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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
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कथानक का भी उल्लेख किया है। प्रथम अध्याय की टीका में आचार्य शासन में उत्पन्न चार अनुयोगों का विभाजन करने वाले आर्यरक्षित से ने तप के प्रकारों की चर्चा करते हुए ध्यान के चारों प्रकारों का सुन्दर सम्बद्ध गाथाओं का वर्णन है । चतुर्विंशतिस्तव और वंदना नामक विवेचन प्रस्तुत किया है । इस प्रथम अध्याय की टीका में प्रतिज्ञा, हेतु, द्वितीय और तृतीय आवश्यक का नियुक्ति के अनुसार व्याख्यान कर उदाहरण आदि अनुमान के विभिन्न अवयवों एवं हेत्वाभासों की भी चर्चा प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ आवश्यक की व्याख्या में ध्यान पर विशेष के अतिरिक्त उन्होंने इसमें निक्षेप के सिद्धान्तों का भी विवेचन किया है। प्रकाश डाला गया है । साथ ही सात प्रकार के भयस्थानों सम्बन्धी
दूसरे अध्ययन की वृत्ति में तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, अतिचारों की आलोचना की गाथा उद्धृत की गई है । पञ्चम आवश्यक पाँच इन्द्रिय, पाँच स्थावरकाय, दस प्रकार का श्रमण धर्म और १८००० के रूप में कायोत्सर्ग का विवरण देकर पंचविधकाय के उत्सर्ग की शीलांगों का भी निर्देश मिलता है । साथ ही इसमें रथनेमि और राजीमती तथा षष्ठ आवश्यक में प्रत्याख्यान की चर्चा करते हुए वृत्तिकार ने के उत्तराध्ययन में आए हुए कथानक का भी उल्लेख है । तृतीय शिष्यहिता नामक आवश्यक टीका सम्पन्न की है। आचार्य हरिभद्र अध्ययन की वृत्ति में महत् और क्षुल्लक शब्द के अर्थ को स्पष्ट करने की यह वृत्ति २२,००० श्लोक प्रमाण है। के साथ ही ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार को ३. अनुयोगद्वार वृत्ति- यह टीका अनुयोगद्वार चूर्णि की शैली स्पष्ट किया गया है तथा कथाओं के चार प्रकारों को उदाहरण सहित पर लिखी गयी है जो कि नन्दीवृत्ति के बाद की कृति है । इसमें समझाया गया है । चतुर्थ अध्ययन की वृत्ति में पञ्चमहाव्रत और 'आवश्यक' शब्द का निपेक्ष-पद्धति से विचार कर नामादि आवश्यकों रात्रिभोजन-विवरण की चर्चा के साथ-साथ जीव के स्वरूप पर भी का स्वरूप बताते हुए नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव का स्वरूप स्पष्ट दार्शनिक दृष्टि से विचार किया गया है । इसमें भाष्यगत अनेक गाथाएँ किया गया है । श्रुत का निक्षेप-पद्धति से व्याख्यान किया है। स्कन्ध, भी उद्धृत गयी हैं। इसी प्रकार पंचम अध्ययन की वृत्ति में १८ स्थाणु उपक्रम आदि के विवेचन के बाद आनुपूर्वी को विस्तार से प्रतिपादित अर्थात् व्रत-षट्क, काय-षट्क, अकल्प्य भोजन-वर्जन, गृहभाजनवर्जन, किया है । इसके बाद द्विनाम, त्रिनाम, चतुर्नाम, पञ्चनाम, षटनाम, पर्यंकवर्जन, निषिध्यावर्जन, स्नानवर्जन और शोभावर्जन का उल्लेख हुआ सप्तनाम, अष्टनाम, नवनाम और दशनाम का व्याख्यान किया गया है। है । षष्ठ अध्ययन में क्षुल्लकाचार का विवेचन किया गया है। सप्तम प्रमाण का विवेचन करते हुए विविध अंगुलों के स्वरूप का वर्णन तथा अध्ययन की वृत्ति में भाषा की शुद्धि-अशुद्धि का विचार है । अष्टम समय के विवेचन में पल्योपम का विस्तार से वर्णन किया गया है । अध्ययन की वृत्ति में आचार-प्रणिधि की प्रक्रिया एवं फल का प्रतिपादन शरीर पञ्चक के पश्चात् भावप्रमाण में प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य, आगम, है। नवम अध्ययन की वृत्ति में विनय के प्रकार और विनय के फल तथा दर्शन चारित्र, नय और संख्या का व्याख्यान है । नय पर पुन: विचार अविनय से होने वाली हानियों का चित्रण किया गया है। दशम अध्ययन करते हुए ज्ञाननय और क्रियानय का स्वरूप निरूपित करते हुए ज्ञान की वृत्ति भिक्षु के स्वरूप की चर्चा करती है । दशवैकालिक वृत्ति के अंत और क्रिया दोनों की एक साथ उपयोगिता को सिद्ध किया गया है । में आचार्य ने अपने को महत्तरा याकिनी का धर्मपुत्र कहा है।
४. नन्दी वृत्ति - यह वृत्ति नन्दीचूर्णि का ही रूपान्तर है। इसमें २. आवश्यक वृत्ति - यह वृत्ति आवश्यक नियुक्ति पर प्राय: उन्हीं विषयों के व्याख्यान हैं जो नन्दीचूर्णि में हैं । इसमें प्रारम्भ आधारित है । आचार्य हरिभद्र ने इसमें आवश्यक सूत्रों का पदानुसरण में नन्दी के शब्दार्थ, निक्षेप आदि एवं उसके बाद जिन, वीर और संघ न करते हुए स्वतन्त्र रीति से नियुक्ति-गाथाओं का विवेचन किया है। की स्तुति की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए तीर्थङ्करावलिका, गणधरावलिका नियुक्ति की प्रथम गाथा की व्याख्या करते हुए आचार्य ने पाँच प्रकार और स्थविरावलिका का प्रतिपादन किया गया है। नन्दी वृत्ति में ज्ञान के के ज्ञान का स्वरूप प्रतिपादित किया है । इसी प्रकार मति, श्रुत, अवधि, अध्ययन की योग्यता-अयोग्यता पर विचार करते हुए लिखा है कि अयोग्य मन:पर्यय और केवल की भी भेद-प्रभेदपूर्वक व्याख्या की गई है। को ज्ञान-दान से वस्तुत: अकल्याण ही होता है । इसके बाद तीन प्रकार की सामायिक नियुक्ति की व्याख्या में प्रवचन की उत्पत्ति के प्रसंग पर पर्षद का व्याख्यान, ज्ञान के भेद-प्रभेद, स्वरूप, विषय आदि का विवेचन प्रकाश डालते हुए बताया है कि कुछ पुरुष स्वभाव से ही ऐसे होते हैं, किया गया है। केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन के क्रमिक उपयोग आदि का जिन्हें वीतराग की वाणी अरुचिकर लगती है, इसमें प्रवचनों का कोई प्रतिपादन करते हुए युगपवाद के समर्थक सिद्धसेन आदि का, क्रमिकत्व दोष नहीं है । दोष तो उन सुनने वालों का है। साथ ही सामायिक के के समर्थक जिनभद्रगणि आदि का तथा अभेदवाद के समर्थक वृद्धाचार्यों उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र आदि तेईस द्वारों का विवेचन करते हुए का उल्लेख किया गया है। इसमें वर्णित सिद्धसेन, सिद्धसेन दिवाकर सामायिक के निर्गम द्वार के प्रसंग में कुलकरों की उत्पत्ति,उनके पूर्वभव, से भिन्न हैं, क्योंकि सिद्धसेन दिवाकर तृतीय मत अभेदवाद के प्रवर्तक आयु का वर्णन तथा नाभिकुलकर के यहाँ भगवान् ऋषभदेव का जन्म, हैं। द्वितीय मत क्रमिकत्व के समर्थक जिनभद्र आदि को सिद्धान्तवादी तीर्थङ्कर नाम, गोत्रकर्म बंधन के कारणों पर प्रकाश डालते हुए अन्य कहा गया है । अन्त में श्रुत के श्रवण और व्याख्यान की विधि बताते आख्यानों की भाँति प्राकृत में धन नामक सार्थवाह का आख्यान दिया हुए आचार्य ने नन्द्यध्ययन विवरण सम्पन्न किया है। गया है । ऋषभदेव के पारणे का उल्लेख करते हुए विस्तृत विवेचन ५. जीवाभिगमसूत्र लघुवृत्ति - इस वृत्ति के अपरनाम के रूप हेतु 'वसुदेवहिंडी' का नामोल्लेख किया गया है। भगवान् महावीर के में 'प्रदेशवृत्ति' का उल्लेख मिलता है। इसका ग्रन्थान ११९२ गाथाएँ
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