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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ उल्लेख है ।२४
प्रस्तुत की गई हैं। उसमें महावीर के निर्वाण के बाद आगमों का विच्छेद किस प्रकार से होगा ? कौन कौन प्रमुख आचार्य और राजा आदि होगें, इसके उल्लेख हैं। इस प्रकीर्णक में श्वेताम्बर परम्परा को अमान्य ऐसे आगम आदि के उच्छेद के उल्लेख भी हैं। यह प्रकीर्णक मुख्यतः महाराष्ट्री प्राकृत में उपलब्ध होता है, किन्तु इस पर शौरसेनी का प्रभाव भी परिलक्षित होता है । इसका रचनाकाल निश्चित करना तो कठिन है फिर भी यह लगभग दसवीं शताब्दी के पूर्व का होना चाहिए, ऐसा अनुमान किया जाता है ।
तीर्थं सम्बन्धी विस्तृत विवरण की दृष्टि से आगमिक और प्राकृत भाषा के ग्रन्थों में 'सारावली' को मुख्य माना जा सकता है। इसमें मुख्यरूप से शंत्रुजय अपरनाम पुण्डरीक नाम कैसे पड़ा ? ये दो बातें मुख्य रूप से विवेचित हैं और इस सम्बन्ध में कथा भी दी गई है। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ लगभग ११६ गाथाओं में पूर्ण हुआ है। यद्यपि यह ग्रंथ प्राकृत भाषा में लिखा गया है, किन्तु भाषा पर अपभ्रंश के प्रभाव को देखते हुए इसे परवर्ती ही माना जायेगा। इसका काल दशवीं शताब्दी के लगभग होगा ।
इस प्रकीर्णक में इस तीर्थ पर दान, तप, साधना आदि के विशेषफल की चर्चा हुई है। अन्य के अनुसार पुण्डरीक तीर्थ की महिमा और कथा अतिमुक्त नामक ऋषि ने नारद को सुनायी, जिसे सुनकर उसने दीक्षित होकर केवलज्ञान और सिद्धि को प्राप्त किया । कथानुसार ऋषभदेव के पौत्र पुण्डरीक के निर्वाण के कारण यह तीर्थ पुण्डरीकगिरि के नाम से प्रचलित हुआ। इस तीर्थ पर नमि, विनमि आदि दो करोड़ केवली सिद्ध हुए हैं। राम, भरत आदि तथा पंचपाण्डवों एवं प्रद्युम्न, शाम्ब आदि कृष्ण के पुत्रों के इसी पर्वत से सिद्ध होने की कथा भी प्रचलित है। इस प्रकार यह प्रकीर्णक पश्चिम भारत के सर्वविश्रुत जैन तीर्थ की महिमा का वर्णन करने वाला प्रथम ग्रन्थ माना जा सकता है । श्वेताम्बर परंपरा के प्राचीन आगमिक साहित्य में इसके अतिरिक्त अन्य कोई तीर्थ सम्बन्धी स्वतन्त्र रचना हमारी जानकारी में नहीं है ।
इसके पश्चात् तीर्थ सम्बन्धी साहित्य में प्राचीनतम जो रचना उपलब्ध होती है, वह बप्पभट्टिसूरि की परम्परा के यशोदेवसूरि के गच्छ के सिद्धसेनसूरि का सकलतीर्थस्तोत्र है । यह रचना ई० सन् १०६७ अर्थात् ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध की है। इस रचना में सम्मेतशिखर, शत्रुञ्जय, ऊर्जयन्त, अर्बुद, चित्तौड़, जालपुर (जालौर) रणथम्भौर, गोपालगिरि (ग्वालियर) मथुरा, राजगृह, चम्पा, पावा, अयोध्या, काम्पिल्य, भद्दिलपुर शौरीपुर, अंगइया (अंगादिका), कन्नौज, श्रावस्ती, वाराणसी, राजपुर, कुण्डनी, गजपुर, तलवाड़, देवराड, खडिल, डिण्डूवान (डिण्डवाना), नरान, हर्षपुर (षट्टउदेसे) नागपुर (नागौर-साम्भरदेश), पल्ली, सण्डेर, नाणक, कोरण्ट, भिन्नमाल, (गुर्जर देश), आहड़ (मेवाड़ देश) उपकेसनगर (किराडउए) जयपुर (मरुदेश) सत्यपुर (साचौर), गुहुयराय, पश्चिम बल्ली, धाराप्रद, बायण, जलिहर, नगर, खेड़, मोडेर, अनहिल्लवाड़ (चड्डावल्लि), स्तम्भनपुर, कयंवास, भरुकच्छ (सौराष्ट्र), कुंकन, कलिकुण्ड, मानखेड़ (दक्षिण भारत) धारा, उज्जैनी (मालवा) आदि तीर्थों का
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सम्भवतः समग्र जैन तीर्थों का नामोल्लेख करने वाली उपलक रचनाओं में यह प्राचीनतम रचना है । यद्यपि इसमें दक्षिण के उन दिगम्बर जैन तीर्थों के उल्लेख नहीं है जो कि इस काल में अस्तित्ववान् थे। इस रचना के पश्चात् हमारे सामने तीर्थ समबन्धी विवरण देने वाली दूसरी महत्त्वपूर्ण एवं विस्तृत रचना विविधतीर्थकल्प है, इस ग्रन्थ में दक्षिण के कुछ दिगम्बर तीर्थों को छोड़कर पर्व, उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत के लगभग सभी तीर्थों का विस्तृत एवं व्यापक वर्णन उपलब्ध होता हैं, यह ई० सन् १३३२ की रचना है श्वेताम्बर परम्परा की तीर्थ सम्बन्धी रचनाओं में इसका अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान माना जा सकता
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इसमें जो वर्णन उपलब्ध है, उससे ऐसा लगता है कि अधिकांश तीर्थस्थलों का उल्लेख कवि ने स्वयं देखकर किया है । यह कृति अपभ्रंश मिश्रित प्राकृत और संस्कृत में निर्मित है। इसमें जिन तीर्थों का उल्लेख है वे निम्न हैं शत्रुंजय, रैवतकगिरि, स्तम्भनतीर्थ, अहिच्छत्रा अर्बुद (आबु), अश्वावबोध (भड़ौच), वैभारगिरि (राजगिरि), कौशाम्बी, अयोध्या, अपापा (पाचा) कलिकुण्ड, हस्तिनापुर, सत्यपुर (साचौर), अष्टापद (कैलाश), मिथिला, रत्नवाहपुर, प्रतिष्ठानपत्तन (पैठन), काम्पिल्य, अणहिलपुर, पाटन, शंखपुर, नासिकयपुर (नासिक), हरिकंखीनगर, अवतिदेशस्थ अभिनन्दनदेव, चम्पा, पाटलिपुत्र, श्रावस्ती, वाराणसी, कोटिशिला, कोकावसति, ढिंपुरी, अंतरिक्षपार्श्वनाथ, फलवर्द्धिपार्श्वनाथ, (फलौधी), आमरकुण्ड, (हनमकोण्ड - आंध्रप्रदेश) आदि ।
इन ग्रंथों के पक्षात् श्वेताम्बर परम्परा में अनेक तीर्थमालायें एवं चैत्यपरिपाटियों लिखी गई जो कि तीर्थ सम्बन्धी साहित्य की महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इन तीर्थमालाओं और चैत्यपरिपाटियों की संख्या शताधिक है। और ये ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं अठारवीं शताब्दी तक निर्मित होती रही हैं। इन तीर्थमालाओं तथा चैत्यपरिपाटियों में कुछ तो ऐसी हैं जो किसी तीर्थ विशिष्ट से ही सम्बन्धित हैं और कुछ ऐसी हैं जो सभी तीर्थों का उल्लेख करती हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से इन चैत्य परिपाटियों का अपना महत्त्व है, क्योंकि ये अपने-अपने काल में जैन तीर्थों की स्थिति का सम्यक् विवरण प्रस्तुत कर देती हैं। इन चैत्यपरिपाटियों में न केवल तीर्थक्षेत्रों का विवरण उपलब्ध होता है, अपितु यहाँ किस-किस मन्दिर में कितनी पाषाण और धातु की जिन प्रतिमाएँ रखी गयी हैं, इसका भी विवरण उपलब्ध हो जाता है। उदाहरण के रूप में कटुकमति लाथाशाह द्वारा विरचित सूरतचैत्यपरिपाटी में यह बताया गया है कि इस नगर के गोपीपुरा क्षेत्र में कुल ७५ जिनमंदिर, ५ विशाल जिन मंदिर तथा १३२५ जिनबिम्ब थे। सम्पूर्ण सूरत नगर में १० विशाल जिनमन्दिर, २३५ देरासर (गृहचैत्य), ३गर्भगृह, ३९७८ जिन प्रतिमाएँ थीं । इसके अतिरिक्त सिद्धचक्र, कमलचौमुख, पंचतीर्थी, चौबीसी आदि को मिलाने पर १००४१ जिनप्रतिमाएँ उस नगर में थीं, ऐसा उल्लेख है। यह विवरण १७३९ का है। इस पर से हम अनुमान कर सकते हैं कि इन रचनाओं का ऐतिहासिक अध्ययन की दृष्टि से कितना महत्त्व है। सम्पूर्ण चैत्यपरिपाटियों अथवा तीर्थमालाओं का
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