________________
समदर्शी आचार्य हरिभद्र
६७७
अकारण कटि वस्त्र बाँधते हैं और सारी रात निश्चेष्ट होकर सोते रहते हैं। अरे, देवद्रव्य के भक्षण में तत्पर, उन्मार्ग के पक्षधर और साधुजनों न तो आते-जाते समय प्रमार्जन करते हैं, न अपनी उपधि (सामग्री) का को दूषित करने वाले इन वेशधारियों को संघ मत कहो। अरे, इन अधर्म प्रति-लेखन करते हैं और न स्वाध्याय ही करते हैं । अनेषणीय पुष्प, और अनीति के पोषक, अनाचार का सेवन करने वाले और साधुता के फूल और पेय ग्रहण करते हैं। भोज-समारोहों में जाकर सरस आहार चोरों को संघ मत कहो । जो ऐसे (दुराचारियों के समूह) को राग या ग्रहण करते हैं । जिन-प्रतिमा का रक्षण एवं क्रय-विक्रय करते हैं। द्वेष के वशीभूत होकर भी संघ कहता है उसे भी छेद-प्रायश्चित्त होता है उच्चाटन आदि कर्म करते हैं। नित्य दिन में दो बार भोजन करते हैं तथा ।४३ हरिभद्र पुनः कहते हैं - जिनाज्ञा का अपलाप करने वाले इन मुनि लवंग, ताम्बूल और दूध आदि विकृतियों का सेवन करते हैं । विपुल वेशधारियों के संघ में रहने की अपेक्षा तो गर्भवास और नरकवास कहीं मात्रा में दुकूल आदि वस्त्र, बिस्तर, जूते, वाहन आदि रखते हैं । स्त्रियों अधिक श्रेयस्कर है ।।४।। के समक्ष गीत गाते हैं । आर्यिकाओं के द्वारा लायी सामग्री लेते हैं। हरिभद्र की यह शब्दावली इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि धर्म लोक-प्रतिष्ठा के लिए मुण्डन करवाते हैं तथा मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण के नाम पर अधर्म का पोषण करने वाले अपने ही सहवर्गियों के प्रति उनके धारण करते हैं । चैत्यों में निवास करते हैं, (द्रव्य) पूजा आदि कार्य मन में कितना विद्रोह एवं आक्रोश है। वे तत्कालीन जैन-संघ को स्पष्ट आरम्भ करवाते हैं, जिन-मन्दिर बनवाते हैं, हिरण्य-सुवर्ण रखते हैं, चेतावनी देते हैं कि ऐसे लोगों को प्रश्रय मत दो, उनका आदर-सत्कार मत नीच कुलों को द्रव्य देकर उनसे शिष्य ग्रहण करते हैं । मृतक-कृत्य करो, अन्यथा धर्म का यर्थाथ स्वरूप धूमिल हो जाएगा। वे कहते हैं कि निमित्त जिन-पूजा करवाते हैं, मृतक के निमित्त जिन-दान (चढ़ावा) यदि आम और नीम की जड़ों का समागम हो जाय तो नीम का कुछ नहीं करवाते हैं । धन-प्राप्ति के लिये गृहस्थों के समक्ष अंग-सूत्र आदि का बिगड़ेगा, किन्तु उसके संसर्ग में आम का अवश्य विनाश हो जाएगा। प्रवचन करते हैं। अपने हीनाचारी मृत गुरु के निमित्त नदिकर्म, बलिकर्म वस्तुत: हरिभद्र की यह क्रान्तदर्शिता यर्थाथ ही है, क्योंकि दुराचारियों के आदि करते हैं । पाठ-महोत्सव रचाते हैं । व्याख्यान में महिलाओं से सान्निध्य में चारित्रिक पतन की सम्भावना प्रबल होती है । वे स्वयं कहते हैं, अपना गुणगान करवाते हैं । यति केवल स्त्रियों के सम्मुख और जो जिसकी मित्रता करता है, तत्काल वैसा हो जाता है । तिल जिस फल आर्यिकाएँ केवल पुरुषों के सम्मुख व्याख्यान करती हैं । इस प्रकार में डाल दिये जाते हैं उसी की गन्ध के हो जाते हैं ।४६ हरिभद्र इस माध्यम जिन-आज्ञा का अपलाप कर मात्र अपनी वासनाओं का पोषण करते हैं। से समाज को उन लोगों को सतर्क रहने का निर्देश देते हैं जो धर्म का ये व्याख्यान करके गृहस्थों से धन की याचना करते हैं । ये तो ज्ञान के नकाब डाले अधर्म में जीते हैं क्योंकि ऐसे लोग दुराचारियों की अपेक्षा भी विक्रेता हैं । ऐसे आर्यिकाओं के साथ रहने और भोजन करने वाले भी समाज के लिये अधिक खतरनाक हैं। आचार्य ऐसे लोगों पर कटाक्ष द्रव्य संग्राहक, उन्मार्ग के पक्षधर मिथ्यात्वपरायण न तो मुनि कहे जा करते हुए कहते हैं- जिस प्रकार कुलवधू का वेश्या के घर जाना निषिद्ध सकते हैं और न आचार्य ही । ऐसे लोगों का वन्दन करने से न तो है, उसी प्रकार सुश्रावक के लिये हीनाचारी यति का सानिध्य निषिद्ध है। कीर्ति होती है और न निर्जरा ही, इसके विपरीत शरीर को मात्र कष्ट और दुराचारी अगीतार्थ के वचन सुनने की अपेक्षा तो दृष्टि विष सर्प का कर्मबन्धन होता है ।३९
सान्निध्य या हलाहल विष का पान कहीं अधिक अच्छा है (क्योंकि ये वस्तुत: जिस प्रकार गन्दगी में गिरी हुई माला को कोई भी धारण तो एक जीवन का विनाश करते हैं, जबकि दुराचारी का सान्निध्य तो नहीं करता है, वैसे ही ये भी अपूज्य हैं। हरिभद्र ऐसे वेशधारियों को जन्म-जन्मान्तर का विनाश कर देता है)।४७ फटकारते हुए कहते हैं - यदि महापूजनीय यति (मुनि) वेश धारण करके फिर भी ऐसा लगता है कि इस क्रान्तदर्शी आचार्य की बात शुद्ध चरित्र का पालन तुम्हारे लिए शक्य नहीं है तो फिर गृहस्थ वेश क्यों अनसुनी हो रही थी क्योंकि शिथिलाचारियों के अपने तर्क थे । वे लोगों नहीं धारण कर लेते हो? अरे, गृहस्थवेश में कुछ प्रतिष्ठा तो मिलेगी, के सम्मुख कहते थे कि सामग्री (शरीर-सामर्थ्य) का अभाव है। वक्र किन्तु मुनि-वेश धारण करके यदि उसके अनुरूप आचरण नहीं करोगे तो जड़ों का काल है। दुषमा काल में विधि मार्ग के अनुरूप आचरण कठिन उल्टे निन्दा के ही पात्र बनोगे। यह उन जैसे साहसी आचार्य का कार्य है। यदि कठोर आचार की बात कहेंगे तो कोई मुनि व्रत धारण नहीं हो सकता है जो अपने सहवर्गियों को इतने स्पष्ट रूप में कुछ कह सके। करेगा । तीर्थोच्छेद और सिद्धान्त के प्रवर्तन का प्रश्न है, हम क्या करें । जैसा कि मैंने पूर्व पृष्ठों में चर्चा की है, हरिभद्र तो इतने उदार हैं कि वे उनके इन तर्कों से प्रभावित हो मूर्ख जन-साधारण कह रहा था कि कुछ भी अपनी विरोधी दर्शन-परम्परा के आचार्यों को भी महामुनि, सुवैद्य जैसे उत्तम हो वेश तो तीर्थङ्कर प्रणीत है, अत: वन्दनीय है। हरिभद्र भारी मन में से विशेषणों से सम्बोधित करते हैं, किन्तु वे उतने ही कठोर होना भी जानते मात्र यही कहते हैं कि मैं अपने सिर की पीड़ा किससे कहूँ।।९। हैं, विशेष रूप से उनके प्रति जो धार्मिकता का आवरण डालकर भी किन्तु यह तो प्रत्येक क्रान्तिकारी की नियति होती है। प्रथम अधार्मिक हैं । ऐसे लोगों के प्रति यह क्रान्तिकारी आचार्य कहता है - क्षण में जनसाधारण भी उसके साथ नहीं होता है । अत: हरिभद्र का इस
ऐसे दुश्शील, साध-पिशाचों को जो भक्तिपूर्वक वन्दन नमस्कार पीड़ा से गुजरना उनके क्रान्तिकारी होने का ही प्रमाण है । सम्भवत: करता है, क्या वह महापाप नहीं है ?४२ अरे ! इन सुखशील स्वच्छन्दाचारी, जैन-परम्परा में यह प्रथम अवसर था, जब जैन समाज के तथाकथित मोक्ष-मार्ग के बैरी, आज्ञाभ्रष्ट साधुओं को संयति अर्थात् मुनि मत कहो) मुनि वर्ग को इतना स्पष्ट शब्दों में किसी आचार्य ने लताड़ा हो। वे स्वयं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org