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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
हरिभद्र इस सम्बन्ध में सीधे तो कुछ नहीं कहते हैं, मात्र एक लिकबहुटीका । २१. देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरण ।२२. द्विजवदनचपेटा । प्रश्न चिह्न छोड़ देते हैं कि सराग और सशस्त्र देव में देवत्व (उपास्य) २३. धर्मबिन्दु । २४. धर्मलाभसिद्धि । २५. धर्मसंग्रहणी । की गरिमा कहाँ तक ठहर पायेगी । अन्य परम्पराओं के देव और गुरु २६. धर्मसारमूलटीका ।२७. धूर्ताख्यान । २८. नंदीवृत्ति । २९. न्यायके सम्बन्ध में उनकी सौम्य एवं व्यंग्यात्मक शैली जहाँ पाठक को प्रदेशसूत्रवृत्ति । ३०. न्यायविनिश्चय। ३१. न्यायामृततरंगिणी । चिन्तन के लिए विवश कर देती है, वहीं दूसरी ओर वह उनके ३२. न्यायावतारवृत्ति । ३३. पंचनिग्रन्थी। ३४. पंचलिंगी । क्रान्तिकारी, साहसी व्यक्तित्व को प्रस्तुत कर देती है । हरिभद्र सम्बोधप्रकरण ३५. पंचवस्तुसटीक । ३६. पंचसंग्रह । ३७. पंचसूत्रवृत्ति । में स्पष्ट कहते हैं कि रागी-देव, दुराचारी-गुरु और दूसरों को पीड़ा ३८. पंचस्थानक । ३९. पंचाशक । ४०. परलोकसिद्धि । ४१. पिंडनियुक्तिवृत्ति। पहुँचाने वाली प्रवृत्तियों को धर्म मानना, धर्म साधना के सम्यक् स्वरुप ४२. प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या । ४३. प्रतिष्ठाकल्प । ४४. बृहन्मिथ्यात्वमंथन को विकृत करना है । अत: हमें इन मिथ्या विश्वासों से ऊपर उठना ४५. मुनिपतिचरित्र ४६. यतिदिनकृत्य । ४७. यशोधरचरित । होगा । इस प्रकार हरिभद्र जनमानस को अन्धविश्वासों से मुक्त कराने का ४८. योगदृष्टिसमुच्चय। ४९. योगबिन्दु । ५०. योगशतक । प्रयास कर अपने क्रान्तदशी होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। ५१. लग्नशुद्धि । ५२. लोकतत्त्वनिर्णय । ५३. लोकबिन्दु ।
वस्तुत: हरिभद्र के व्यक्तित्व में एक ओर उदारता और ५४. विंशतिविंशिका । ५५. वीरस्तव । ५६. वीरांगदकथा । समभाव के सद्गुण हैं तो दूसरी ओर सत्यनिष्ठा और स्पष्टवादिता भी है। ५७. वेदबाह्यतानिराकरण । ५८. व्यवहारकल्प । ५९. शास्त्रउनका व्यक्तित्व अनेक सद्गुणों का एक पूँजीभूत स्वरुप है । वे पूर्वाग्रह या वार्तासमुच्चयसटीक । ६०. श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति । ६१. श्रावकधर्मतंत्र । पक्षाग्रह से मुक्त हैं, फिर भी उनमें सत्याग्रह है जो उनकी कृतियों में स्पष्टतः ६२. षड्दर्शनसमुच्चय । ६३. षोडशक ।६४. समकित पचासी । ६५. परिलक्षित होता है।
संग्रहणीवृत्ति । ६६. संमत्तसित्तिरी । ६७. संबोधसित्तरी । ६८. समराइच्चकहा। आचार्य हरिभ्रद की रचना धर्मिता अपूर्व है, उन्होंने धर्म, दर्शन ६९. सर्वज्ञसिद्धिप्रकरणसटीक । ७०. स्याद्वादकुचोद्यपरिहार। योग, कथा साहित्य सभी पक्षों पर अपनी लेखनी चलाई । उनकी किन्तु इनमें कुछ ग्रन्थ ऐसे भी जिन्हें 'भवविरहांक' समदर्शी रचनाओं को ३ भागों में विभक्त किया जा सकता है।
आचार्य हरिभद्र की कृति है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है । आगे हम उन्हीं १. आगमग्रन्थों एवं पूर्वाचार्यों की कृतियों पर टीकाएं. कृतियों का संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं जो निश्चित रूप से समदर्शी एवं आचार्य हरिभद्र आगमों के प्रथम संस्कृत टीकाकार हैं । उनकी टीकाएं भव-विरहांक से सूचित यकिनीसूनु हरिभद्र द्वारा प्रणीत हैं । अधिक व्यवस्थित और तार्किकता लिये हुये हैं ।
आगमिक व्याख्याएँ २. स्वरचित ग्रन्थ एवं स्वोपज्ञ टीकाएँ - आचार्य ने जैन जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है, हरिभद्र जैन आगमों की दर्शन और समकालीन अन्य दर्शनों का गहन अध्ययन करके उन्हें संस्कृत में व्याख्या लिखने वाले प्रथम आचार्य हैं । आगमों की व्याख्या अत्यन्त स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया है । इन ग्रन्थों में सांख्य योग, न्याय- के सन्दर्भ में उनके निम्न ग्रन्थ उपलब्ध हैं - वैशेषिक, अद्वैत, चार्वाक, बौद्ध, जैन आदि दर्शनों का प्रस्तुतीकरण एवं (१) दशवैकालिक वृत्ति, (२) आवश्यक लघुवृत्ति, (३) सम्यक समालोचना की है। जैन योग के तो वे आदि प्रणेता थे, उनका अनुयोगद्वार वृत्ति, (४) नन्दी वृत्ति, (५) जीवाभिगमसूत्र लघुवृत्ति (६) योग विषयक ज्ञान मात्र सैद्धान्तिक नहीं था । इसके साथ ही उन्होंने चैत्यवन्दनसूत्र वृत्ति (ललितविस्तरा) और (७) प्रज्ञापनाप्रदेश व्याख्या । अनेकान्तजयपताका नामक क्लिष्ट न्याय ग्रन्थ की भी रचना की।
इनके अतिरिक्त आवश्यक सूत्र बृहत्वृत्ति और पिण्डनियुक्ति ३. कथा-साहित्य - आचार्य ने लोक प्रचलित कथाओं के वृत्ति के लेखक भी आचार्य हरिभद्र माने जाते हैं, किन्तु वर्तमान में माध्यम से धर्म-प्रचार को एक नया रूप दिया है । उन्होंने व्यक्ति और आवश्यक वृत्ति अनुपलब्ध है । जो पिण्डनियुक्ति टीका मिलती है उसकी समाज की विकृतियों पर प्रहार कर उनमें सुधार लाने का प्रयास किया उत्थानिका में यह स्पष्ट उल्लेख है कि इस ग्रन्थ का प्रारम्भ तो हरिभद्र ने है । समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान और अन्य लघु कथाओं के माध्यम से किया था, किन्तु वे इसे अपने जीवन-काल में पूर्ण नहीं कर पाए, उन्होंने उन्होंने अपने युग की संस्कृति का स्पष्ट एवं सजीव चित्रांकन किया है। स्थापनादोष तक की वृत्ति लिखी थी, उसके आगे किसी वीराचार्य ने लिखी। आचार्य हरिभद्र विरचित ग्रन्थ-सची निम्न है -
__ आचार्य हरिभद्र द्वारा विरचित व्याख्या ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय १. अनुयोगद्वार वृत्ति । २. अनेकान्तजयपताका । इस प्रकार है - ३. अनेकान्तघट्ट । ४. अनेकान्तवादप्रवेश । ५. अष्टक । १. दशवैकालिक वृत्ति - यह वृत्ति शिष्यबोधिनी या बृहद्वृत्ति ६. आवश्यकनियुक्तिलघुटीका । ७. आवश्यकनियुक्तिबहुटीका । के नाम से भी जानी जाती है । वस्तुत: यह वृत्ति दशवैकालिक सूत्र की ८. उपदेशपद । ९. कथाकोश । १०. कर्मस्तववृत्ति । ११. कुलक। अपेक्षा उस पर भद्रबाहुविरचित नियुक्ति पर है । इसमें आचार्य ने १२. क्षेत्रसमासवृत्ति । १३. चतुर्विंशतिस्तुति । १४. चैत्यवंदनभाष्य। दशवैकालिक शब्द का अर्थ, ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल की आवश्यकता १५. चैत्यवन्दनवृत्ति । १६. जीवाभिगमलघुवृत्ति ।१७. ज्ञानपंचकविवरण। और उसकी व्युत्पत्ति को स्पष्ट करने के साथ ही दशवैकालिक की रचना १८. ज्ञानदिव्यप्रकरण । १९. दशवैकालिक-अवचूरि ।२० दशवैका- क्यों की गई इसे स्पष्ट करते हुए सय्यंभव और उनके पुत्र मनक के पूर्ण
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