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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ कृति का महाराष्ट्री प्राकृत में रचित होना दो तथ्यों को स्पष्ट कर देता है- प्रश्न को लेकर विद्वानों में मतभेद है । मुख्य रूप से उन स्तुतियों को प्रथम तो यह कि यह पश्चिमी या पश्चिमोत्तर भारत में रची गयी है। इससे जिनमें महावीर के विवाह का संकेत है, दिगम्बर विद्वान, किसी अन्य यह भी सिद्ध होता है कि सिद्धसेन दिवाकर का विचरण क्षेत्र मुख्यतः सिद्धसेन की कृति मानते हैं । किन्तु केवल अपनी परम्परा का समर्थन पश्चिमी भारत था। प्रबन्धों में उनके अवन्तिका, भृगुकच्छ तथा प्रतिष्ठानपुर न होने से उन्हें अन्य सिद्धसेन की कृति कह देना उचित नहीं है । जाने के उल्लेख इसी तथ्य को पुष्ट करते हैं । द्वितीय यह कि सिद्धसेन उपलब्ध बाईस बत्तीसियों में अन्तिम बत्तीसी न्यायावतार के नाम से जानी दिवाकर का सम्बन्ध पश्चिमोत्तर भारत की उस निर्ग्रन्थ परम्परा से रहा है जाती है । यह बत्तीसी सिद्धसेन की कृति है या नहीं? इस प्रश्न को लेकर जो श्वेताम्बरों एवं यापनीयों की पूर्वज थी । सिद्धसेन ने इस कृति में भी विद्वानों में भी मतभेद है, अत: इस पर थोड़ी गहराई से चर्चा करें। मुख्यत: जैन दर्शन के मूलभूत सिद्धान्त अनेकान्तवाद की स्थापना की है । यह ग्रन्थ १६६ या १६७ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध तथा तीन न्यायावतार का कृतित्व काण्डों में विभक्त है।
न्यायावतार, सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन की कृति है या नहीं, प्रथम काण्ड में अनेकान्तवाद, नयवाद और सप्तभंगी की चर्चा यह एक विवादास्पद प्रश्न है। इस सन्दर्भ में श्वेताम्बर विद्वान् भी मतैक्य है। अनेकान्तवाद की स्थापना की दृष्टि से इसमें अन्य दर्शनों की नहीं रखते हैं। पं० सुखलाल जी, पं० बेचरदास जी एवं पं० दलसुख एकान्तवादी मान्यताओं की समीक्षा भी की गयी है और उनकी ऐकान्तिक मालवणिया ने न्यायावतार को सिद्धसेन की कृति माना है, किन्तु मान्यताओं का निरसन करते हुए अनेकान्तवाद की स्थापना की गयी है। एम०ए० ढाकी आदि कुछ श्वेताम्बर विद्वान् उनसे मतभेद रखते हुए उसे सप्तभंगी का उल्लेख जैनदर्शन में प्रथम बार इसी ग्रन्थ में मिलता है। सिद्धर्षि की कृति मानते हैं। डॉ० श्री प्रकाश पाण्डेय ने अपनी कृति ग्रन्थ के दूसरे काण्ड में केवलदर्शन और केवलज्ञान के उत्पत्ति-क्रम के सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व' में इस प्रश्न की विस्तृत प्रश्न को लेकर क्रमवाद और युगपद्वाद की मान्यताओं की समीक्षा करते समीक्षा की है तथा प्रो० ढाकी के मत का समर्थन करते हुए न्यायावतार हुए अन्त में अभेदवाद की अपनी मान्यता को प्रस्तुत किया है। तीसरे को सिद्धसेन दिवाकर की कृति न मानते हुए इसे सिद्धर्षि की कृति माना काण्ड में सिद्धसेन ने श्रद्धा और तर्क की ऐकान्तिक मान्यताओं का है। किन्तु कुछ तार्किक आधारों पर मेरी व्यक्तिगत मान्यता यह है कि निराकरण करते हुए अनेकान्त की दृष्टि से उनकी सीमाओं का उल्लेख न्यायावतार भी सिद्धसेन की कृति है। प्रथम तो यह है कि न्यायावतार किया है । इसी प्रकार इस काण्ड में कारण के सम्बन्ध में काल, भी एक द्वित्रिंशिका है और सिद्धसेन ने स्तुतियों के रूप में द्वित्रिंशिकाएँ स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ आदि की ऐकान्तिक अवधारणाओं की समीक्षा ही लिखी हैं। उनके परवर्ती आचार्य हरभिद्र ने अष्टक, षोडशक और करते हुए अनेकान्तिक दृष्टि से उनके बीच समन्वय स्थापित किया है। विशिंकायें तो लिखी किन्तु द्वात्रिंशिका नहीं लिखी । दूसरे, न्यायावतार अन्त में यह बताया है कि शास्त्र के अर्थ को समझने के लिए किस में आगम युग के प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम -इन तीन प्रमाणों की प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि विभिन्न अपेक्षाओं का विचार करना ही चर्चा हुई है, दर्शनयुग में विकसित जैन परम्परा में मान्य स्मृति, चाहिए । आचार्य सिद्धसेन का कथन है कि केवल शब्दों के अर्थ को प्रत्यभिज्ञा और तर्क की प्रमाण के रूप में मूल ग्रन्थ में कोई चर्चा नहीं जान लेने से सूत्र का आशय नहीं समझा जा सकता है।
है जबकि परवर्ती सभी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आचार्य एवं न्यायावतार सन्मति तर्क के अतिरिक्त द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका को भी सिद्धसेन के टीकाकार सिद्धर्षि स्वयं भी इन प्रमाणों की चर्चा करते हैं । यदि दिवाकर की कृति माना जाता है। वस्तुतः द्वात्रिंशद्-द्वात्रिंशिका बत्तीस- सिद्धर्षि स्वयं ही इसके कर्ता होते तो कम से कम एक कारिका बनाकर बत्तीस पद्यों की बत्तीस कृतियों का संग्रह है। इन बत्तीसियों में कुछ इन तीनों प्रमाणों का उल्लेख तो मूलग्रन्थ में अवश्य करते । पुनः बत्तीसियाँ सिद्धसेन के जैनधर्म में दीक्षित होने के पूर्व रची गयी प्रतीत सिद्धर्षि की टीका में कोई भी ऐसे लक्षण नहीं मिलते हैं, जिससे वह होती हैं, जैसे- वेद बत्तीसी। वर्तमान में बत्तीस बत्तीसियों में से मात्र बाईस स्वोपज्ञ सिद्ध होती है । इस कृति में कहीं भी उत्तम पुरुष के प्रयोग नहीं बत्तीसियाँ उपलब्ध हैं, न्यायावतार भी उसका ही अंग है। आठवीं, मिलते । यदि वह उनकी स्वोपज्ञ टीका होती तो इसमें उत्तम पुरुष के ग्यारहवीं, पन्द्रहवीं और उन्नीसवीं बत्तीसियों में बत्तीस से कम पद्य हैं। कुछ तो प्रयोग मिलते । बाईस बत्तीसियों में कुल ७०४ पद्य होने चाहिए किन्तु ६९५ पद्य ही प्रत्यक्ष की परिभाषा में प्रयुक्त 'अभ्रान्त' पद तथा समन्तभद्र के उपलब्ध होते हैं। इन बत्तीसियों में प्रथम पाँच, ग्यारहवीं और इक्कीसवीं रत्नकरण्डक श्रावकाचार के जिस श्लोक को लेकर यह शंका की जाती ये सात स्तुत्यात्मक हैं । छठी और आठवीं बत्तीसी समीक्षात्मक है। शेष है कि न्यायावतार सिद्धसेन दिवाकर की कृति नहीं है- अन्यथा वे तेरह स्तुतियाँ स्तुतिरूप न होकर दार्शनकि विवेचन या वर्णनात्मक हैं। धर्मकीर्ति और समन्तभद्र के परवर्ती सिद्ध होंगे। प्रथम तो यही निश्चित दार्शनिक स्तुतियों में भी ग्यारहवीं स्तुति में न्याय दर्शन की, तेरहवीं में नहीं है कि रत्नकरण्डकश्रावकाचार समन्तभद्र की कृति है या नहीं । सांख्य दर्शन की, चौदहवीं में वैशेषिक दर्शन की और पन्द्रहवीं में बौद्धों उसमें जहाँ तक 'अभ्रान्त' पद का प्रश्न है- प्रो० टूची के अनुसार यह के शून्यवाद की समीक्षा है।
धर्मकीर्ति के पूर्व भी बौद्ध न्याय में प्रचलित था। अनुशीलन करने पर उपलब्ध सभी बत्तीसियाँ सिद्धसेन की कृति है या नहीं ? इस असंग के गुरु मैत्रेय की कृतियों में एवं स्वयं असंग की कृति अभिधर्म
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