Book Title: Sagarmal Jain Abhinandan Granth
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 829
________________ ज्ञान, शील आदि से ब्राह्मण होता है। ज्ञान से रहित ब्राह्मण भी निकृष्ट है किन्तु ज्ञानी शूद्र भी वेदाध्ययन कर सकता है । व्यास, वसिष्ठ, कमठ, कण्ठ, द्रोण, पराशर आदि ने अपनी साधना और सदाचार से ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्णव्यवस्था के संदर्भ में वराङ्गचरितकार का दृष्टिकोण उत्तराध्ययन आदि आगमिक धारा के निकट है। पुनः इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि जटासिंहनन्दि उस दिगम्बर परम्परा के नहीं हैं तो शूद्र जल-त्याग और शूद्रमुक्ति-निषेध करती है। इससे जटासिंहनन्दि और उनके ग्रन्थ वराङ्गचरित के यापनीय अथवा कूर्चक होने की पुष्टि होती है । संदर्भ १. यापनीय और उनका साहित्य; डॉ० कुसुम पटोरिया पृ०, १५७ १५८ । २. वरांगनेय सर्वांगैर्वराङ्गचरितार्थवाक् । कस्य नोत्पादयेद्गाढमनुरागं स्वगोचरम् ।। ५. जटासिंहनन्दि का वराङ्गचरित और उसकी परम्परा - ३. काव्यानुचिन्तने यस्य जटाः प्रचलवृत्तयः । अर्थास्मानुवदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात् ॥ आदि पुराण (जिनसेन), १/५० ४. जेहिं कए रमणिज्जे वरंग-पउमाण चरियवित्थारे । कह व ण सलाहणिज्जे ते कइणो जडिय - रविसेणो ॥ हरिवंशपुराण (जिनसेन), १/३४-३५ - - - कुवलयमाला, ऐदनय श्रोतृवॅवों जटासिंहनंद्याचार्यर वृत्तं उद्धृत वराङ्गचरित, भूमिका, पृ० ११ ६. मुणिमहसेणु सुलोयणु जेण पउमचरिउ मुणिरविसेणेण । जिणसेणेण हरिवंसु पवित्तु जडिलमुणिणा वरंगचतित्तु ॥ हरिवंश, उद्धृत वराङ्गचरित, भूमिका, पृ० १० ७. आर्यनुत- गृध्रपिंछा -चार्य जटाचार्य विश्रुतश्रुतकीर्त्याचार्य । पुरस्सरमप्पा-चार्य परम्परयँ कुडुग भव्योत्सवमं ॥ - आदिपुराण, १/१२ Jain Education International - ८. वर्यलोकोत्तमर्भाविसुवॉडनधनत्युन्नतकॉडकुंदाचार्यचरित्ररत्नाकररधिकगुणर्सज्जटासिंहनंद्याचार्य श्रीकूर्चिभट्टारकरुदितयशर्मिक्कपेपिगॅ लोकाश्चर्यर्निष्कर्मरॅम्मं पारॅमाडि गँ संसारकांतारदिंदं ॥ धर्मामृत, १ / १३ ९. विदिरपोदर तॉलॅयॅनॅ तू गिदाडाबिदिजिनमुनिप - जटाचार्यर धैर्यद् पँपु गेल्दुदु पसर्गदलुर्केयेननिसि नँगेदुमिर्गे सोगयिसिदं । पार्श्वपुराण, १/१४ १०. वंद्यर् जटासिंहणंद्याचार्यादींद्रणद्याचार्यादिरमुनिपराकाणूर्णणंद्यपृथिवियॉलगॅल्लं ॥ - अनन्तनाथ पुराण, १/१७ ११. नडॅवलियोल् तन्नं समं बडँदारुं नडदरिल्ल गडमतेर्देषु । डियं नडेदुवो पदलिके यॅडेंग जटासिंहणंदि मुनिपुंगवना ।। ६९७ पार्श्व पुष्पदंत- पुराण, १/२९ १२. कार्यविदर्हद्वल्याचार्यजटासिंहनंदिनामोद्दामाचार्यवरगृध्रपिंछाचार्यर चरणारविंदवृंदस्तोत्रं ।। शांतिनाथपुराण, १/१९ १३. धैर्यपरगृध्र पिंछाचार्यर जटासिंहनंदि जगतीख्याताचार्यर प्रभावमत्याश्चर्यमदं पागलूवडब्जजजंगमसाध्यं ॥ - नेमिनाथपुराण, १/१४ १४. हरिवशं (जिनसेन), १/३५ १५. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय, प्रो० सागरमल जैन १६............यापनीय संघ प्रतीतकण्डूर्गणाविध 1 जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेख क्रमांक, १६० १७. वराङ्गचरित, भूमिका (अंग्रेजी), पृ०, १६ १८. जैन शिलालेख संग्रह, भाग-२, लेख क्रमांक २६७, २७७,२९९ - १९. वही भाग - २, लेखक्रमांक, २६७, २७१, २९९ (ज्ञातव्य है कि काणूरगण को मूलसंघ, कुन्दकुन्दान्वय और मेष - पाषाण गच्छ से जोड़ने वाले ये लेख न केवल परवर्ती हैं अपितु इनमें एकरूपता भी नहीं है ।) २०. वराङ्गचरित, सं. ए० एन० उपाध्ये, भूमिका (अंग्रेजी), पृ० १६ पर उद्धृत- वंद्यर्जटासिंहणद्याचार्यदींद्रांद्याचार्यादि मुनि परा काणूर्णणं................. | -अन्नतनाथ पुराण, १/१७ २१. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय, प्रो० सागरमल जैन, पृ०१४५ १४६ । २२. वराङ्गचरित, सं० ए० एन उपाध्ये, भूमिका (अंग्रेजी), पृ०१७ | २३. यापनीय पर कुछ और प्रकाश, ए० एन० उपाध्ये, अनेकांत, वीर निर्वाण विशेषांक, १९७५ । २४. तीणां (३/७), यतीन्द्र (३/४३), यतिपतिना (५/११३), यति (५ / ११४), यतिना (८/६८), वीरचर्या यतयो- बभूवुः (३०/ ६१), यतिप्रति (३० / ९९), यति: (३१/२१) । २५. आचारमादौ समधीत्य धीमान्प्रकीर्णकाध्यायमनेकभेदम् । अङ्गानि पूर्वांश्च यथानुपूर्व्यामल्यैरहोभिः सममध्यगीष्ट ॥ - वराङ्गचरित, ३१/१८ २६. स्थूलामहिंसामपि सत्यवाक्यमचोरतादाररतिव्रतं च । भोगोपभोगार्थपरिप्रमाणमन्वर्थदिग्देशनिवृत्तितां च ॥ सामायिकं प्रोषधपात्रदानं सल्लेखनां जीवितसंशये च । गृहस्थधर्मस्य हि सार एषः संक्षेपतस्तेऽभिनिगद्यते स्म ॥ - वही, २२ / २९-३० तुलनीय : पञ्च य अणुव्वयाई. तिण्णेव गुणव्वयाइ भणियाई । सिक्खावयाणि एत्तो, चत्तारि जिणोवइट्ठाणि ॥। ११२ ।। थूलयरं पाणिवहं, मूसावायं अदत्तदाणं च । परजुवईण निवित्ती, संतोसवयं च पञ्चमयं ॥ ११३॥ दिसिविदिसाण य नियमो, अणत्थदण्डस्थ वज्जणं चेव । उवभोगपरीमाणं, तिण्णेव गुणव्वया ऐए ।। ११४।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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