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तार्किक शिरोमणी आचार्य सिद्धसेन 'दिवाकर'
६५९ में अति प्रसिद्ध है और सिद्धसेन ने इसी आधार पर अपने ग्रन्थ का नाम यह दान दिया गया था। यदि दिवाकर मन्दिरदेव के गुरु हैं तो वे सिद्धसेन सन्मति दिया होगा, अत: सिद्धसेन यापनीय हैं, मुझे समुचित नहीं दिवाकर न होकर अन्य कोई दिवाकर हैं क्योंकि इस अभिलेख के लगता है। श्वेताम्बर- साहित्य में भी महावीर के सन्मति विशेषण का अनुसार मन्दिरदेव का काल ईस्वी सन् ९४२ अर्थात् वि०सं० ९९९ उल्लेख मिलता है, जैसे सन्मति से युक्त होने से श्रमण कहे गए हैं। है। इनके गुरु इनसे ५० वर्ष पूर्व भी माने जायें तो वे दसवीं शताब्दी इस प्रकार प्रो० ए०एन० उपाध्ये ने सिद्धसेन के यापनीय होने के जो- उत्तरार्ध में ही सिद्ध होंगे जबकि सिद्धसेन दिवाकर तो किसी स्थिति में जो प्रमाण दिये हैं वे सबल प्रतीत नहीं होते हैं।
पाँचवीं शती से परवर्ती नहीं हैं। अत: ये दिवाकर सिद्धसेन नहीं हो सकते सुश्री कुसुम पटोरिया ने जुगल किशोर मुख्तार एवं प्रो० उपाध्ये हैं। दोनों के काल में लगभग ६०० वर्ष का अन्तर है। यदि इसमें के तर्कों के साथ-साथ सिद्धसेन को यापनीय सिद्ध करने के लिए अपने उल्लेखित दिवाकर को मन्दिरदेव का साक्षात गुरु न मानकर परम्परा गुरु भी कुछ तर्क प्रस्तुत किये हैं । वे लिखती हैं कि सन्मतिसूत्र का श्वेताम्बर माने तो इससे उनका यापनीय होना सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि परम्परा ग्रन्थों में भी आदरपूर्वक उल्लेख है । जीतकल्पचूर्णि में सन्मतिसूत्र को गुरु के रूप में तो गौतम आदि गणधरों एवं भद्रबाहु आदि प्राचीन सिद्धिविनिश्चय के समान प्रभावक ग्रन्थ कहा गया है । श्वेताम्बर परम्परा आचार्यों का भी उल्लेख किया जाता है । अन्त में सिद्ध यही होता है में सिद्धिविनिश्चय को शिवस्वामिक की कृति कहा गया है । शाकटायन कि सिद्धसेन दिवाकर यापनीय न होकर यापनीयों के पूर्वज थे। व्याकरण में भी शिवार्य के सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख है । यदि एक क्षण के लिए मान भी लिया जाये कि ये शिवस्वामि भगवतीआराधना सिद्धसेन श्वेताम्बरों के पूर्वज आचार्य हैंके कर्ता शिवार्य ही हैं तो भी इससे इतना ही फलित होगा कि कुछ सिद्धसेन को पाँचवीं शती के पश्चात् के सभी श्वेताम्बर आचार्यों यापनीय कृतियां श्वेताम्बरों को मान्य थीं, किन्तु इससे सिद्धसेन का ने अपनी परम्परा का माना है । अनेकशः श्वेताम्बर ग्रन्थों में श्वेताम्बर यापनीयत्व सिद्ध नहीं होता है।
आचार्य के रूप में उनका स्पष्ट निर्देश भी है, और यह भी निर्देश है कि पुनः सन्मतिसूत्र में अर्द्धमागधी आगम के उद्धरण भी यही सिद्ध वे कुछ प्रश्नों पर आगमिक धारा से मतभेद रखते हैं। फिर भी, कहीं करते हैं कि वे उस आगमिक परम्परा के अनुसरणकर्ता हैं जिसके भी उन्हें अपनी परम्परा से भिन्न नहीं माना गया है। अत: सभी साधक उत्तराधिकारी श्वेताम्बर एवं यापनीय दोनों है । यह बात हम पूर्व में ही प्रमाणों की समीक्षा के आधार पर यही फलित होता है कि वे उस उत्तर प्रतिपादित कर चुके हैं कि आगमों के अन्तर्विरोध को दूर करने के लिए भारतीय निर्गन्थ धारा के विद्याधर कुल में हुए हैं, जिसे श्वेताम्बर आचार्य ही उन्होंने अपने अभेदवाद की स्थापना की थी। सुश्री कुसुम पटोरिया ने अपनी परम्परा का मानते हैं अत: वे श्वेताम्बरों के पूर्वज आचार्य हैं। विस्तार से सन्मतिसूत्र में उनके आगमिक अनुसरण की चर्चा है। यहाँ हम उस विस्तार में न जाकर केवल इतना ही कहना पर्याप्त समझते है सिद्धसेन दिवाकर की कृतियाँ कि सिद्धसेन उस आगमिक धारा में ही हुए हैं जिसका अनुसरण श्वेताम्बर वर्तमान में आचार्य सिद्धसेन की जो कृतियाँ मानी जाती हैं, वे
और यापनीय दोनों ने किया है और यही कारण है कि दोनों ही उन्हें सभी सिद्धसेन दिवाकर की कृतियाँ नहीं हैं क्योंकि जैन परम्परा में अपनी-अपनी परम्परा का कहते हैं।
सिद्धसेन नामक कई आचार्य हो गये हैं। परिणामस्वरूप एक सिद्धसेन आगे वे पुनः यह स्पष्ट करती हैं कि गुण और पर्याय के सन्दर्भ की कृतियाँ दूसरे सिद्धसेन के नाम पर चढ़ गयी हैं । उदाहरण के रूप में भी उन्होंने आगमों का स्पष्ट अनुसरण किया है और प्रमाणरूप में में जीतकल्पचूर्णि और तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका सिद्धसेन दिवाकर की आगम वचन उद्धृत किये हैं । यह भी उन्हें आगमिक धारा का सिद्ध कृति न होकर सिद्धसेनगणि की कृतियाँ हैं जो लगभग सातवीं शताब्दी करता है। श्वेताम्बर और यापनीय दोनों धारायें अर्धमागधी आगम को में हुए हैं। इसी प्रकार शक्रस्तव नामक एक कृति सिद्धर्षि की है जिसे प्रमाण मानती हैं । सिद्धसेन के सम्मुख जो आगम थे वे देवर्द्धि वाचना भ्रमवश सिद्धसेन दिवाकर की कृति मान लिया जाता है । प्रवचनसारोद्धार के न होकर माथुरी वाचना के रहे होंगे क्योंकि देवर्द्धि निश्चित ही सिद्धसेन की वृत्ति जो तेरहवीं शताब्दी में हुए चन्द्रगच्छ सिद्धसेन सूरि की कृति से परवर्ती हैं।
है, इसी प्रकार कल्याणमन्दिर स्तोत्र को प्रबन्धकोश में सिद्धसेन दिवाकर सुश्री पटोरिया ने मदनूर जिला नेल्लौर के एक अभिलेख६ का की कृति मान लिया गया है किन्तु यह भी संशयास्पद ही है । सिद्धसेन उल्लेख करते हुए यह बताया है कि कोटिमुडुवगण में मुख्य पुष्याहनन्दि दिवाकर की निम्न तीन कृतियाँ ही वर्तमान में उपलब्ध हैंगच्छ में गणधर के सदृश जिननन्दी मुनीश्वर हुए हैं। उनके शिष्य पृथ्वी (१) सन्मतिसूत्र पर विख्यात केवलज्ञान निधि के धारक स्वयं जिनेन्द्र के सदृश दिवाकर (२) द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका नाम के मुनि हुए । यह सत्य है कि यह कोटिमडुवगण यापनीय है । (३) न्यायावतार किन्तु इस अभिलेख में उल्लेखित 'दिवाकर' सिद्धसेन दिवाकर हैं, यह इनमें भी 'सन्मतिसूत्र' अथवा 'सन्मति-प्रकरण' निर्विवाद रूप से कहना कठिन है क्योंकि इसमें इन दिवाकर के शिष्य श्रीमंदिर देवमुनि सिद्धसेन दिवाकर की कृति है ऐसा सभी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर विद्वानों का उल्लेख है जिनके द्वारा अधिष्ठित कंटकाभरण नामक जिनालय को ने माना है । यह अर्धमागधी प्रभावित महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है। इस
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