Book Title: Sagarmal Jain Abhinandan Granth
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 808
________________ ६७६ नाम का धर्म है। जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ (२) स्थापनाधर्म जिन क्रियाकाण्डों को धर्म मान लिया जाता है, है, वे ' वस्तुतः धर्म नहीं धार्मिकता के परिचायक बाह्य रूप मात्र हैं। पूजा, ताप आदि धर्म के प्रतीक हैं, किन्तु भावना के अभाव में वे वस्तुतः धर्म नहीं हैं। भावनारहित मात्र क्रियाकाण्ड स्थापना धर्म है । - (३) द्रव्यधर्म वे आचार-परम्पराएँ जो कभी धर्म थीं या धार्मिक समझी जाती थीं, किन्तु वर्तमान सन्दर्भ में धर्म नहीं हैं । सत्वशून्य अप्रासंगिक बनी धर्म-परम्पराएँ ही द्रव्यधर्म हैं। (४) भावधर्म जो वस्तुतः धर्म है वही भाव धर्म है। यथासमभाव की साधना विषयकषाय से निवृत्ति आदि भावधर्म हैं। हरिभद्र धर्म के इन चार रूपों में भावधर्म को ही प्रधान मानते हैं। वे कहते हैं कि जिस प्रकार तक्रादि के संयोग, मन्थन की प्रक्रिया और अग्रि द्वारा परितापन के फलस्वरूप दूध रूपी आत्मा घृत रूप परमात्मतत्त्व को प्राप्त होता है । ३२ वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह जो भागवत धर्म है, वही विशुद्धि का हेतु है । यद्यपि हरिभद्र के इस कथन का यह आशय भी नहीं लेना चाहिए कि हरिभद्र कर्मकाण्ड के पूर्णतः विरोधी हैं। उन्होंने स्वयं ही सम्बोधप्रकरण की लगभग ५०-६० गावाओं में आत्मशुद्धिः निमित्त जिनपूजा और उसमें होने वाली आशातनाओं का सुन्दर चित्रण किया है। मात्र उनका प्रतिपाद्य यह है कि इन कर्मकाण्डों का मूल्य भावना-शुद्धि के आधार पर ही निर्धारित होता है। यदि धार्मिक जीवन में वासना और कषायों का शमन और आत्मविशुद्धि नहीं होती है तो कर्मकाण्ड का कोई मूल्य नहीं रह जाता है । वस्तुतः हरिभद्र साध्य की उपलब्धि के आधार पर ही साधन का मूल्यांकन करते हैं। वे उन विचारकों में से हैं जिन्हें धर्म के मर्म की पहचान है, अतः वे धर्म के नाम पर ढोंग, आडम्बर और लोकैषणा की पूर्ति के प्रयत्नों को कोई स्थान नहीं देना चाहते हैं। यही उनकी क्रान्तधर्मिता है। Jain Education International " २७३) । वस्तुतः यहाँ हरिभद्र ने मन्दिर निर्माण प्रतिष्ठा, पूजा आदि कार्यों में उलझने पर मुनि वर्ग का जो पतन हो सकता था, उसका पूर्वानुमान कर लिया था। यति संस्था के विकास से उनका यह अनुमान सत्य ही सिद्ध हुआ । इस सम्बन्ध में उन्होंने जो कुछ लिखा उसमें एक और उनके युग के समाज के प्रति उनकी आत्म-पीड़ा मुखर हो रही है - तो दूसरी ओर उसमें एक धर्मक्रान्ति का स्वर भी सुनाई दे रहा है। जिनद्रव्य को अपनी वासना पूर्ति का साधन बनाने वाले उन श्रावकों एवं तथाकथित श्रमणों को ललकारते हुए वे कहते हैं जो श्रावक जिनप्रवचन और ज्ञान-दर्शन गुणों की प्रभावना और वृद्धि करने वाले जिनद्रव्य का जिनाशा के विपरीत उपयोग करते हैं, दोहन करते हैं अथवा भक्षण करते हैं, वे क्रमशः भवसमुद्र में भ्रमण करने वाले, दुर्गति में जाने वाले और अनन्त संसारी होते हैं । ३५ इसी प्रकार जो साधु जिनद्रव्य का भोजन करता है वह प्रायश्चित् का पात्र है ।३६ वस्तुतः यह सब इस तथ्य कभी सूचक है कि उस युग में धर्म साधना का माध्यम न रहकर वासनापूर्ति का माध्यम बन रहा था। अतः हरिभद्र जैसे प्रबुद्ध आचार्य के लिये उसके प्रति संघर्ष करना आवश्यक हो गया । सम्बोधप्रकरण में हरिभद्र ने अपने युग के जैन साधुओं का जो चित्रण किया है वह एक ओर जैन धर्म में साधु-जीवन के नाम पर जो कुछ हो रहा था उसके प्रति हरिभद्र की पीड़ा को प्रदर्शित करता है तो दूसरी ओर यह भी बताता है कि हरिभद्र तत्कालीन परिस्थितियों के मूक दर्शक और तटस्थ समीक्षक ही नहीं थे, अपितु उनके मन में सामाजिक और धार्मिक क्रान्ति की एक तीव्र आकांक्षा भी थी। वे अपनी समालोचना के द्वारा जनसमाज में एक परिवर्तन लाना चाहते थे । । तत्कालीन तथाकथित भ्रमणों के आचार-व्यवहार पर कटाक्ष करते हुए वे लिखते हैं कि जिन-प्रवचन में पार्श्वस्थ अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाछन्द (स्वेच्छाचारी)- ये पाँचों अवन्दनीय हैं। यद्यपि ये लोग जैन मुनि का वेश धारण करते हैं, किन्तु इनमें मुनित्व का लक्षण नहीं है। मुनि वेश धारण करके है। मुनि वेश धारण करके भी क्या-क्या दुष्कर्म करते थे, इसका सजीव चित्रण तो वे अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण के द्वितीय अधिकार में 'कुगुरु गुर्व्वाभास पार्श्वस्थ आदि स्वरूप' के अर्न्तगत १७१ गाथाओं में विस्तार से हरिभद्र के युग में जैन परम्परा में चैत्यवास का विकास हो करते हैं। इस संक्षिप्त निबन्ध में उन सबकी समग्र चर्चा एवं व्याख्या करना चुका था। अपने आपको भ्रमण और त्यागी कहने वाला मुनिवर्ग तो सम्भव नहीं है, फिर भी हरिभद्र की कठोर समालोचक दृष्टि का परिचय जिनपूजा और मन्दिर निर्माण के नाम पर न केवल परिग्रह का संचय कर देने के लिये कुछ विवरण देना भी आवश्यक है। वे लिखते हैं, ये मुनिरहा था, अपितु जिनद्रव्य (जिन प्रतिमा को समर्पित द्रव्य) का अपनी वेशधारी तथाकथित भ्रमण आवास देने वाले का या राजा के यहाँ का भोजन विषय-वासनाओं की पूर्ति में उपयोग भी कर रहा था। जिन प्रतिमा और करते हैं, बिना कारण ही अपने लिये लाए गए भोजन को स्वीकार करते जिन मन्दिर तथाकथित भ्रमणों की ध्यान भूमि या साधना भूमि न बनकर हैं, भिक्षाचर्या नहीं करते हैं, आवश्यक कर्म अर्थात् प्रतिक्रमण आदि श्रमणभोग-भूमि बन रहे थे। हरिभद्र जैसे क्रांतिदर्शी आचार्य के लिये यह सब जीवन के अनिवार्य कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं कौतुक कर्म, भूत-कर्म, देख पाना सम्भव नहीं था, अतः उन्होंने इसके विरोध में अपनी कलम भविष्य फल एवं निमित्त शास्त्र के माध्यम से धन संचय करते हैं, ये घृतचलाने का निर्णय लिया। वे लिखते हैं द्रव्य पूजा तो गृहस्थों के लिये मक्खन आदि विकृतियों को संचित करके खाते हैं, सूर्य प्रमाण भोजी होते है, मुनि के लिए तो केवल भाव-पूजा है जो केवल मुनि वेशधारी हैं, हैं अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक अनेक बार खाते रहते हैं, न तो 1 मुनि-आचार का पालन नहीं करते हैं, उनके लिए द्रव्य पूजा जिन प्रवचन की निन्दा का कारण होने से उचित नहीं है (सम्बोधप्रकरण, १/ । - साधूसमूह ( मण्डली) में बैठकर भोजन करते हैं और न केशलुंचन करते हैं। २० फिर ये करते क्या हैं? हरिभद्र लिखते हैं कि वे सवारी में घूमते हैं, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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