Book Title: Sagarmal Jain Abhinandan Granth
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 840
________________ ३४. सम्मेयसेल-सेत्तुञ्ज-उज्जिते अब्बुयंमि चित्तउडे । जालउरे रणथंभे गोपालगिरिमि वंदामि ।।१९।। सिरिपासनाहसहियं रम्मं सिरिनिम्मयं महाथूभं । कालिकाले वि सुयित्थं महुरानयरीउ (ए) वंदामि ॥२०॥ रायगिह-चम्प-पावा-अउज्झ-कंपिल्लट्ठणपुरेसु । भद्दिलपुरि-सोरीयपुरि-अङ्गइया-कन्नउज्जेसु ॥२१॥ सावत्थि-दुग्गामाइसु वाणारसीपमुहपुव्वदेसंमि । कम्मग-सिरोहमाइसु भयाणदेसंमि वंदामि ।।२२।। राजउर-कुण्डणीसु य वंदे गज्जउर पंच य सयाई । तलवाड देवराउ रुउत्तदेसंमि वंदामि ॥२३॥ खंडिल-डिंडूआणय नराण-हरसउर खट्टऊदेसे । नागउरमुव्विदंतिसु संभरिदेसंमि वेदेमि ॥२४॥ पल्ली संडेरय-नाणएसु कोरिट-भिन्नमाल्लेलेसु । वंदे गुज्जरदेसे आहाडाईसु मेवाडे ।।२५।। उवएस-किराडमए वि जयपुराईसु मरुमि वंदामि । सच्चउर-गुडरायसु पच्छिमदेसंमि वंदामि ॥२६॥ थाराउद्दय-वायड-जालीहर-नगर-खेड-मोढेरे । अणहिल्लवाडनयरे वड्डावल्लीयं बंभाणे ॥२७॥ निहयकलिकालमहियं सायसतं सयलवाइथंभणए । थंभणपुरे कयवासं पासं वंदामि भत्तीए ॥२८॥ कच्छे भरुयच्छंमि य सोरट्ठ-मरहट्ठ-कुंकण-थलीसु । कलिकुण्ड-माणखेडे दक्षि (क्खि) णदेसंमि वंदामि ।।२९।। धारा-उज्जेणीसु य मालवदेसंमि वंदामि । वंदामि मणुयविहिए जिणभवणे सव्वदेसेसु ॥३०॥ भरहयि (म्मि) मणुयविहिया महिया मोहारिमहियमाहप्पा । सिरिसिद्धसेणसूरीहिं संथुया सिवसुहं देंतु ॥३१॥ Discriptive Catalogue of Mss in the Jaina Bhandars at Pattan-G.O.S. 73, Baroda, 1937, p. 56 ३५. तिलोयपण्णत्ति, १/२१-२४ अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी या शौरसेनी प्राकृत-विद्या, अंक जनवरी-मार्च १९९७ (पृ. ९७) में करती जा रही थी। अशोक के अभिलेख मूलत: मगध साम्राज्य की केन्द्रीय भोलाशंकर व्यास के व्याख्यान के समाचारों के सन्दर्भ में सम्पादक डा० भाषा में लिखे गये थे। फिर भी यह समझा गया कि दूरस्थ प्रदेशों की सुदीप जैन ने उन्हें उद्धृत करते हुए लिखा है कि शौरसेनी प्राकृत के जनता के लिए यह प्रशासन और प्रचार की भाषा थोड़ी अपरिचित थी। प्राचीनतम रूप सम्राट अशोक के गिरनार शिलालेख में मिलते हैं। किन्तु इसलिए अशोक ने इस बात की व्यवस्था की थी कि अभिलेखों के पाठों प्रो. व्यासजी का यह कथन भ्रामक है और इसका कोई भी ठोस का विभिन्न प्रान्तों में आवश्यकतानुसार थोड़ा बहुत लिप्यन्तर और भाषाशास्त्रीय आधार नहीं है। भाषान्तर कर दिया जाय। यही कारण है कि अभिलेखों के विभिन्न अशोक के अभिलेखों की भाषा और व्याकरण के सन्दर्भ में संस्करणों में पाठ-भेद पाया जाता है। पाठ-भेद इस तथ्य का सूचक है अधिकृत विद्वान् एवं अध्येता डा० राजबली पाण्डेय ने अपने ग्रन्थ कि भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न बोलियां थीं, जिनकी अपनी 'अशोक के अभिलेख' में गहन समीक्षा की है। उन्होंने अशोक के विशेषताएं थीं। अशोक के अभिलेखों में विभिन्न बोलियों के शब्द-रूप अभिलेखों की भाषा को चार विभागों में बाँटा है-१ पश्चिमोत्तरी (पैशाच- देखने से यह ज्ञात होता है कि मध्यभारतीय भाषा ही इस समय की गान्धार),२ मध्यभारतीय,३ पश्चिमी महाराष्ट्र,४ दक्षिणावर्त (आन्ध्रकर्नाटक)। सार्वदेशिक भाषा थी, मूलतः इसी में अशोक के अभिलेख प्रस्तुत हुए अशोक की भाषा के सन्दर्भ में वह लिखते हैं- महाभारत के बाद का थे। इसे मागध अथवा मागधी भाषा भी कह सकते हैं। परन्तु यह नाटकों भारतीय इतिहास मगध साम्राज्य का इतिहास है। इसलिए शताब्दियों से एवं व्याकरण की मागधी से भिन्न है। जहाँ मागधी प्राकृत में केवल तालव्य उत्तरभारत में एक सार्वदेशिक भाषा का विकास हो रहा था। यह भाषा 'श' का प्रयोग होता है वहां अशोक के अभिलेखों में केवल दन्त्य 'स' वैदिक भाषा से उद्भूत लौकिक संस्कृत से मिलती-जुलती थी और उसके का प्रयोग होता है। (देखें- अशोक के अभिलेख-डाँ० राजबली पाण्डेय, समानान्तर प्रचलित हो रही थी। अशोक ने अपने प्रशासन और धर्म प्रसार पृ० २२-२३) के लिए इसी भाषा को अपनाया, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि इस भाषा इससे दो तथ्य फलित होते हैं, प्रथम तो यह कि अशोक के का केन्द्र मगध था, जो मध्य-देश (थानेसर और कजंगल की पहाड़ियों अभिलेखों की भाषा नाटकों और व्याकरण की मागधी प्राकृत से भिन्न के बीच का देश) के पूर्व भाग में स्थित था। इसलिए मागधी भाषा की है और उसमें अन्य बोलियों के शब्द रूप निहित हैं। इसलिए हम इसे इसमें प्रधानता थी, परन्तु सार्वजनिक भाषा होने के कारण दूसरे प्रदेशों अर्धमागधी भी कह सकते है। यद्यपि श्वेताम्बर आगमों में उपलब्ध की ध्वनियों और कहीं-कहीं शब्दों और मुहावरों को भी यह आत्मसात अर्धमागधी की अपेक्षा यह किंचित् भिन्न है फिर भी इतना निश्चित है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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