Book Title: Sagarmal Jain Abhinandan Granth
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 811
________________ समदर्शी आचार्य हरिभद्र ६७९ स्थापित करने हेतु गढ़ी गई थी, के अतिरिक्त, सभी पर्याप्त परवर्ती काल शरीर को पहाड़ के समान मानना, रावण द्वारा अपने सिरों को काटकर की हैं और पौराणिक युग की ही देन हैं और इनमें कपोल-काल्पनिकता महादेव को अर्पण करना और उनका पुनः जुड़ जाना, बलराम का माया का पुट भी अधिक नहीं है । गर्भ-परिवर्तन की घटना छोड़कर, जिसे द्वारा गर्भ-परिवर्तन, बालक श्री कृष्ण के पेट में समग्र विश्व का समा आज विज्ञान ने सम्भव बना दिया है, अविश्वसनीय और अप्राकृतिक रूप जाना, अगस्त्य द्वारा समुद्र-पान और जह्न के द्वारा गंगापान करना, कृष्ण से जन्म लेने का जैन परम्परा में एक भी आख्यान नहीं है, जबकि पुराणों द्वारा गोवर्धन उठा लेना आदि पुराणों में वर्णित अनेक घटनाएं या तो में ऐसे हजार से अधिक आख्यान हैं । जैन-परम्परा सदैव तर्कप्रधान रही उन महान् पुरुषों के व्यक्तित्व को धूमिल करती हैं या आत्म-विरोधी हैं है, यही कारण था कि महावीर की गर्भ-परिवर्तन की घटना को भी अथवा फिर अविश्वसनीय हैं । यद्यपि यह विचारणीय है कि महावीर के उसके एक वर्ग ने स्वीकार नहीं किया । गर्भ-परिवर्तन की घटना, जो कि निश्चित ही हरिभद्र के पूर्व पूर्णत: मान्य हरिभद्र के ग्रन्थों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हो चुकी थी, को स्वीकार करके भी हरिभद्र बलराम के गर्भ-परिवर्तन को ये एक ऐसे आचार्य हैं जो युक्ति को प्रधानता देते हैं। उनका स्पष्ट कथन कैसे अविश्वसनीय कह सकते है । यहाँ यह भी स्मरणय है कि हरिभद्र है कि महावीर ने हमें कोई धन नहीं दिया है और कपिल आदि ऋषियों ने धूर्ताख्यान में एक धूर्त द्वारा अपने जीवन में घटित अविश्वसनीय हमारे धन का अपहरण नहीं किया है, अत: हमारा न तो महावीर के प्रति घटनाओं का उल्लेख करवाकर फिर दूसरे धूर्त से यह कहलवा देते हैं राग है और न कपिल आदि ऋषियों के प्रति द्वेष । जिसकी भी बात कि यदि भारत (महाभारत), रामायण आदि में घटित उपर्युक्त घटनाएं युक्तिसंगत हो उसे ग्रहण करना चाहिये ।५३ इस प्रकार हरिभद्र तर्क को ही सत्य हैं, तो फिर यह भी सत्य हो सकता है। श्रद्धा का आधार मानकर चलते हैं । जैन-परम्परा के अन्य आचार्यों के हरिभद्र द्वारा व्यंग्यात्मक शैली में रचित इस ग्रन्थ का उद्देश्य तो समान वे भी श्रद्धा के विषय देव, गुरु और धर्म के यर्थाथ स्वरूप के निर्णय मात्र इतना ही है कि धर्म के नाम पर पलने वाले अन्धविश्वासों को नष्ट किया के लिए क्रमश: वीतरागता, सदाचार और अहिंसा को कसौटी मानकर चलते जाय और पौराणिक कथाओं में देव या महापुरुष के रूप में मान्य व्यक्तित्वों हैं और तर्क या युक्ति से जो इन कसौटियों पर खरा उतरता है, उसे स्वीकार के चरित्र को अनैतिक रूप में प्रस्तुत करके उसकी आड़ में जो पुरोहित वर्ग करने की बात कहते हैं । जिस प्रकार सम्बोधप्रकरण में मुख्य रूप से गुरु अपनी दुश्चरित्रता का पोषण करना चाहता था, उसका पर्दाफाश किया के स्वरूप की समीक्षा करते हैं उसी प्रकार धूर्ताख्यान में वे परोक्षत: देव या जाय । उस युग का पुरोहित प्रथम तो इन महापुरुषों के चरित्रों को अनैतिक आराध्य के स्वरूप की समीक्षा करते प्रतीत होते हैं । वे यह नहीं कहते हैं रूप में प्रस्तुत कर और उसके आधार पर यह कहकर कि यदि कृष्ण गोपियों कि ब्रह्मा, विष्णु एवं महादेव हमारे आराध्य नहीं हैं । वे तो स्वयं ही के साथ छेड़छाड़ कर सकते हैं, विवाहिता राधा के साथ अपना प्रेम-प्रसंग कहते हैं जिसमें कोई भी दोष नहीं है और जो समस्त गुणों से युक्त है चला सकते हैं, यदि इन्द्र महर्षि गौतम की पत्नी के साथ छल से वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो या महादेव हो, उसे मैं प्रणाम करता हूँ५४ । सम्भोग कर सकता है तो फिर हमारे द्वारा यह सब करना दुराचार कैसे उनका कहना मात्र यह है कि पौराणिकों ने कपोल-कल्पनाओं के आधार कहा जा सकता है ? वस्तुत: जिस प्रकार सम्बोधप्रकरण में वे अपनी 'पर उनके चरित्र एवं व्यक्तित्व को जिस अतर्कसंगत एवं भ्रष्ट रूप में परम्परा के श्रमण वेशधारी दुश्चरित्र कुगुरुओं को फटकारते हैं, उसी प्रस्तुत किया है उससे न केवल उनका व्यक्तित्व धूमिल होता है, अपितु प्रकार धूर्ताख्यान में वे ब्राह्मण परम्परा के तथाकथित धर्म के ठेकेदारों वे जन-साधरण की अश्रद्धा का कारण बनते हैं । को लताड़ते हैं। फिर भी हरिभद्र की फटकारने की दोनों शैलियों में बहुत धूर्ताख्यान के माध्यम से हरिभद्र ऐसे अतर्कसंगत अन्धविश्वासों बड़ा अन्तर है । सम्बोधप्रकरण में वे सीधे फटकारते हैं जब कि से जन-साधारण को मुक्त करना चाहते हैं, जिनमें उनके आराध्य और धूर्ताख्यान में व्यंग्यात्मक शैली में । इसमें हरिभद्र की एक मनोवैज्ञानिक उपास्य देवों को चरित्रहीन के रूप में प्रस्तुत किया गया है । उदाहरण दृष्टि छिपी हुई है । हमें जब अपने घर के किसी सदस्य को कुछ कहना के रूप में चन्द्र, सूर्य, इन्द्र, वायु, अग्नि और धर्म का कुमारी एवं बाद होता है तो परोक्ष रूप में तथा सभ्य शब्दावली का प्रयोग करते है । में पाण्डु पत्नी कुन्ती से यौन सम्बन्ध स्थापित कर पुत्र उत्पन्न करना, गौतम हरिभद्र धूर्ताख्यान में इस दूसरी व्यंग्यपरक शिष्ट शैली का प्रयोग करते ऋषि की पत्नी अहिल्या से इन्द्र द्वारा अनैतिक रूप में यौन-सम्बन्ध स्थापित हैं और अन्य परम्परा के देव और गुरु पर सीधा आक्षेप नहीं करते हैं। करना, लोकव्यापी विष्णु का कामी-जनों के समान गोपियों के लिए उद्विग्न दूसरे धूर्ताख्यान, शास्त्रवार्तासमुच्चय, योगदृष्टिसमुच्चय, होना आदि कथानक इन देवों की गरिमा को खण्डित करते हैं । इसी प्रकार लोकतत्त्वनिर्णय, सावयपण्णत्ति आदि से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि हनुमान का अपनी पूँछ से लंका को घेर लेना अथवा पूरे पर्वत को उठा आराध्य या उपास्य के नाम के सम्बन्ध में हरिभद्र के मन में कोई आग्रह लाना, सूर्य और अग्नि के साथ सम्भोग करके कुन्ती का न जलना, गंगा नहीं है, मात्र आग्रह है तो इस बात का कि उसका चरित्र निर्दोष और का शिव की जटा में समा जाना, द्रोणाचार्य का द्रोण से, कर्ण का कान निष्कलंक हो । धूर्ताख्यान में उन्होंने उन सबकी समालोचना की है जो से, कीचक का बाँस की नली से एवं रक्त कुण्डलिन् का रक्तबिन्दु से जन्म अपनी वासनाओं की पुष्टि के निमित्त अपने उपास्य के चरित्र को धूमिल लेना, अण्डे से जगत् की उत्पत्ति, शिवलिंग का विष्णु द्वारा अन्त न करते हैं । हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि कृष्ण के चरित्र में राधा पाना, किन्तु उसी लिंग का पार्वती की योनि में समा जाना, जटायु के और गोपियों को डाल कर हमारे पुरोहित वर्ग ने क्या-क्या नहीं किया ? 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