेशीयचैत्यपरिपाटी हंससोम वि०सं० १५६५ प्रसिद्ध हैं। इनमें संस्कृतनिर्वाणभक्ति और प्राकृतनिर्वाणकाण्ड महत्त्वपूर्ण सम्मेतशिख तीर्थमाला विजयसागर वि०सं० १७१७ हैं। सामान्यतया संस्कृतनिर्वाणभक्ति के कर्ता “पूज्यपाद" और प्राकृतभक्तियों श्री पार्श्वनाथ नाममाला मेघविजय उपाध्याय नि०स० के कर्ता “कुंदकुंद" को माना जाता है । पंडित नाथूराम जी प्रेमी ने इन १७२१
निर्वाणभक्तियों के सम्बन्ध में इतना ही कहा है कि, जब तक इन दोनों तीर्थमाला
शीलविजय वि०सं० १७४८ रचनाओं के रचयिता का नाम मालूम न हो तब तक इतना ही कहा जा तीर्थमाला
सौभाग्य विजय वि०सं० १७५० सकता है कि ये निश्चय ही आशाधर से पहले की (अब से लगभग ७०० शत्रुञ्जयतीर्थपरिपाटी
देवचन्द्र
वि०सं० १७६९ वर्ष पहले, की हैं । प्राकृत भक्ति में नर्मदा नदी के तट पर स्थित सूरतचैत्यपरिपाटी घालासाह वि०सं० १७९३ सिद्धवरकूट, बड़वानी नगर के दक्षिण भाग में चूलगिरि तथा पावागिरि तीर्थमाला
ज्ञानविमलसूरि वि०सं० १७९५ आदि का उल्लेख किया गया है किन्तु ये सभी तीर्थक्षेत्र पुरातात्त्विक दृष्टि सम्मेतशिखरतीर्थमाला जयविजय
से नवीं-दसवीं से पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं । इसलिए इन भक्तियों का गिरनार तीर्थ रत्नसिंहसूरिशिष्य
रचनाकाल और इन्हें जिन आचार्यों से सम्बन्धित किया जाता है वह चैत्यपरिपाटी मुनिमहिमा
संदिग्ध बन जाता है । निर्वाणकाण्ड में अष्टापद, चम्पा, ऊर्जयंत, पावा, पार्श्वनाथ चैत्यपरिपाटी कल्याणसागर
सम्मेदगिरि, गजपंथ, तारापुर, पावगिरि, शत्रुञ्जय, तुंगीगिरि, सवनगिरि, शाश्वततीर्थमाला वाचनाचार्य मेरुकीर्ति
सिद्धवरकूट, चूलगिरि, बड़वानी, द्रोणगिरि, मेढगिरि, कुंथुगिरि, कोटशिला, जैसलमेरचैत्यपरिपाटी जिनसुखसूरि
रिसिंदगिरि, नागद्रह , मंगलपुर, आशारम्य, पोदनपुर, हस्तिनापुर, - शत्रुञ्जयचैत्यपरिपाटी ....
वाराणसी, मथुरा, अहिछत्रा, जम्बूवन, अर्गलदेश, णिवडकुंडली, सिरपुर, - शत्रुञ्जयतीर्थयात्रारास विनीत कुशल
होलगिरि, गोम्मटदेव आदि तीर्थों के उल्लेख हैं । इस निर्वाणभक्ति में
आये हुए चूलगिरि, पावगिरि, गोम्मटदेव, सिरपुर आदि के उल्लेख ऐसे आदिनाथ रास कविलावण्यसमय
हैं, जो इस कृति को पर्याप्त परवर्ती सिद्ध कर देते हैं । गोम्मटदेव
(श्रवणबेलगोला) की बाहुबली की मूर्ति का निर्माण ई० सन् ९८३ में पार्श्वनाथसंख्यास्तवन रत्नकुशल
-- हुआ । अत: यह कृति उसके पूर्व को नहीं मानी जा सकती और इसके
कर्ता भी कुंदकुंद नहीं माने जा सकते। कावीतीर्थवर्णन
कवि दीपविजय वि०सं० १८८६ पाँचवीं से दशवीं शताब्दी के बीच हए अन्य दिगम्बर आचार्यों तीर्थराज चैत्यपरिपाटीस्तवन साधुचन्द्रसूरि ...
की कृतियों में कुंदकुंद के पश्चात् पूज्यपाद का क्रम आता है । पूज्यपाद पूर्वदेशचैत्यपरिपाटी जिनवर्धनसूरि ---
ने निर्वाणभक्ति में निम्न स्थलों का उल्लेख किया है - मंडपांचलचैत्यपरिपाटी खेमराज
कुण्डपुर, जृम्भिकाग्राम, वैभारपर्वत, पावानगर, कैलाशपर्वत, यह सूची 'प्राचीनतीर्थमालासंग्रह' सम्पादक-विजयधर्मसूरिजी के आधार ऊर्जयंत, पावापुर, सम्मेदपर्वत, शत्रुञ्जयपर्वत, द्रोणीमत, सह्याचल पर दी गई है।
आदि।
रविषेण ने 'पद्मचरित' में निम्न तीर्थस्थलों की चर्चा की है दिगम्बर परम्परा का तीर्थविषयक साहित्य
कैलाश-पर्वत, सम्मेदपर्वत, वंशगिरि, मेघरव, अयोध्या, काम्पिल्य, दिगम्बर परम्परा में प्राचीनतम ग्रन्थ कसायपाहुड, षट्खण्डागम, रत्नपुर, श्रावस्ती, चम्पा, काकन्दी, कौशाम्बी, चन्द्रपुरी, भद्रिका, मिथिला,
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